Friday 30 March 2018

The conflict between liberty and equality

In A Theory Of Justice, John Rawls advances two fundamental principles as being constitutive of any reasonable interpretation of justice as fairness. Rawls’ first principle of justice demands that each person is to have an equal right to the most widespread liberty compatible with a like liberty for all. The second principle—the celebrated Difference Principle—emphasizes the primacy of maximizing the advantage (in terms of an index of primary goods) of the worst-off person: specifically, “social and economic inequalities are to be arranged so that they are both (a) to the greatest benefit of the least advantaged and (b) attached to offices and positions open to all under conditions of fair equality of opportunity”. In this perspective then, equality and liberty are the cornerstones of any foundational conception of justice, or more generally, of any inclusive view of political morality.


Given this, it should be cause for concern if the principles of liberty and equality were found to be in mutual conflict. Indeed, it turns out that there are seemingly reasonable ways of interpreting these principles such that they end up being mutually incompatible. Specifically, the potential for such a conflict always exists if we were to defer to the dictates of equality in terms of a version of Amartya Sen’s Weak Equity Axiom, and to the dictates of liberty in terms of his principle of Minimal Liberty (ML).


Sen’s Weak Equity Axiom, which was originally postulated in the context of income distributions, was subsequently advanced in more general terms by the Stanford economist Peter Hammond in terms of a principle that one might call Minimal Equity (ME). Sen’s axiom demanded that in an optimal distribution of income between two individuals, the person who is worse off in both distributions deserves a larger share of the total income.


In a more general setting, one can formulate the principle of ME as follows: given a pair of states of affairs which differ from each other only in terms of the personal features of two individuals—call them 1 and 2, respectively—if, say, person 1 is worse off than person 2 in both states of affairs, then the social choice between the two states should depend only on the preference of the more disadvantaged individual (that is, person 1, in this case). The general principle underlined is that equity must privilege the preference of the more disadvantaged individual in collective choices.


ML defers to a very weak requirement of the recognition of what John Stuart Mill called a protected personal sphere, in which personal preferences are socially respected. More specifically, ML demands that for each of at least two individuals in society, there should be at least one pair of social states each which differ only in a feature personal to that individual, such that the individual’s preference over the relevant pair of states is also accepted as the social preference over that pair. The general underlying principle is that liberty requires personal choices to be collectively respected.


Now it is possible to show that there is a specific sense in which, under certain well-defined conditions, the principles of ML and ME can clash. A demonstration of this is available in work I have done elsewhere (“Can we possibly subscribe to both Liberty and Equality at one and the same time?” Think, 2012). The specific technical details of demonstration are beyond the scope of this article, but the conflict between equity and liberty is a common enough theme in political and moral analysis.


How should we view this alleged conflict between equality and liberty? A particularly appealing interpretation is available in the important book Taking Rights Seriously, written by the late Harvard philosopher and jurist Ronald Dworkin. For Dworkin, the notion of a conflict could be a misplaced one if one allows for a conception of liberty and equality in which the one value is both constrained by, and subsumed under, the other. Indeed, for Dworkin, it is a moot point whether people have any “generalized right to liberty”, as such. Liberty, in Dworkin’s view, is compromised by equality only when the former is interpreted as licence: it is one’s generalized “right” to liberty (as licence) that Dworkin questions.


It is useful to distinguish between two notions of a “right” to something: “wanting” something (such as, say, chocolate cake), on the one hand, and “being entitled to” something (such as, say, admission in a college if one has the requisite marks), on the other. For Dworkin, libertarian rights fit more readily into the first category of rights, and equalitarian rights more readily into the second category.


One may be disposed to imagine that the frustration of desire is less serious than the frustration of entitlement. In line with such a view, it could be held that people have a right to liberty in the first, and weak, sense, while they have a right to equality in the second, and strong, sense. Pitting liberty against equality, in this context, could be misconceived.


Dworkin believes that what “political morality” should demand is “the liberal conception of equality”: this is a conception of equality, not of liberty, and requires that all citizens are entitled to being treated with the same respect and concern as all others. This principle acquires a particular salience in the context of discussions on inter-personal and inter-group inequalities.


Author - S. Subramanian.

Courtesy – Livemint.


Thursday 29 March 2018

संसद का नहीं चल पाना: कारण और निवारण


साधारणतः ऐसा समझा जाता है कि राजनेताओं का हाथ जनता की नब्ज पर होता है, पर संसद में उनके द्वारा स्वयं का तमाशा बनाये जाने के मामले में तो वे जनता की भावनाओं से पूरी तरह अनजान ही लगते हैं। सरल तथ्य यह है कि भारत के लोग अब अपनी संसद तथा कुछ राज्यों की विधानसभाओं में अपने निर्वाचित प्रतिनिधियों के शोर-शराबे, वहशत, उपद्रवबाजी और बुरे व्यवहार से बिल्कुल ऊब चले हैं।


संसद के चालू सत्र में एक भी दिन काम नहीं हो सका है। उसकी बैठक आरंभ होने के कुछ मिनटों के अंदर ही सांसद नारे लगाने, तख्तियां दिखाने, अपशब्द कहने और आसन (वेल) के समक्ष पहुंचकर उन्हें बैठक स्थगित कर देने को बाध्य करने में लग जाते हैं। कुछ मौकों पर जरूर दूसरी बार बैठक आहूत करने की कोशिशें हुई हैं, पर अब तो लोकसभा और राज्यसभा की ज्यादातर बैठकें पूरे दिन के लिए स्थगित कर दी जाती हैं। अगले दिन भी एक बार फिर वही कहानी दोहरायी जाती है। वहीं दूसरी ओर देखें, तो अपने पूरे इतिहास में ब्रिटिश हाउस ऑफ कॉमन्स की बैठक एक भी दिन स्थगित नहीं हुई है। ऐसा ही चलता रहा, तो जल्दी ही हम भी गर्व से यह कह सकेंगे कि ऐसा एक भी दिन नहीं, जब हमारी संसद की बैठक स्थगित न हुई हो।


