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Tuesday, 10 September 2019

जैव विविधता (Bio Diversity) : घटती प्रजातियाँ, बढ़ती दुश्वारियाँ

पृथ्वी ग्रह की असीम प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष गतिविधियों को समझने में हम पूरी तरह से फेल हो चुके हैं। हमने अपनी केन्द्रीय भूमिका इसी रूप में निभाई कि किस तरह से पृथ्वी पर मनुष्य बेहतर जीवनयापन कर सकता है और ऐसा करते हुए हम अन्य जीवों व प्राणियों की भूमिका को आंकने में आज तक असफल रहे हैं। हम ये नहीं समझ सके कि पृथ्वी का एक पारिस्थितिकी तंत्र है, जिसमें हर प्राणी की व पेड़-पौधों की अपनी एक भूमिका है।

हर वृक्ष अपने जीवन में जो भी प्रकृति से लेता है, उसके समान वह पारिस्थितिकी तंत्र को वापिस भी कर देता है और यही बात अन्य जीवों के लिये भी फिट बैठती है। उदाहरण के लिये शाकाहारी जीव अगर पेड़, पत्ती, बीज, फलों का सेवन करते हैं तो उनके बदले समान रूप से बीजों का वितरण मल त्याग कर अपने भोजन की वापसी के साथ नई चारागाह भी तैयार करते हैं। यही नहीं बल्कि खुद मांसाहारी जीवों का भोजन भी बन जाते हैं और ये इसलिये होता है ताकि कोई एक प्रजाति अत्यधिक संख्या में बढ़कर पारिस्थितिकी तंत्र पर बोझ न बने। इसीलिये शास्त्रों में ‘जीवष्य भोजनम‍् च जीवष्य’ को इसी तरह चरितार्थ किया जाता है। मगर इस श्रेणी में मनुष्य नहीं आता और यही कारण है कि इसकी जनसंख्या पर कोई नियंत्रण नहीं हो सका।

अब इस तथ्य को ऐसे भी समझा जा सकता है कि 1970 से आज तक करीब 49 सालों में आधे से ज्यादा वन्यजीव समाप्त हो चुके हैं। यह लगभग 52 फीसदी है। इनमें स्तनधारी पक्षी, सरीसृप, उभयचारी व मछलियां हैं। अब ये आंकड़ा हल्के में नहीं लिया जा सकता। यह अध्ययन डब्ल्यू.डब्ल्यू.एफ. व जूलोजिकल सोसायटी ऑफ लंदन ने किया, जो 10,000 विभिन्न आबादी वाली 3000 प्रजातियों के आधार पर था।

दूसरी तरफ वैज्ञानिकों का कहना है कि दुनिया में पौधों की प्रजातियों के पांचवें हिस्से पर लुप्त होने का खतरा बना हुआ है और यह अध्ययन लंदन के रॉयल बोटेनिकल गार्डन के वैज्ञानिकों ने किया है। इसके अनुसार दुनिया की लगभग 3 लाख 80 हजार पादप प्रजातियां विलुप्त होने के कगार पर हैं और इसी तरह आई.यू.सी.एन. संस्था का कहना है कि दुनिया के एक- तिहाई जीवों पर भी लुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है और ये लगभग 17 हजार 291 जीवों की प्रजातियां हैं। अपने देश में तो हालात ज्यादा गंभीर हैं। वन संपदा की दृष्टि से पादप विविधता में भारत का विश्व में दसवां और एशिया में चौथा स्थान है। यहां पौधों की लगभग 1336 प्रजातियां लुप्त होने के कगार पर हैं और इनमें से 20 प्रजातियां 60 से 100 वर्षों के दौरान दिखाई नहीं पड़ी हैं। करीब 15 हजार फूलदार पौधों की प्रजातियां जो कि दुनिया की 6 फीसदी पादप प्रजाति का हिस्सा हैं, वे एक या दो कारणों से सहज महसूस नहीं कर रही हैं। मतलब दुनिया की एक-चौथाई प्रजातियां खतरे में मानी जा सकती हैं। अब ये सब क्यों हो रहा है, इसमें ज्यादा बहस की कोई गुंजाइश नहीं है। इसे ऐसे भी समझिये कि दुनिया में मनुष्य की बढ़ती आबादी की आवश्यकताओं के लिये वनों का कटान इनकी बढ़त से कई गुना ज्यादा है। समुद्र में उतनी मछलियां पनप नहीं पातीं, जितनी कि प्रतिदिन पकड़ ली जाती हैं। जलाशयों व नदियों से उतना पानी हटा लिया जाता है, जितना कि वर्षा जल संचित नहीं कर सकेगी। जंगल व समुद्र उतनी कार्बन डाई आॅक्साइड व तापक्रम को नियंत्रण नहीं कर सकते, जितना कि मनुष्य की गतिविधियां पैदा करती हैं।

