Sunday 21 January 2018

उपभोक्ता संरक्षण (Consumer Protection)

उपभोक्ता संरक्षण संशोधन विधेयक-2017 लोकसभा में पेश हो चुका है। संसद से इसके पारित होते ही उपभोक्ताओं के लिए एक नए युग का प्रारंभ होना सुनिश्चित है। यह उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 की जगह लेगा। पूर्व, दक्षिण और दक्षिण पूर्वी देशों के लिए उपभोक्ता संरक्षण पर एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि इस कानून में भ्रामक विज्ञापनों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने और उपभोक्ता शिकायतों को समयबद्ध एवं प्रभावी तरीके से कम खर्च में निपटाने पर जोर दिया गया है।

उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 एक बड़े आंदोलन का परिणाम था जब पहली बार बडे़ व्यवसायियों की मनमानी पर अंकुश लगा और उपभोक्ताओं के लिए अलग से कानून बना। शताब्दियों पुराने कानूनों के बीच यह एक ऐसा अधिनियम है जिसमें बड़ी तेजी से सुधार हुए और एक आंदोलन की तरह यह बडे़-बडे़ कदमों से नए-नए संशोधनों के साथ आगे बढ़ता गया। वर्ष 1986 के बाद 1991 में पहले संशोधन में तीन सदस्यों में से दो सदस्यों के हस्ताक्षर से आदेश पारित हो जाने का प्रावधान करके संसद ने इस अड़चन को दूर कर दिया कि यदि तीन सदस्यों में से एक सदस्य उपस्थित न हो पाए तो अदालत की प्रक्रिया कैसे चले?
जब सर्वोच्च न्यायालय ने सर्विसेस की व्याख्या की

1993 में उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम में कई सेवा सेवाएं शामिल कीं:
1993 तक सर्वोच्च न्यायालय में कई बड़े मुद्दे पहुंच चुके थे जिससे एक नई समस्या सामने आई। एक महत्वपूर्ण मामला जून 1993 में लखनऊ विकास प्राधिकरण के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष सुना जा रहा था। वह मकान बनाकर देने में विलंब का मामला था जिसमें मुख्य प्रश्न यह था कि मकान अचल संपत्ति है इसलिए वस्तु नहीं है और यह उपभोक्ता अदालत का मामला ही नहीं बनता। यही वह मोड़ था जब सर्वोच्च न्यायालय ने सर्विसेस की व्याख्या की और विभिन्न सेवाओं को भी उपभोक्ता अदालत की परिधि में माना।
उसी वर्ष अगस्त 1993 में संसद ने इस अधिनियम में संशोधन कर कई सेवाओं को भी इसमें शामिल कर लिया। फिर बैंकिंग, भवन निर्माण, रेल और हवाई सेवा, शिक्षा, कुरियर, करियर, बीमा, चिकित्सा, सहकारी समितियां, होटल, रेस्त्रां आदि उपभोक्ता अदालतों के दायरे में आने लगे। इसके बाद बडे़ व्यापारियों और पेशेवर तबकों में छटपटाहट का दौर शुरू हो गया। रेलवे, बैंक, सहकारी समितियां, शिक्षा संस्थान और डॉक्टर आदि तक उपभोक्ता अदालत के वर्चस्व को स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। यहां तक कि वर्ष 1996 में कर्नाटक में उपभोक्ता अधिनियम की अस्मिता को ही चुनौती दे दी गई कि संसद को सिविल कोर्ट के समकक्ष एक नई अदालत खड़ी करने का अधिकार ही नहीं है।

‘जागो ग्राहक जागो’ के माध्यम से उपभोक्ता अदालतों का प्रचार:
सर्वोच्च न्यायालय ने एक के बाद एक सभी तर्कों को खारिज करते हुए यह माना कि देश में विद्यमान अन्य कानूनों के साथ-साथ उपभोक्ता के पास वस्तु में दोष या सेवा में कमी होने पर उपभोक्ता अदालत एक अतिरिक्त विकल्प रहेगा। वर्ष 2002 में एक बड़ा संशोधन फिर हुआ और उपभोक्ता अदालतों को अपने निर्णय का अनुपालन करवाने के लिए प्रथम श्रेणी के मजिस्ट्रेट के अधिकार दे दिए गए। चुनौतियां फिर भी बहुत थीं। सरकार ने पुरजोर तरीके से ‘जागो ग्राहक जागो’ के माध्यम से उपभोक्ता अदालतों का प्रचार किया। अब उपभोक्ता तो जागरूक हो गया, साथ ही उसकी अपेक्षा भी बढ़ती गई, लेकिन व्यापार संसार के विस्तार के साथ कुछ और बदलाव करने की आवश्यकता महसूस की जाने लगी। अदालतों के समक्ष आने वाली कई समस्याओं पर सरकार और अदालतों के बीच व्यापक चर्चा बहुत पहले से शुरू हो गई थी। नए कानून को जिस तरह का स्वरूप मिला है वह अपने साथ बहुत समाधान ले कर आ रहा है।