क्या ऐसे व्यवहार से विरोध व्यक्त करती सियासी पार्टियों अथवा सांसदों का उद्देश्य पूरा होता है? कदापि नहीं। एक समय था कि संसद की बैठक का इस तरह स्थगित हो जाना समाचार का मुद्दा बन जाया करता था। पर अब ऐसा नहीं होता। क्योंकि अब ऐसी वारदातें इतनी नियमितता से होने लगी हैं कि उनकी कोई खबरिया कीमत ही नहीं रह गयी। सच यह है कि यदि विरोध व्यक्त करते सांसद अपने मुद्दों पर चर्चा होने देते और अपनी बात तार्किक ढंग से रखते, तो मीडिया के माध्यम से पूरा देश उनकी बातें सुनता और उस पर कोई मत स्थिर कर पाता।


इस निंदनीय स्थिति की जिम्मेदारी तय करने से कोई लाभ नहीं होनेवाला। इस हमाम में सभी पार्टियां नंगी हैं. जब यूपीए सरकार गद्दी पर थी, तब वह इसका दोष एनडीए पर मढ़ती थी। पर अब टोपी दूसरों के सिर है। तब का विपक्ष अब सत्ता में है, जबकि तब के सत्ताधारी अपनी मित्र पार्टियों के साथ आज विपक्ष में हैं। एक दुष्चक्र के हिस्से की तरह वही गरिमाहीन खेल फिर खेला जा रहा है और राष्ट्र के साथ सारा विश्व दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र की हरकतें हैरत से देख रहा है।


इसका समाधान क्या है? यह तो सच है कि संसद की कार्यवाही चलाने की प्राथमिक जिम्मेदारी सत्तापक्ष की है। उसे चाहिए कि वह सदन, सदन के बाहर तथा इस हेतु सृजित संसद के विभिन्न मंचों पर विपक्ष के साथ सम्मान का व्यवहार करे। यहां संसदीय कार्य मंत्री की भूमिका अत्यंत अहम हो उठती है। इसके साथ ही, विपक्ष भी यह नहीं कह सकता कि वह दोषहीन है। यदि विपक्ष सदन को चलने नहीं देने पर ही आमादा हो, तो सत्तापक्ष कुछ भी नहीं कर सकता।


क्या राज्यसभा के सभापति तथा लोकसभा अध्यक्ष अनुशासन का पालन करा सकते हैं ? वे अवश्य ही ऐसा करा सकते हैं। इन सदनों के संचालकों को इस हेतु व्यापक अनुशासनिक शक्तियां प्राप्त हैं। वे यह तय किया करते हैं कि कोई सदस्य कब बोलेंगे, कितनी देर तक बोलेंगे एवं सदन की कार्यवाही में क्या दर्ज नहीं होगा। वे किसी सदस्य को एक नियत अवधि तक सदन से बाहर रहने का निर्देश भी दे सकते हैं। वे अपने आदेशों के उल्लंघन करनेवाले सदस्यों के नाम ले सकते हैं, ऐसे सदस्यों को चेतावनी दे सकते हैं और उनकी सदस्यता निलंबित भी कर सकते हैं। सदन के मार्शल उनके अधीन होते हैं और सदन के अंदर ऐसे मामलों में उनकी व्यवस्थाओं को चुनौती नहीं दी जा सकती। ऐसी शक्तियों से संपन्न होते हुए भी क्यों वे सदन के सुचारु संचालन में उनका इस्तेमाल नहीं करते? अब सांसदों द्वारा खुल्लम-खुल्ला अस्वीकार्य व्यवहार बहुत लंबे वक्त तक सहन किये जा चुके हैं और पिछले कुछ वर्षों के दौरान सदन के संचालकों द्वारा प्रदर्शित दृढ़ता की कमी ने निश्चित रूप से संसदीय अराजकता की यह स्थिति उत्पन्न करने में अपना योगदान किया है।


बुनियादी बात यह है कि संसद का नहीं चल पाना हर हाल में रुकना ही चाहिए। संसद को चलाने में प्रति मिनट 2.5 लाख से भी अधिक रुपये खर्च होते हैं। संसद का वर्तमान सत्र 23 दिनों का ही है। सामान्य नागरिकों का जीवन प्रभावित करने वाले अहम विधेयक विचाराधीन पड़े हैं। इस प्रस्ताव में दम तो जरूर है कि यदि संसदीय आचार की कमी से संसद नहीं चलती, तो सदस्यों को उस दिन के भत्ते नहीं मिलने चाहिए और सदन के संचालकों को इस नियम का पक्षपातरहित ढंग से क्रियान्वयन करना चाहिए।


राष्ट्र अपने निर्वाचित प्रतिनिधियों से उच्चतम कोटि की वैसी ही तार्किक चर्चा की अपेक्षा रखता है, जैसी अतीत में हुआ करती थी। विपक्ष को अपनी दृष्टि का औचित्य गरिमा तथा तथ्यों के साथ सिद्ध करना चाहिए तथा सत्तापक्ष की प्रतिक्रिया भी वैसी ही होनी चाहिए। दो टूक कहा जाये, तो भारत की जनता संसद में यह अनुचित बर्ताव बहुत झेल चुकी। अब वह समय आ गया है कि सभी राजनीतिक पार्टियां यह संदेश समय से स्वीकार कर लें।


राष्ट्रवाद और संरक्षणवाद की तरफ लौटती दुनिया

कुछ दिन पूर्व जब रूस में हुए चुनाव में व्लादिमीर पुतिन को चौथी बार राष्ट्रपति चुन लिया गया, तो इस पर किसी को ज्यादा हैरत नहीं हुई और न ही इस खबर ने दुनियाभर में ज्यादा सुर्खियां बटोरीं। दरअसल, उनकी जीत तो प्रत्याशित ही थी। इस जीत से पुतिन रूस में जोसेफ स्टालिन के बाद सबसे लंबे समय तक राष्ट्रपति रहने वाले शख्स हो जाएंगे। रूस के बारे में माना जाता है कि वहां बहुदलीय लोकतंत्र है। लेकिन इसके शीतयुद्धकालीन आलोचकों को छोड़कर और कोई भी ‘दूसरी पार्टियों के प्रति सहानुभूति नहीं दर्शा रहा है। रूसी जनता और दुनियाभर में रूस पर नजर रखने वाले लोग वास्तव में यही सोच रहे हैं कि पुतिन अपने चौथे कार्यकाल के बाद आगे कौन सा पद संभालेंगे? न भूलें कि सत्ता के सूत्र अपने हाथ में रखने के लिए पुतिन राष्ट्रपति के तौर पर दो कार्यकाल के बाद खुद प्रधानमंत्री बन गए थे और दिमित्रि मेदवेदेव को अपनी जगह राष्ट्रपति बनवा दिया था।