सीधी-सी बात है कि एक प्रजाति विशेष मनुष्य की बढ़ती जनसंख्या और उसके लिये सुविधाएं जुटाने का काम आज अन्य जीवों व वनों के लिये घातक बन चुका हैं। ये कुछ हद तक पृथ्वी की अलौकिक क्षमताओं के कारण सीमा नहीं तोड़ पाया था पर आज यह तंत्र टूटने के प्रति संवेदनशील हो चुका है। इन सब बातों की गंभीरता को समझते हुए 70 के दशक के आसपास में जैव विविधता संरक्षण पर गंभीर कदम उठाये गये। एक बड़े कदम के रूप में 120 देशों में 669 बायो स्फीयर रिजर्व खड़े किये गये और ये लगभग सभी देशों की जिम्मेदारी समझी गयी। इनमें अफ्रीका के 28 देश, अरब राज्यों के 11, एशिया के 24, यूरोप, उत्तरी अमेरिका के 36 व लैटिन अमेरिका के 21 देशों ने ये कदम उठाया। इसको कोर, बफर व ट्रांजिसन एरिया के रूप में विभाजित करते हुए संरक्षण प्रदान किया गया और इसी तरह 100 देशों ने नेशनल पार्क भी खड़े किये।

अपने देश की भी इसमें भूमिका बराबर रही है। इस बड़े कदम के बाद भी अगर यह मान लिया जाये कि हमने अन्य प्रजातियों को संरक्षण प्रदान कर दिया है तो ये हमारी भूल ही होगी क्योंकि ज्यादातर इन बायो स्फीयर रिजर्व व नेशनल पार्कों से कई तरह के विवाद जुड़े हुए हैं और यही नहीं इनके खस्तेहाल की भी चर्चाएं होती रहती हैं। वनों का कटान, जीवों का दोहन, वे चाहे बाघ हों या गैंडा, हाथी, ये सब इतनी सुरक्षा के बाद भी शिकारियों की भेंट चढ़ ही रहे हैं। अवैध वन कटान व जड़ी बूटियों की बड़ी चोरी कहीं भी छुपी हुई नहीं है। ऐसे में सामान्य नहीं रहा जा सकता क्योंकि पृथ्वी का पारिस्थितिकी तंत्र सामूहिक योगदान व उपयोग के लिये बना हुआ है। प्राणी विशेष की भूमिका अहम नहीं हो सकती। इसलिये यह तंत्र आज संवेदनशील हो चुका है जो विभिन्न रूपों से वो चाहे बवंडर हो या बाढ़, हमारे बीच में है।

अब जैव विविधता दिवस को जीवन दिवस के रूप में भी मनाया जाना चाहिये क्योंकि इस तंत्र में हर जीव की अपनी एक भूमिका है और पारस्परिक सहयोग व योगदान से ही हम एक-दूसरे के लिये बेहतर जीवन संजो सकते हैं। किसी भी प्रजाति का खत्म होना हमारे जीवन के एक दिन के खत्म होने के बराबर है। जैव विविधता को समझने व समझाने के नये रास्ते तैयार करने होंगे वरना आज मात्र एक औपचारिकता का हिस्सा बन चुका है। इसे व्यवहार में लाना आज की सबसे बड़ी चुनौती है वरना हर नये जैव विविधता दिवस के अवसर पर हम अपने जीवन का एक दिन खो चुके होंगे।

Friday, 16 November 2018

‘Himalayan State Regional Council’ 

NITI Aayog has constituted the ‘Himalayan State Regional Council’ to ensure sustainable development of the Indian Himalayan region.