अथॉरिटी का गठन भी एक महत्वपूर्ण कदम है:
पहले उपभोक्ता अदालतों में काम करने वाला स्टाफ अन्यत्र कभी भी स्थानांतरित हो जाता था। अदालत की प्रक्रिया और काम अन्य विभागों से अलग होता है और जब तक कोई कार्मिक काम सीखता है उसका स्थानांतरण हो जाता है। नए अधिनियम के अनुसार उपभोक्ता अदालतों में नियुक्त कार्मिक अदालत के प्रमुख की निगरानी में काम करेंगे। मौजूदा प्रावधान के अनुसार आदेश के अनुपालन के लिए उपभोक्ता को ही तीस दिन की प्रतीक्षा के बाद अदालत में अनुपालन की याचिका लगानी होती है। ऐसे में फिर से नोटिस भेजा जाता है, लेकिन कई मामलों में आरोपी व्यक्ति पता बदल देता था। अब वह आदेश को सिविल कोर्ट की तरह अनुपालन करा सकेगी। अथॉरिटी का गठन भी एक महत्वपूर्ण कदम है जो स्वयं कई बातों का संज्ञान लेकर कार्रवाई करेगी और इसका स्वरूप राष्ट्रीय होगा। बहुत सारे मसलों में अथॉरिटी को शक्तियां प्रदान की गई हैं कि वह उत्पादक के दायित्व, अनुचित व्यापार व्यवहार, भ्रामक विज्ञापन जैसे मामलों को स्वत: ही उठा सके और संबद्ध ट्रेडर/उत्पादक को वारंट जारी कर सके, जांच कर सके और उपभोक्ता के हित के प्रतिकूल गतिविधि पाई जाने पर उन्हें समुचित आदेश दे सके, दंड तक दे सके और अदालत में भी मुद्दा उठा सके।

उपभोक्ता अपने क्षेत्र की अदालत में भी शिकायत दर्ज करा सकता है:
यद्यपि भ्रामक विज्ञापनों पर उपभोक्ता अदालतें अभी भी उपभोक्ताओं को मुआवजा देने के साथ उन्हें न छापने या उनमें संशोधन के आदेश देती हैं, किंतु उनका अनुपालन सुनिश्चित करने का कोई विकल्प अदालत के पास नहीं है जब तक कि उपभोक्ता याचिका न दायर करे। इस विषय में अथॉरिटी के गठन के साथ व्यापक प्रावधान हुए हैं। इसमें जो एक महत्वपूर्ण प्रावधान है वह यह कि उत्पाद का विज्ञापन देने वाला ही नहीं विज्ञापन का चेहरा बनने वाला व्यक्ति भी भ्रामक बात बोलने के लिए दोषी होगा। चूंकि अब ऑनलाइन खरीद का चलन बढ़ गया है और अभी तक इंडियन टेक्नोलॉजी अधिनियम 2000 की सहायता से ही काम चल रहा था इसलिए नए अधिनियम के तहत अब उपभोक्ता जहां रहता है उस क्षेत्र में स्थित अदालत में भी अपनी शिकायत दर्ज करा सकता है, जबकि अभी तक उसे विपक्षी के कार्यस्थल पर ही केस दर्ज करना पड़ता था।

उपभोक्ता अदालत को सभी दस्तावेज और प्रमाण उपलब्ध कराएं:

एक अन्य महत्वपूर्ण उपलब्धि ऑनलाइन खरीदारों के लिए यह होने वाली है कि उत्पादक और खरीदार के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाने वाले या सामान बेचने के लिए प्लेटफॉर्म देने वाले या उत्पाद को विज्ञापित करने में सहायता करने वाले की भी जिम्मेदारी होगी कि वह अदालत या अथॉरिटी को सभी दस्तावेज और प्रमाण उपलब्ध कराएं। यही नहीं जो कुछ भी उत्पाद के बारे में बताया, छापा या विज्ञापित किया जाएगा, उत्पादक उसके प्रति अपने दायित्व से अदालत में या अथॉरिटी के समक्ष इन्कार नहीं कर सकेगा। इससे पहले उपभोक्ता को ऑनलाइन खरीद पर खरीद के बाद की वारंटी सेवाएं नहीं मिलती थीं और जब ऐसे मामले अदालतों के सामने आते थे तब उत्पादक यह कहकर मुक्त हो जाता था कि उसका सामान बेचने के लिए उसने किसी मध्यस्थ को अथॉरिटी नहीं दी और सामान उनके अधिकृत डीलर से नहीं लिया गया। नए अधिनियम से अदालत से बाहर पार्टियों के बीच मध्यस्थता का भी एक नया अध्याय शुरू होगा।

कुछ समय पहले खाद्य, सार्वजनिक वितरण एवं उपभोक्ता मामलों के मंत्री रामविलास पासवान ने कहा था कि 1986 के कानून में कई खामियां हैं और ई-कॉमर्स के दौर में वह व्यावहारिक नहीं रह गया है। इसीलिए नए कानून में बड़े पैमाने पर बदलाव किया गया है। सच तो यह है कि नए कानून का बेसब्री से इंतजार किया जा रहा है। भारत में अब बाजार और खरीदारी का स्वरूप काफी तेजी से बदला है। हाल तक हमारे समाज में खरीदारी त्योहारों या सामाजिक आयोजनों तक सीमित थी। लेकिन पिछले एक-डेढ़ दशकों में हमारा रहन-सहन तेजी से बदला है। मध्यवर्ग की क्रयशक्ति में इजाफा हुआ है, उसके उपभोग की आदतें बदली हैं। बाजार का विस्तार हुआ है। वह घरों तक पहुंच गया है। ऐसे में मिडिल क्लास नियमित खरीदार बन गया है। लेकिन उसके साथ उत्पादकों, विक्रेताओं का व्यवहार नहीं बदला है। वे बड़ी चतुराई के साथ उपभोक्ताओं का शोषण कर रहे हैं। हालांकि इस बारे में कानून बने हुए हैं, पर उनका कोई खास फायदा नहीं हो रहा है। अब जैसे कई चीजों की कीमत में एकरूपता नहीं है। कई जगहों पर एमआरपी से ज्यादा कीमत वसूली जाती हैं और उसके पीछे अजीबोगरीब तर्क दिए जाते हैं। ई-कॉमर्स की कुछ कंपनियां तो कई बार डुप्लीकेट या टूटा-फूटा माल भेज देती हैं, कई बार सामान लौटाने पर पैसे नहीं लौटातीं। एक सर्वे के अनुसार देश में जाली उपभोक्ता वस्तुओं का बाजार 2500 करोड़ रुपये से भी ज्यादा का हो चुका है।
झूठे और भ्रामक विज्ञापन देना भी शोषण का ही एक रूप है। विभिन्न माध्यमों से गोरापन बढ़ाने, घुटनों के दर्द का रामबाण इलाज करने, कद लंबा करने, सेक्स पावर बढ़ाने आदि के प्रचार किए जाते हैं और इससे जुड़े प्रॉडक्ट खरीदकर लोग प्राय: निराश होते हैं। उपभोक्ताओं को शीघ्र न्याय दिलाने के लिए त्रि-स्तरीय अर्धन्यायिक व्यवस्था की गई थी। पर यहां भी लोगों को तारीख पर तारीख ही मिलती रहती है। देश भर के जिला मंचों, राज्य आयोगों और राष्ट्रीय आयोग में लाखों मामले लंबित पड़े हैं। सरकार का दावा है कि नए कानून में इन तमाम बीमारियों का इलाज खोजा गया है। यह बात सही हो तो भी उपभोक्ताओं को जागरूक और संगठित होना होगा। नया कानून भी तभी जमीन पर उतर पाएगा।

No comments:

Post a Comment

18 सितम्बर 2019 करेंट अफेयर्स - एक पंक्ति का ज्ञान One Liner Current Affairs

दिन विशेष विश्व बांस दिवस -  18 सितंबर रक्षा 16 सितंबर 2019 को Su-30 MKI द्वारा हवा से हवा में मार सकने वाले इस प्रक्षेपास्त्र का सफल परी...