बहरहाल, यहां पर एक बात और गौरतलब है कि पुतिन के पुन: चुने जाने के कुछ हफ्ते पूर्व ही चीन में शी जिनपिंग को ‘आजीवन राष्ट्रपति चुन लिया गया। यदि पुतिन ने कुछ ही लोगों द्वारा शासित बहुदलीय व्यवस्था को अपने हिसाब से इस्तेमाल किया, तो शी ने चीन में वर्ष 1950 से बगैर किसी चुनौती के सत्ता चला रही चीनी कम्युनिस्ट पार्टी पर अपना वर्चस्व स्थापित कर चीन के संविधान में राष्ट्रपति के दो कार्यकाल संबंधी प्रावधान में संशोधन पारित करवा लिया। जैसा कि कहते भी हैं – ‘झुकती है दुनिया…!


मजबूत नेताओं को एक साथ कई चीजें संभालना भी आना चाहिए। क्या हम नहीं देखते कि एक ओर मोदी भारत के किसी मेहमान राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री के साथ दिल्ली में वार्ता भी करते हैं और उसी दिन अपनी पार्टी के लिए किसी राज्य में चुनावी रैली को संबोधित करने भी पहुंच जाते हैं।


विरोधी चीजों को संभालना नेतृत्व की चुनौतियों का हिस्सा है। राष्ट्रपति चुनाव में अपने प्रचार अभियान के दौरान पुतिन ने खुलेआम यह घोषणा की कि रूस ऐसे ‘अजेय परमाणु हथियार विकसित करने की सोच रहा है, जो फ्लोरिडा तक मार कर सकें। यह सीधे-सीधे अमेरिका का तिरस्कार था। पुतिन ने चुनाव अभियान के दौरान पश्चिम के खिलाफ खूब आग उगली। इसके बावजूद अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने पुतिन को फोन कर बधाई दी। जबकि उनकी सरकार ने उन्हें ऐसा न करने की सलाह दी थी। कहा जाता है कि रूस ने पिछले अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव को प्रभावित करते हुए डोनाल्ड ट्रंप को हिलेरी क्लिंटन के खिलाफ जीतने में मदद की थी।


बहरहाल, इस वक्त जहां तकनीक दुनिया को आपस में समेटते हुए इसे एक वैश्विक गांव में तब्दील कर रही है, वहीं इंसान इसके उलट कर रहा है। वह इसी दुनिया को बांटते हुए अलग-अलग ‘राजनीतिक बस्तियों में तब्दील कर रहा है। पुतिन के पश्चिम-विरोधी बयान उनकी उसी राष्ट्रवादी छवि का हिस्सा हैं, जिससे वे अपने देशवासियों को लुभाते हैं।


ट्रंप ने 2016 का चुनाव ‘अमेरिका फर्स्ट के आधार पर जीता और वे दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों के साथ द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के दौर में बनी व्यवस्था व संबंधों को खतरे में डालते हुए ऐसा कर रहे हैं। वे भले ही भारत को लुभाना चाहते हों और मोदी से गलबहियां करते हों, लेकिन उन्होंने भारतीयों के लिए अमेरिकी वीजा पाना और भारतीय कंपनियों व बीपीओ आदि के लिए वहां काम करना काफी मुश्किल कर दिया है।


शी भी अपनी बातों और कृत्यों से विरोधाभास फैला रहे हैं। एक ओर वे अपने बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) का मकसद दुनिया को आपस में जोड़ना और इसे समृद्ध बनाना (अकथनीय रूप से अपना वर्चस्व स्थापित करना) बताते हैं, वहीं घरेलू मोर्चे पर उनकी सोच धुर राष्ट्रवादी है। उन्होंने खुलेआम कहा कि ‘वे चीन की संप्रभुता और इसकी एक-एक इंच जमीन की हर हाल में रक्षा करेंगे।


यह संदेश खासकर भारत के लिए था, जो चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव में शामिल होने से इनकार कर चुका है। भारत ने भी इसी तर्ज पर संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि सैयद अकबरुद्दीन के शब्दों में यह जता किया कि भारत और चीन, न तो दोस्त हैं और न दुश्मन! वे तो ‘दोस्त-दुश्मन हैं।


इतिहास बताता है कि अफ्रीका व एशिया का ज्यादातर इलाका यूरोपियों के आने से पहले तक सीमायी विभाजनों से अछूता था। यूरोपीय पहले इन इलाकों में व्यापारी और फिर औपनिवेशिक शासकों के तौर पर पहुंचे। उन्हें इन इलाकों को सीमाओं में बांटना और यहां रहने वाले लोगों को नस्लीय, क्षेत्रीय व धार्मिक आधार पर बांटना सहज लगा। इस प्रक्रिया के चलते ‘देशभक्त नेता उभरे, जिन्होंने पहले इन औपनिवेशिक शासकों के लिए काम किया, फिर वे उनसे लड़े और आजादी हासिल की। लेकिन सीमायी विभाजन बरकरार रहे, यहां तक कि हिंसा के जरिए भी नई सीमाएं निर्मित की गईं।


द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद दुनिया ने उपनिवेशों की मुक्ति का दौर देखा, जिससे पश्चिमी औपनिवेशिक शासकों की ताकत घटी। उस प्रक्रिया से पं. जवाहरलाल नेहरू से लेकर मिस्र के जमाल अब्देल नासेर जैसे युवा नेता उभरे। ऐसे ज्यादातर नेताओं ने अपनी नई व पुरानी राष्ट्रीय पहचान को कायम रखते हुए दुनिया के दूसरे देशों तक पहुंच स्थापित की।