Objective: The Council has been constituted to review and implement identified action points based on the Reports of five Working Groups, which were established along thematic areas to prepare a roadmap for action.

These Working Groups were tasked with preparing a roadmap for action across five thematic areas namely:

  1. Inventory and Revival of Springs in Himalayas for Water Security
  2. Sustainable Tourism in Indian Himalayan Region.
  3. Shifting Cultivation: Towards Transformation Approach.
  4. Strengthening Skill & Entrepreneurship (E&S) Landscape in Himalayas.
  5. Data/Information for Informed Decision Making.

Functions: The Himalayan States Regional Council will be the nodal agency for the Sustainable development in the Himalayan Region which consists of the 12 States namely Jammu &Kashmir, Uttarakhand, Himachal Pradesh, Arunachal Pradesh, Manipur, Meghalaya, Mizoram, Nagaland, Sikkim, Tripura, two districts of Assam namely Dima Hasao and KarbiAnglong and Darjeeling and Kalimpong in West Bengal.



India and Global Hunger Index 2018

Introduction:

Despite being one of the fastest growing economies in the world, India has been ranked at 103 out of 119 countries, with hunger levels categorised as “serious”, in the Global Hunger Index 2018.

Recently, three girls died of starvation resulting from prolonged malnutrition in the national capital Delhi, which has a high per capita income.

India’s child malnourishment level is not only the highest in the world but varies considerably across States.

It is a well-known fact that the foundation of a healthy life is laid in the first six years.

At least one in five Indian children under the age of five are wasted, which means they have extremely low weight for their height, reflecting acute under-nutrition, according to the Global Hunger Index 2018.

The only country with a higher prevalence of child wasting is the war-torn nation of South Sudan, says the report.

India: Home to the largest number of malnourished children in the world:

India is home to over 53.3 million stunted49.6 million underweight and 29.2 million wasted (low weight for height) children under five.

As per the National Family Health Survey-2016, the proportion of stunted (low height for age) children under five is significantly higher (38.4%)than global (22.9%) averages.

The underweight (low weight for age) children rate (35.7%) is a lot higher than the global average (13.5%) too.

It is a country that fares poorly on many nutrition indicators. There are 19.8 million children in India, under the age of 6, who are undernourished.

Major challenges to address Mal-nutrition:

Faster economic growth has enormous benefits, but it is by no means sufficient and sustainable if millions of children remain undernourished, as it not only impacts early childhood health and imposes disease burden but also affects education, wages and productivity when they grow up, which will impact India’s growth.

Worryingly, malnutrition in some of its agriculturally-developed districts (Karnal, Panipat, Sonipat, Rohtak as well as in Gurugram) is even higher than the average of Odisha.

Recently, Madhya Pradesh has registered double-digit growth in food grain production making it one of the wheat granaries of India, but acute malnutrition is still critical in most of its districts with a high proportion of underweight (42.8%) and stunted children (41.9%).

Economic Growth can solve Mal-nutrition:

One problem lies with the current thinking of growth-oriented development.

No doubt, the low income and Empowered-Action-Group (EAG) States face major challenges to improve malnutrition, but, two EAG States, Chhattisgarh and Odisha, have performed better on this front compared to Gujarat and Maharashtra where per capita income is almost double.

The development path prevalent in Gujarat is more about growth and investment, which, however, has not been able to translate as better nutritional status in the State.

Odisha, which is a low income State, has a better network of Integrated Child Development Services (ICDS), public health facility/workforce per lakh population and educational attainment among women, which have translated into a better nutritional status when compared with Gujarat.

Further, tribals, rural, poor and illiterate mothers’ children are badly off in so-called developed States of Haryana, Gujarat and Punjab.

These groups are also affected in poorer States of U.P., Bihar, Jharkhand and Madhya Pradesh.

Around two-thirds of stunted/underweight children are from 200 districts of both less developed and developed States.