1980 के दशक में जब शीतयुद्ध का तनाव चरम पर था, तब अमेरिका ने रोनाल्ड रीगन को और ब्रिटेन ने मार्गरेट थैचर को चुना, जो कि संरक्षणवाद की लहर पर सवार होकर सत्ता तक पहुंचे थे। आज के दौर में दुनिया के अनेक देशों में संरक्षणवादी रवैया अब कहीं ज्यादा तीक्ष्ण व जटिल हो गया है। ट्रंप, पुतिन और शी के अलावा आज फिलीपींस में रोड्रिगो दुतेर्ते हैं, हंगरी में विक्टर ऑरबन, इंडोनेशिया में जोको विडोडो, केन्या में उहुरु केन्याता और ऐसे कई नेता हैं। ब्रिटेन के ‘ब्रेक्जिट में भी संकीर्ण राष्ट्रवाद का मजबूत तत्व निहित था, जब ब्रिटेन डेविड कैमरॉन के अधीन योरपीय संघ से अलग होने की रस्साकशी में उलझा था। ट्रंप द्वारा मेक्सिको की सीमा पर दीवार निर्मित करने की घोषणा ने मेक्सिकन्स को भी ‘राष्ट्रवादी बनने के लिए मजबूर कर दिया।


निश्चित तौर पर दुनिया ‘मेरा देश सर्वप्रथम जैसे राष्ट्रवाद और संरक्षणवाद की ओर लौट रही है। यह परिदृश्य 1980 के दशक या उससे पहले के किसी भी दौर से काफी अलग व जटिल है। आज के नए राष्ट्रवादी नायकों के लिए उम्र की कोई सीमा नहीं है। ट्रंप और शी की उम्र सत्तर साल से ज्यादा है तो पुतिन 65 साल के हैं। देखना होगा कि इन नेताओं की यह संरक्षणवादी प्रवृत्ति दुनिया को किस मोड़ पर लेकर जाएगी।


न्यूनतम समर्थन मूल्य की चुनौतियाँ

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से अपने रेडियो कार्यक्रम ‘मन की बात के माध्यम से किसानों को कृषि उपज की लागत का डेढ़ गुना एमएसपी अर्थात न्यूनतम समर्थन मूल्य का भरोसा दिलाने के बाद यह आवश्यक हो जाता है कि इस संदर्भ में कोई ठोस रूपरेखा भी सामने आए। इसकी जरूरत इसलिए और भी ज्यादा बढ़ गई है, क्योंकि ऐसी खबरें आ रही हैं कि विभिन्न् मंडियों में किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य से कहीं कम पर अपनी उपज बेचनी पड़ रही है। कृषि उपज की लागत का डेढ़ गुना दाम देने की घोषणा पर अमल नए वित्त वर्ष से होना है।

इस कठिनाई के चलते किसानों में असंतोष भी बढ़ रहा है और वे अपने भविष्य को लेकर बेचैन भी हो रहे हैं। कृषि उपज के न्यूनतम समर्थन मूल्य के मामले में एक बड़ी समस्या उसके निर्धारण को लेकर है। हालांकि प्रधानमंत्री ने यह स्पष्ट कर दिया कि कृषि उपज की लागत तय करने में बीज, खाद, सिंचाई आदि के मूल्य के साथ श्रमिकों और खुद किसानों की मेहनत का भी मूल्य जोड़ा जाएगा, लेकिन अभी यह स्पष्ट नहीं कि यह काम किस फॉर्मूले के तहत होगा? इसमें और देर नहीं की जानी चाहिए, क्योंकि एक तो नया वित्त वर्ष शुरू होने ही वाला है और दूसरे, एमएसपी को लगातार राजनीतिक मसला बनाया जा रहा है। ऐसे सवाल उठाए जा रहे हैं कि आखिर जब वर्तमान में किसानों को अपनी उपज तय एमएसपी से नीचे बेचनी पड़ रही है, तब इसकी क्या गारंटी कि भविष्य में ऐसा नहीं होगा? इस सवाल को हल करके ही आशंकाओं को दूर किया जा सकता है।

यह सही है कि केंद्र सरकार की ओर से बार-बार यह रेखांकित किया जा रहा है कि वह वर्ष 2022 तक किसानों की आय दोगुना करने के लिए प्रतिबद्ध है, लेकिन इस वायदे को पूरा करने के लिए अभी तक जो भी कदम उठाए गए हैं, उनसे अभीष्ट की पूर्ति होती दिख नहीं रही है। इससे इनकार नहीं कि खाद की उपलब्धता को सुनिश्चित करने, मिट्टी का परीक्षण कराने की सुविधा प्रदान करने के साथ जो अन्य अनेक उपाय किए गए हैैं, उनसे किसानों को कुछ न कुछ लाभ मिला है, लेकिन इस सबके बावजूद खेती अभी भी घाटे का सौदा बनी हुई है।

चूंकि आम चुनाव में अब एक वर्ष ही रह गया है, इसलिए सरकार को ऐसा कुछ करना ही होगा, जिससे अगले कुछ माह में किसानों को यह भरोसा हो जाए कि 2022 तक उनकी आय सचमुच दोगुनी होने जा रही है। कृषि और किसानों के उत्थान की जितनी जिम्मेदारी केंद्र सरकार की है, उतनी ही राज्य सरकारों की भी। ऐसे में बेहतर यह होगा कि किसानों की आय दोगुनी करने के लिए जो रूपरेखा बननी है, उसमें राज्य भी शामिल हों, ताकि इसे लेकर कोई संशय न रहे कि राज्य सरकारों को क्या और कितनी जिम्मेदारी वहन करनी है।


समानता तथा न्याय के लिए मुस्लिम स्त्रियों का संघर्ष

तलाक-ए-बिद्दत यानी तीन तलाक मामले में अपने फैसले के सात महीने बाद सर्वोच्च न्यायालय अब बहुविवाह और निकाह हलाला की संवैधानिकता पर सुनवाई करने को राजी हो गया है, तो यह पिछले फैसले की ही तार्किक कड़ी है। पिछले साल अगस्त में दिए अपने फैसले में संविधान पीठ ने तीन तलाक प्रथा को गैर-कानूनी ठहराया था। अब एक बार फिर मामले की गंभीरता को देखते हुए याचिकाओं पर सुनवाई संविधान पीठ करेगा। इन याचिकाओं में मांग की गई है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीअत) आवेदन अधिनियम, 1937 की धारा 2 को संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 21 और 25 का उल्लंघन करने वाला करार दिया जाए।

मुस्लिमों से संबंधित निजी कानून मुस्लिम पुरुष को चार स्त्रियों तक से विवाह करने की अनुमति देता है। ऐसी इजाजत स्त्री की गरिमा के खिलाफ है, उसे वस्तु या इंसान से कमतर प्राणी में और पुरुष को उसके मालिक के रूप में बदल देती है। यह संवैधानिक मूल्यों और संवैधानिक प्रावधानों के भी खिलाफ है। संविधान का अनुच्छेद 14 कानून के समक्ष समानता की गारंटी देता है, वहीं अनुच्छेद 21 में गरिमापूर्ण ढंग से जीने के अधिकार की बात कही गई है। ऐसे ही प्रावधानों के खिलाफ होने के कारण जिस तरह तलाक-ए-बिद्द्त पर हमेशा सवाल उठते रहे, उसी तरह एक से अधिक शादी करने की इजाजत और निकाह हलाला पर भी उठते रहे हैं।
मुस्लिम समुदाय में हलाला या निकाह हलाला की रस्म के तहत, जिस व्यक्ति ने तलाक दिया है उसी से दोबारा शादी करने के लिए महिला को पहले किसी अन्य पुरुष से शादी करनी होती है और फिर तलाक लेना होता है, उसके बाद ही दोबारा पूर्व पति से शादी हो सकती है। शरीअत में भले यह एक तरह की ‘सजा’ हो, लेकिन क्या पूर्व पत्नी की तरह पूर्व पति के लिए भी ऐसी शर्त रखी गई है? और फिर जब अलग हो चुके दो बालिग फिर से जुड़ना चाहते हैं, तो उनकी मर्जी और निर्णय काफी होना चाहिए। उन्हें किसी सजा से क्यों गुजरना पड़े? और ‘सजा’ के रूप में औरत के लिए ऐसी शर्त, जो उसके शरीर पर उसका अधिकार नहीं रहने देती! जाहिर है, ऐसी प्रथाओं को निजी कानून की आड़ में नहीं चलने दिया जाना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय ने मुता निकाह और मिस्यार निकाह को भी सुनवाई के योग्य माना है, क्योंकि इनके तहत बस एक निश्चित अवधि के लिए शादी का करार होता है। क्या इसे शादी कहा जा सकता है? तलाक-ए-बिद्दत पर बहस के दौरान ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने मामले को न्यायिक समीक्षा के परे कहा था। उसकी निगाह में ऐसे मामले में अदालत में सुनवाई होना धार्मिक स्वायत्तता में हस्तक्षेप था। यह अलग बात है कि अलग-थलग पड़ जाने के कारण बोर्ड ने बाद में अपने सुर नरम कर लिए थे। हो सकता बोर्ड और कुछ दूसरी संस्थाएं एक बार फिर वैसी ही दलील पेश करें।


यह सही है कि हमारे संविधान ने धार्मिक स्वायत्तता की गारंटी दे रखी है, पर यह असीमित नहीं है। धार्मिक स्वायत्तता उसी हद तक मान्य हो सकती है जब तक वह संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक नागरिक अधिकारों के आड़े न आए। सती प्रथा, नरबलि और जल्लीकट्टू जैसी प्रथाओं के मामलों में भी सर्वोच्च न्यायालय हस्तक्षेप कर चुका है। इसलिए बहुविवाह, निकाह हलाला, मुता निकाह और मिस्यार निकाह पर सुनवाई के लिए संविधान पीठ गठित करने के उसके फैसले को समुदाय-विशेष की धार्मिक आजादी और परंपरा या रिवाज में बेजा दखलंदाजी के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। इसे समानता तथा न्याय के लिए मुस्लिम स्त्रियों के संघर्ष के नए मुकाम के रूप में देखना ही सही नजरिया होगा।

Monday 5 March 2018

घटता जन्म के समय लिंगानुपात (SRB)

हाल ही में नीति आयोग द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत में जन्म के समय लिंगानुपात (Sex Ratio at Birth-SRB) 2012-2014 के 906 से घटकर 2013-2015 में 900 हो गया था।

SRB प्रत्येक 1000 लड़कों पर पैदा होने वाली लड़कियों की संख्या को दर्शाता है।

SRB में गिरावट के कारण आज भारत और चीन जैसे देशों में महिलाओं की तुलना में पुरुषों की संख्या बढ़ रही है। इससे पुरुषों और महिलाओं दोनों के प्रति हिंसा में बढ़ोतरी के साथ ही मानव तस्करी जैसे अपराध भी बढ़ रहे हैं।

रिपोर्ट के प्रमुख निष्कर्ष :

1. भारत के 21 बड़े राज्यों में से 17 में SRB में गिरावट देखी गई। 53 अंकों की गिरावट के साथ गुजरात राज्य का प्रदर्शन सबसे खराब रहा।

2. भारत के नमूना पंजीकरण प्रणाली के नए आँकड़े दिखाते हैं कि 2014-2016 में SRB 900 से कम होकर 898 हो गया है।

3. भारत में 1970 के दशक से ही SRB में लगातार गिरावट देखी जा रही है।

4. प्रकृति द्वारा पुरुषों की उच्च मृत्यु दर को संतुलित करने के चलते प्राकृतिक परिस्थितियों में SRB 952 के आसपास रहता है क्योंकि मादा शिशु की तुलना में नर शिशु जैविक रूप से कमज़ोर होते है और ऐतिहासिक रूप से भी युद्ध जैसी ज़ोखिमकारी गतिविधियों में भाग लेने के कारण पुरुषों की मृत्यु दर अपेक्षाकृत अधिक रही है। 

5. लेकिन इस मामले में भारत की स्थिति अलग है। भारत SRB के 952 से भी कम रहने का कारण पुत्र प्राथमिकता की सामाजिक बुराई है। इसका मतलब यही है की हम गर्भ में ही लड़कियों को मार रहे हैं।

6. इस तरह के कार्यों से भारत में लगभग 63 मिलियन लड़कियों के खो जाने का अनुमान है।