Agriculture v. Hunger: Where the Problem lies?

Another prominent idea is the need to link agriculture and nutrition, as agriculture provides answers to most nutrition problems.

Our estimates, however, show malnutrition continues to be high in agricultural surplus States like Haryana (34% stunting and 29.5% underweight).

To understand the contradiction between agrarian plenty and malnutrition, let us take the example of diversified food.

With the increase in diversity in food intake, measured through Food Intake Index using 19 food items in all 640 districts, malnutrition (stunted/underweight) status declines.

Only 12% of children are likely to be stunted and underweight in areas where diversity in food intake is high, while around 50% children are stunted if they consume less than three food items.

Example of Diversity Food Intake:

A majority of children across districts in Tamil Nadu consume a reasonably highly diversified food, leading to lower percentage of stunted/underweight children across districts.

Children in a majority of districts in West Bengal, Odisha, Kerala and Karnataka consume mediocre level of food items and malnutrition is relatively lower than in Rajasthan, U.P., Jharkhand, M.P., Gujarat, Bihar and Haryana (children in many of their districts consume less diversified food).

The diversified food intake is very low in a majority of Indian districts; just 28% of children consumed over five items of the total 19 food items.

The way forward:

An inclusive and holistic approach, including:

Controlling/regulating food price,

Strengthening the public distribution system (PDS) and

Income support policies for making food cheaper are important steps.

The ICDS was a high impact nutrition intervention, but its universal availability and quality are questionable due to poor functioning.

The government must broaden the ICDS programme by ensuring diversity in food items in worst-hit districts.

But sustained budgetary commitment towards nutrition components is not sharply visible.

The launch of the National Nutrition Mission as a strategy to fight maternal and child malnutrition is a welcome step towards achieving the targets of underweight and stunted children under five years from 35.7% to 20.7% and from 38.4% to 25% respectively by 2022.

(Source : Insights Editorial)

Wednesday, 6 June 2018

सामाजिक प्रगति की दिशा में ठोस कदम, ताकि युवा भारत के लिए अधिक रोजगार सृजित हो सकें

आज भारत दुनिया की सबसे तेज बढ़ती अर्थव्यवस्था है। सरकार ने अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए कई ढांचागत सुधार शुरू किए हैं। इनमें वस्तु और सेवा कर यानी जीएसटी के माध्यम से एकीकृत बाजार का सृजन, दिवालिया संहिता (आईबीसी) लागू करना, 433 स्कीमों में प्रत्यक्ष लाभ अंतरण, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश व्यवस्था को खोलना और कारोबारी सहूलियत देना प्रमुख हैं। अर्थव्यवस्था में वृद्धि की दर बने रहने की संभावना है, किंतु चुनौती यह है कि इससे भी अधिक वृद्धि दर तीन दशकों तक कायम रहे ताकि युवा भारत के लिए अधिक रोजगार सृजित हो सकें और देश में खुशहाली आए। हमारी अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ रही है, पर मानव विकास सूचकांक की दृष्टि से मोटे तौर पर ठहराव बना हुआ था। स्वास्थ्य, पोषण और शैक्षिक नतीजों की दृष्टि से सुधार तो हुआ है, किंतु बदलाव की दर हमारी अपेक्षा से काफी कम है। यह आवश्यक है कि हम अपनी सामाजिक पूंजी में निवेश पर ध्यान दें और उसे बढ़ाएं। सामाजिक क्षेत्र में बड़े परिवर्तन की तत्काल आवश्यकता है। सरकार में सबसे निचले स्तर पर भी ढांचे को बदलने, विभिन्न मंत्रालयों की स्कीमों को समेकित करने, वास्तविक प्रगति को मापने और समुदायों के विकास में उन्हें शामिल करने के प्रयास किए गए हैं। इन कदमों से आने वाले दशकों में भी भारतीय नागरिकों के जीवन पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।