कम लिंगानुपात को बढ़ावा देने वाले तरीके
1970 के दशक तक कन्या शिशु वध फीमेल चाइल्ड को मारने का प्रचलित तरीका था।
किंतु सत्तर के दशक में आनुवंशिक असामान्यताओं का पता लगाने में प्रयुक्त की जाने वाली एम्नियोसेंटेसिस (Amniocentesis) तकनीक तथा अल्ट्रासाउंड प्रौद्योगिकी का भ्रूण के लिंग-निर्धारण में प्रयोग किया जाने लगा। पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया (2010) की एक रिपोर्ट के मुताबिक इन प्रौद्योगिकियों ने पुत्र प्राथमिकता जैसी समस्याओं को बढ़ावा दिया।
लिंग चयन की सुविधाओं के फलने-फूलने के बाद लोग गर्भपात के विकल्प का धड़ल्ले से प्रयोग करने लगे। 

लिंगानुपात को संतुलित करने के लिये किये गए सरकारी प्रयास :

घटते लिंगानुपात की रोकथाम हेतु 1994 में सरकार ने प्रसव पूर्व नैदानिक तकनीक (PNDT) अधिनियम लागू किया जिसके तहत माता-पिता को भ्रूण के लिंग संबंधी जानकारी देने पर स्वास्थ्य देखभाल पेशेवरों के लिये कड़ी सज़ा और आर्थिक जुर्माने का प्रावधान किया गया है।
2003 में गर्भाधान पूर्व लिंग चयन में सक्षम प्रौद्योगिकियों के आने के बाद इस अधिनियम को संशोधित करते हुए इसे गर्भधारण-पूर्व और प्रसव-पूर्व परीक्षण तकनीक (लिंग चयन प्रतिषेध) अधिनियम के रूप में अधिनियमित किया गया।
इस अधिनियम के प्रमुख लक्ष्य निम्नलिखित हैं-
► गर्भाधान पूर्व लिंग चयन तकनीक को प्रतिबंधित करना।
► लिंग चयन संबंधी गर्भपात के लिये जन्म-पूर्व परीक्षण तकनीकों के दुरुपयोग को रोकना।
► जिस उद्देश्य से जन्म-पूर्व परीक्षण तकनीकों को विकसित किया गया है, उसी दिशा में उनके समुचित वैज्ञानिक उपयोग को नियमित करना।
► सभी स्तरों पर अधिनियम के प्रभावी क्रियान्वयन को सुनिश्चित करना।

PCPNDT अधिनियम का मूल्यांकन
भारत में लिंगानुपात में जारी गिरावट दर्शाती है कि यह कानून अपने उद्देश्यों को पाने में विफल रहा है। लगभग 17 राज्यों में या तो इस अधिनियम के तहत एक भी मामला दर्ज नहीं किया गया या इसके तहत दोषसिद्धि दर शून्य रही।

2010 में PHFI रिपोर्ट में यह कहा गया कि PC-PNDT को लागू करने वाले कार्मिकों के प्रशिक्षण में काफी अंतराल है। इसका अर्थ है कि दोषसिद्धि को सुनिश्चित करने हेतु इस कानून के उल्लंघनकर्त्ताओं के खिलाफ मजबूत केस बनाने में कार्मिक असमर्थ थे।

सरकारों को PC-PNDT अधिनियम को सख्ती से लागू करने के साथ ही पुत्र प्राथमिकता की बुराई से लड़ने के लिये अधिक संसाधनों का आवंटन करना चाहिये। पिछले हफ्ते ही ड्रग्स तकनीकी सलाहकार बोर्ड ने अल्ट्रासाउंड मशीनों को ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट में शामिल करने का निर्णय लिया है ताकि इनके आयात को विनियमित किया जा सके।

Sex Ratio at Birth (SRB) is the number of girls born for every 1,000 boys.

A recent report from the NITI Aayog said sex ratio at birth (SRB) nationwide had dropped from 906 in 2012-2014 to 900 in 2013-2015. In all, 17 of 21 large Indian States saw a drop in the SRB, with Gujarat performing the worst, declining 53 points. Also, newer data from India’s Sample Registration System show the SRB fell even further in 2014-2016, from 900 to 898.

Why is this a unique case for India?

The number of girls born is naturally lower than the number of boys, and demographers speculate that this may be nature’s way of offsetting the higher risk that men have of dying — male babies are biologically weaker than females, and men have historically seen higher mortality rates owing to risk-taking behaviour and participation in wars. This evens out the sex ratio of a population as it grows older. But India is a special case. Its SRB is far lower than 952 because of the preference for the male child. This means we are killing girl children in the womb. As on today, around 63 million girls are estimated to be ‘missing’ in India because of such actions.

Why does it matter?

Low SRBs starting from the Seventies have led to large numbers of “surplus men” today in countries like India and China. There are concerns that skewed sex ratios lead to more violence against both men and women, as well as human-trafficking. In India, some villages in Haryana and Punjab have such poor sex ratios that men “import” brides from other States. This is often accompanied by the exploitation of these brides.

Performance of PC- PNDT:

From female infanticide till 1970s to the emergence of sex selection technologies in 1980s, people have always found ways to have male child. A thriving market for sex selection sprung up with doctors openly advertising their services. In 1994, the government took notice and introduced the Prenatal Diagnostics Techniques Act which punishes healthcare professionals for telling expectant parents the sex of a child with imprisonment and hefty fines. In 2003, when technologies that allowed gender-selection even before conception became available, the act was amended to become the Prenatal Conception and Prenatal Determination Act (PC-PNDT).

By any token, this Act has been a failure. In November 2016, a report from the Asian Centre for Human Rights noted that between 1994 and 2014, 2,266 cases of infanticide were registered in India, against 2,021 cases of abortion under the PC-PNDT, even though abortions outnumber infanticides today. In all, 17 out of 29 States had either not registered any case, or had zero convictions. The PHFI report in 2010 found major gaps in the training of personnel implementing PC-PNDT. Poor training meant that they were unable to prepare strong cases against violators to secure convictions.

Way ahead:

Now, India must implement the PC-PNDT more stringently, but must also dedicate more resources to fighting the preference for boys.

आर्कटिक पूरे ग्रह की तुलना में दोगुनी तेजी से गर्म हो रहा है।

आर्कटिक के गर्म होने की वजह से 'डूम्सडे' सीड वॉल्ट में बदलाव किये गए:

आर्कटिक पर्वत की गहराई में परमाणु मिसाइल हमले का सामना करने के लिए बनाये गए, विश्व के सबसे बड़े सीड वॉल्ट में इस समय कई जरूरी बदलाव किये जा रहे हैं। यह बदलाव बढ़ते हुए तापमान से इस सीड वॉल्ट को बचाने के लिए निर्मित किये गए पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने की वजह से किये जा रहे हैं।

प्रमुख तथ्य:

इस सीड वॉल्ट को "नोआहज आर्क" भी कहा जाता है। यह ग्लोबल सीड वॉल्ट स्वालबार्ड में एक पूर्व कोयले की खान में स्थापित किया गया था। स्वालबार्ड आर्कटिक महासागर में स्थित एक द्वीप समूह है जो नॉर्वे का उत्तरतम इलाक़ा भी है और यह उत्तरी ध्रुव से लगभग 1,000 किलोमीटर (650 मील) की दूरी पर स्थित है।

दुनिया में जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वॉर्मिंग का खतरा बढ़ता जा रहा है, वैसे-वैसे वैज्ञानिकों की परेशानियां भी बढ़ती जा रही हैं। वैज्ञानिकों को यह भी डर है कि दुनिया पर एकाएक कभी कोई बड़ा संकट आ सकता है। इन्हीं चिंताओं को मद्देनजर रखते हुए साल 2008 में वैज्ञानिकों ने नॉर्वे में एक अनोखा बैंक बनाया था।

इसमें दुनियाभर में पाए जाने वाले सबसे खास और बेहतरीन गुणवत्ता वाले अनाजों, फलों, सब्जियों और पेड़-पौधों के चुनिंदा बीज संभाल कर रखे गए। इसे 'ग्लोबल सीड वॉल्ट' का नाम दिया गया। इस ग्लोबल सीड वॉल्ट को हर तरह के खतरे का सामना करने के लिए विशेष रूप से डिजाइन किया गया था। लेकिन यह बीज बैंक भी ग्लोबल वॉर्मिंग के असर से नहीं बच पाया है।

बढ़ते तापमान ने वॉल्ट के आसपास के वातावरण को बाधित किया है। एक अप्रत्याशित घटना में, पर्माफ्रॉस्ट जिसका कार्य सीड वॉल्ट के अंदर के तापमान को -18 सेल्सियस (-0.4 फ़ारेनहाइट) रखना था, वर्ष 2016 में पिघल गया क्यूंकि गर्मी का मौसम अपेक्षा से ज्यादा गर्म था।

वैज्ञानिक अध्ययनों से पता चलता है कि आर्कटिक पूरे ग्रह की तुलना में दोगुनी तेजी से गर्म हो रहा है। जब यूरोप में तापमान शून्य से नीचे से जा रहा है तब उत्तरी ध्रुव ने हाल ही में शून्य से ऊपर तापमान दर्ज किया है जोकि सामान्य से 30 डिग्री अधिक है।

Sunday 4 March 2018

70 साल के बाद भी अमीर-गरीब के बीच बढ़ती खाई

संविधान लगभग बन कर तैयार हो चुका था कि अचानक गांधी जी के निकटतम सहयोगियों में एक श्रीमन्नारायण ने संविधान निर्माताओं से पूछा, ‘इस पूरे संविधान में गांधी की ग्रामसमाज की अवधारणा की चर्चा कहां पर है ?’ इसके बाद आनन-फानन में उसे राज्य के नीति निर्देशक तत्वों में अनुच्छेद 40 के रूप में जोड़ा गया। यह अलग बात है कि इस अवधारणा पर अमल अगले 42 साल तक नहीं किया गया। पहली बार 1992 में पंचायत राज एक्ट 73 वें संविधान संशोधन के तहत लाया गया और ग्राम पंचायतों को अधिकार मिले। संविधान की प्रस्तावना में आर्थिक न्याय और अवसर की समानता की बात है, परंतु 70 साल में गरीब-अमीर के बीच खाई बढ़ती गई है। तमाम संस्थाओं के ताजा अध्ययन यह बता रहे हैैं कि भारत में गरीब-अमीर के बीच फासला बढ़ता जा रहा है। हाल के एक अध्ययन के अनुसार देश में 101 अरबपतियों की संपत्ति बढ़कर कुल जीडीपी का 15 प्रतिशत हो गई है जो पांच साल पहले 10 प्रतिशत और 13 साल पहले पांच प्रतिशत हुआ करती थी। 1988 से सन 2011 के बीच जहां सबसे नीचे तबके के 10 प्रतिशत गरीबों की संपत्ति 200 रुपये से भी कम बढ़ी है वहीं शीर्ष एक प्रतिशत की 182 गुना। आज की आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था में क्या हम संविधान में दी गई प्रतिबद्धता के आसपास भी पहुुंच रहे हैं ? समाज सरंचना की विदेशी अवधारणा पर आधारित व्यवस्था के लगभग सभी दोष अब सामने आ चुके हैं और आज जरूरत एक नई मौलिक सोच की है।

समाज के अंतिम व्यक्ति के हित में काम करने की भावना होने की जरूरत है-

राष्ट्रपति ने बीते माह 11 फरवरी को ग्वालियर में डॉ. लोहिया स्मृति व्याख्यान में लगभग इसी बात को एक बार फिर ध्वनित किया। उनका कहना था, ‘ऐसा लगता है कि संसद से सड़क तक समाज के अंतिम व्यक्ति के हक में जन-चेतना की मशाल जलाने वाले डॉक्टर लोहिया संभवत: सामाजिक विषमताओं और शोषण की राजनीति को चुनौती देने के लिए ही पैदा हुए थे। …अपनी विचारधाराओं के आधारभूत तत्व को ग्रहण करते हुए समाज के अंतिम व्यक्ति के हित में काम करने की भावना के विभिन्न रूप महात्मा गांधी, डॉ. आंबेडकर, लोहिया और दीनदयाल उपाध्याय के चिंतन और संघर्ष में देखने को मिलते हैं। इन सभी विभूतियों ने देश की समस्याओं के एकांगी और विशेष समाधानों की जगह समग्र और जमीनी सुधारों पर जोर दिया। उनके रास्ते भले ही अलग-अलग थे, लेकिन उन सभी का एक ही उद्देश्य था- भारत के लोगों को विशेषकर पिछड़े लोगों को बराबरी और सम्मान का हक दिलाना।’