अगर हमारा कार्यबल कुपोषित रहेगा तो देश सशक्त नहीं बनेगा। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे यानी एनएफएचएस-4 के अनुसार करीब हर तीन में से एक बच्चे का विकास अवरुद्ध है और हर दूसरी महिला रक्ताल्पता की शिकार है। कुपोषण के कई कारकों को ध्यान में रखते हुए हाल में पोषण अभियान शुरू किया गया है। इसमें स्थानीय समुदायों की भागीदारी से एक जन आंदोलन खड़ा करने पर जोर है। इसके अलावा प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाओं के लिए एक सशर्त नकद अंतरण स्कीम भी है। मिशन इंद्रधनुष से यह सुनिश्चित किया गया है कि 201 जिलों में पूर्ण टीकाकरण की दर में 2013-14 के 61 प्रतिशत की तुलना में 6.7 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। अधिक कुपोषण वाले जिलों में रोटा वायरस और अन्य टीकों से पांच साल से कम उम्र के बच्चों में अतिसार और न्यूमोनिया के मामलों की रोकथाम होने की संभावना है। स्वच्छ भारत मिशन के तहत साफ-सफाई पर लगातार बल देने से ग्रामीण भारत में स्वच्छता 39 प्रतिशत से बढ़कर 84 फीसद हुई है।

इसके स्वास्थ्यगत और साथ ही आर्थिक लाभ दिखने शुरू हो गए हैं। इससे चिकित्सा लागत घटी है, समय की बचत हुई है और जीवन की रक्षा भी हुई है। 2018-19 का बजट इस मायने में अभूतपूर्व रहा कि इसमें स्वास्थ्य क्षेत्र पर बल देने के साथ ऐतिहासिक आयुष्मान भारत योजना शुरू की गई। आयुष्मान भारत के तहत राष्ट्रीय स्वास्थ्य संरक्षण मिशन (एनएचपीएम) अब तक की सबसे बड़ी और पूरी तरह सरकार द्वारा वित्तपोषित स्वास्थ्य बीमा योजना है। अनुमान है कि इससे 10.74 करोड़ परिवारों यानी लगभग पचास करोड़ लोगों को पांच लाख रुपये का स्वास्थ्य बीमा कवर मिलेगा। इसके तहत लोग 1364 रोगों का नकदी रहित उपचार करा सकेंगे। ऐसी महत्वाकांक्षी योजना के अमल में चुनौतियां काफी होती हैं। एनएचपीएम में हमारे नागरिकों को अब तक मिल रही स्वास्थ्य सेवा में जबरदस्त बदलाव लाने की क्षमता है। सरकार को इसकी चिंता है कि एक सुव्यवस्थित स्वास्थ्य प्रणाली में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा को वरीयता मिले। सरकार उप-स्वास्थ्य केंद्रों/प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों के उन्नयन के जरिये ऐसे 1,50,000 समुचित संसाधन वाले स्वास्थ्य और कल्याण केंद्रों की स्थापना के प्रति समर्पित है जहां व्यापक प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा मिल सके, जिनमें मुफ्त औषधि और जांच सुविधा शामिल है।

इन केंद्रों में सभी लोगों का स्वास्थ्य ब्योरा रखा जाएगा। इससे रोग की परिस्थितियों का जल्दी पता लगाया जाना सुनिश्चित हो सकेगा। स्वास्थ्य क्षेत्र में कुशल कर्मियों की कमी भी सरकार की चिंता का विषय है। भारतीय चिकित्सा परिषद के स्थान पर राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग विधेयक लाया जा रहा है। 2022 तक स्वास्थ्य क्षेत्र में सार्वजनिक क्षेत्र में 15 लाख रोजगार सृजित होने का अनुमान है। सर्व शिक्षा अभियान और राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान के समग्र शिक्षा अभियान के रूप में विलय से अब हम विद्यालयों को प्राथमिक, उच्च-प्राथमिक, माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक खंडों में वर्गीकरण के बजाय एक संपूर्ण इकाई के रूप में देख सकते हैं। इससे विद्यालयों का बेहतर प्रबंधन और शिक्षण संसाधनों का बेहतर उपयोग सुनिश्चित होगा। शिक्षा के क्षेत्र में प्रौद्योगिकी के माध्यम से ‘उन्नयन बांका’ पहल के लिए बांका, बिहार के जिला प्रशासन को प्रधानमंत्री लोक प्रशासन पुरस्कार प्रदान किया गया है। यह एक मल्टी-प्लेटफार्म मॉडल उपलब्ध कराती है जहां विद्यार्थियों को टीवी, लैपटॉप आदि माध्यम से आधुनिक सुविधा मिलती है। यह ‘मेरा मोबाइल मेरा विद्यालय’ के माध्यम से मोबाइल फोन पर कभी भी और कहीं भी शिक्षा-प्राप्ति के मॉड्यूल्स उपलब्ध कराती है। जिलों के विकास में विषमता को स्वीकारते हुए सरकार ने विकास के मामले में पिछड़े जिलों की विकास संबंधी जरूरतों का समाधान किया है। इसके तहत 28 राज्यों के उन 115 जिलों का सुधार करने पर ध्यान केंद्रित किया जा रहा है जहां विकास के विभिन्न मानदंडों के हिसाब से सबसे कम प्रगति देखी गई है। इनमें भारत की 20 प्रतिशत से अधिक आबादी रहती है। इसके तहत शिक्षा, स्वास्थ्य-पोषण, वित्तीय समावेशन, कृषि, कौशल विकास और बुनियादी अवसंरचना से संबंधित 49 संकेतकों में सुधार करने पर जोर दिया जा रहा है। यह कार्यक्रम तत्क्षण डेटा और निरंतर निगरानी पर आधारित है। यह विभिन्न संस्थाओं और सिविल सोसायटी के साथ भागीदारी में केंद्र और राज्य सरकारों के बीच एक सहयोगी परियोजना है।

उचित समावेशी विकास को बढ़ावा देने और मानव विकास संकेतकों में सुधार की गति बढ़ाने हेतु संसाधनों की प्राथमिकता का निर्धारण करने और अड़चनों को दूर करने का प्रयास किया जा रहा है। इसी तरह ग्राम स्वराज अभियान के माध्यम से कल्याणकारी स्कीमों का कार्यान्वयन किया जा रहा है। इसका लक्ष्य प्रमुख कल्याण कार्यक्रमों को देश के पिछड़े क्षेत्रों तक पहुंचाना है। शिक्षा, स्वास्थ्य और पोषण पर सरकार के प्रोत्साहन को देखते हुए यह माना जा रहा है कि हम मानव विकास सूचकांक क्षेत्र में बड़ा प्रभाव देख सकेंगे। कुछ प्रभाव तो दिखने शुरू भी हो गए हैं। इनका वास्तविक लाभ किसी भी चुनाव चक्र से आगे तक जाएगा। उम्मीद है कि ये सभी परिवर्तन एक स्थाई विशेषता बनेंगे।

अमिताभ कांत
(लेखक नीति आयोग के सीईओ हैं) 

Thursday, 3 May 2018

बुजुर्गों की बदहाली

कहा जा रहा है कि दुनिया अब बूढ़ी हो रही है. पचास के दशक की तुलना में 21वीं शताब्दी में साठ साल से ऊपर की उम्र के लोगों की संख्या तीन गुनी ज्यादा हो जायेगी. भारत में भी लगभग आठ प्रतिशत जनसंख्या साठ से ऊपर है, बिहार जहां अपेक्षाकृत युवा ज्यादा हैं, वहां भी यह प्रतिशत सात से कम नहीं है. लेकिन दुनिया के विकसित देशों की तरह भारत में अभी भी इन लोगों के लिए कोई खास नीति नहीं है. यह एक बड़ी समस्या है, समाज को इसका अंदाजा जितना जल्द हो उतना अच्छा है.

आये दिन महानगर में तो बुजुर्गों को प्रताड़ित किये जाने की खबर आते ही रहती है, लेकिन ग्रामीण समाज की हालत भी कोई अच्छी नहीं है. भारतीय समाज में बुजुर्गों की बदहाली का कारण यह है कि परिवार वाले न तो उनका सही देखभाल ही कर पा रहे हैं, न ही राज्य इस विषय में कुछ सोचता है. जिस समाज में कभी बुजुर्गों का खास ख्याल किया जाता था, अब वही उन्हें बोझ समझा जाने लगा है. ऐसे में आनेवाले समय में कैसी नीतियों की जरूरत है, सोचना जरूरी है. इसके लिए सही नीति लाना राजनीति का एक अहम मुद्दा होना चाहिए.