शासन प्रकिया चलाने में आइडियोलॉजी की नहीं आइडियल की जरूरत होती है-

भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी ने भी अपने एक अध्यक्षीय भाषण में कहा था, ‘शासन प्रकिया चलाने में काफी हद तक विचारधारा की कोई भूमिका नहीं होती। आदर्श (आइडियल) और विचारधारा (आइडियोलॉजी) में अंतर होता है। हो सकता है कि कम्युनिस्टों और भारतीय जनता पार्टी के लोगों की विचारधारा अलग-अलग हो, लेकिन दोनों का गंतव्य याने आइडियल एक ही है।’ जरा व्यावहारिक धरातल पर इन महापुरुषों के आदर्शों पर गौर करें जिनकी चर्चा राष्ट्रपति ने इस आशय से की कि इनकी समेकित सोच एक नया रास्ता देगी। एक ऐसे समय में जब गरीब-अमीर की खाई लगातार बढ़ रही हो, समाज में अभावग्रस्त एक बड़ा तबका अवसर की समानता न मिलने से अपनी योग्यता नहीं दिखा पा रहा हो तब शायद आज नीति निर्धारण में इन सभी महापुरुषों की विचारधारा में एक सामंजस्य बैठाना ही सबसे सही रास्ता होगा। इन महापुरुषों के मूल विचारों में साम्य भी देखें। लोहिया के नारे थे- ‘राजा पूत निर्धन संतान, सबकी शिक्षा एक समान’ या फिर ‘जो जमीन को जोते बोवे, वही जमीन का मालिक होवे।’

विचारधारा चाहे जैसी हो, आदर्श एक होना चाहिए-

संघ परिवार के दिग्दर्शक पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने भी अपने चार बीज भाषणों में से अंतिम में कहा था, ‘भगवान की सर्वश्रेष्ठ कृति मानव अपने को खोता जा रहा है … हमारी अर्थव्यवस्था का उद्देश्य होना चाहिए प्रत्येक व्यक्ति को न्यूनतम जीवन स्तर की आश्वस्ति…. प्रत्येक वयस्क और स्वस्थ व्यक्ति को साभिप्राय जीविका का अवसर देना। गांधी का ट्रस्टीशिप का सिद्धांत और डॉ.आंबेडकर के समतामूलक समाज की अवधारणा-ये सभी एक ही दिशा में इंगित करते हैं।’

पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानववाद का सिद्धांत देते हुए यह भी रेखांकित किया था, ‘विविधता में एकता अथवा एकता का विविध रूपों में व्यक्तिकरण ही भारतीय संस्कृति का केंद्रस्थ विचार है। यदि इस तथ्य को हमने हृदयंगम कर लिया तो विभिन्न सत्ताओं के बीच संघर्ष नहीं रहेगा। यदि संघर्ष है तो वह प्रकृति का अथवा संस्कृति का द्योतक नहीं, विकृति का द्योतक है। देखने को तो जीवन में भाई-भाई के बीच प्रेम और बैर दोनों मिलते हैं, किंतु हम प्रेम को अच्छा मानते हैं। बंधु-भाव का विस्तार हमारा लक्ष्य रहता है। अर्थात विचारधारा यानी रास्ते चाहे जैसे हों, गंतव्य या आदर्श) एक ही है।’

लोहिया ने आरएसएस के शिविर में आने का न्योता स्वीकार किया था-

आज यह जानने की आवश्यकता है कि आरएसएस के नानाजी देशमुख ने समाजवाद के प्रणेता और धुर समाजवादी चिंतक डॉ. लोहिया को 1963 में संघ के शिविर में आने का न्योता भेजा था। उन्होंने यह न्योता स्वीकार भी किया। शिविर से बाहर निकलने पर लोहिया से पत्रकारों ने उनके आने का कारण पूछा तो लोहिया का जवाब था, मैं इन संन्यासियों को गृहस्थ बनाने गया था। इसके कुछ ही महीने बाद 12 अप्रैल, 1964 को लोहिया और दीनदयाल उपाध्याय ने एक साझा बयान जारी किया। इस बयान ने तत्कालीन राजनीतिक विश्लेषकों के साथ पूरे देश को चौंकाया। इसके उपरांत दो-तीन वर्ष विचारधारा के स्तर पर उत्तर और दक्षिण ध्रुव माने जाने वाले नेताओं में गजब सामंजस्य रहा और यहां तक कि जौनपुर के उपचुनाव में लोहिया ने पंडित जी के लिए प्रचार किया और यहीं से बजा कांग्रेस के एकल दल वर्चस्व के अवसान का बिगुल। 1967 के चुनाव में देश के दस राज्यों में संविद सरकारें बनीं। तब कहा जाता था कि जीटी रोड से यात्रा करते हुए अमृतसर से कलकत्ता तक बगैर किसी कांग्रेस शासन वाले राज्य से गुजरे पहुंचा जा सकता है।

गरीबों के कल्याण लिए अपेक्षित प्रयास नहीं हुए-

शायद राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने इन तथ्यों के मद्देनजर ही कि पिछले 70 सालों में गरीब-अमीर के बीच की खाई बढ़ती जा रही है और गरीबों के कल्याण लिए अपेक्षित प्रयास नहीं हुए हैं, एक नए प्रयास पर बल देने की कोशिश की है। उन्होंने यह रेखांकित किया कि इन महापुरुषों के कथन को आप्तवचन मानते हुए नीति-निर्धारण के मूल में गरीबों का कल्याण रखा जाए और ऐसा करने में यह न देखा जाए कि रास्ता समाजवाद की ओर से जाता है या पूंजीवाद की ओर से या वह अवधारणा किस व्यक्ति की है या वह किस विचारधारा का प्रतिपादक रहा है। 70 साल बाद भी अमीर-गरीब के बीच की बढ़ती खाई यही बताती है कि हम न तो संविधान की प्रस्तावना में किए गए वादे पर खरे उतरे और न ही गांधी जी के सपनों का असली प्रजातंत्र ला पाए। शायद यही राष्ट्रपति का दर्द था और इसीलिए उन्होंने डॉ. लोहिया का स्मरण करते हुए एक नई राह की ओर संकेत किया।

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