आप यदि बिहार के गांवों में जायें, तो आपको एक अलग ही मंजर नजर आयेगा. खासकर उत्तरी बिहार के ज्यादातर गांवों से लोगों का भयंकर पलायन हुआ है. जाहिर है, पलायन करनेवाले लोग युवा ही हैं. नतीजतन, जनगणना के आंकड़ों की तुलना में कहीं ज्यादा बुजुर्ग लोग गांवों में रह रहे हैं. शहरों में भी उनकी संख्या कुछ कम नहीं है. अब यदि विकास के मापदंड में बुजुर्गों की हालत को भी शामिल कर दिया जाये, तो पता चलेगा कि राज्य विकास के मामले में कुछ सीढ़ी और लुढ़क जाता, यदि नीचे जाने की कोई जगह होती तो. इसमें कोई शक की गुंजाइश ही नहीं है कि ज्यादातर राज्यों में, खासकर बिहार और झारखंड में उनकी हालत बेहद खराब है.

इसके पहले कि हम राज्य से अनुरोध करें कि इस विषय पर वृद्धावस्था पेंशन से आगे जाकर एक दृढ़ नीति का निर्माण करे या स्वयंसेवी संस्थाओं से अनुरोध करें कि उनके लिए रचनात्मक कार्य शुरू करें, यह जानना जरूरी होगा कि उनकी समस्याएं क्या हैं. बिहार में ग्रामीण बुजुर्गों की सबसे बड़ी समस्या है आर्थिक. जिस राज्य में बड़ी संख्या में लोग गरीबी रेखा के नीचे रहते हों, वहां यदि लोग आर्थिक रूप से सक्रिय रहने की क्षमता ही खो दें, तो मार दोहरी हो जाती है. बच्चे तो कुपोषण के शिकार होते ही हैं, लेकिन बुजुर्गों में कुपोषण कुछ कम नहीं है. अपनी कार्य क्षमता को बनाये रखने के लिए उन्हें जितनी ऊर्जा रोज चाहिए उसका मिल पाना मुश्किल ही होता है.

दूसरी सबसे बड़ी समस्या है स्वास्थ्य का. कहते हैं कि वृद्धावस्था खुद ही एक बीमारी है. शरीर कमजोर हो जाता है, अनेक बीमारियां सताने लगती हैं. ऐसे में यदि स्वास्थ्य सेवाएं पूरी तरह से निजी क्षेत्र में हों, तो फिर आप उनकी परेशानी का अनुमान लगा सकते हैं. अच्छे घरों में भी लोग बुजुर्गों के स्वास्थ्य पर खर्च करने में हिचकिचाते हैं.
उसे बेकार का खर्च माना जाने लगता है. सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों की बदहाली ने उनके लिए बड़ी समस्या पैदा कर दी है. गौर करने की बात है कि स्वास्थ्य सेवा में केवल डॉक्टर या दवाएं ही नहीं हैं, बल्कि रोज-रोज दी जानेवाली वे सुविधाएं भी हैं, जिनके बिना बुजुर्गों को स्वास्थ सुरक्षा मिलना मुश्किल है.

आर्थिक तंगी, स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव तो समस्या है ही, लेकिन सबसे बड़ी समस्या है उनका एकाकीपन. ऐसे बुजुर्ग जिनके बच्चे मजदूरी करने बाहर चले गये हैं, उनकी तो यह समस्या है ही, लेकिन मध्यम वर्गीय बुजुर्गों की हालत भी कुछ कम खराब नहीं है. बिहार में खासकर आपको लाखों ऐसे लोग मिल जायेंगे, जिनके बच्चे बाहर रहते हैं, अच्छी नौकरी करते हैं. इन बुजुर्गों को महानगर का सजा-धजा फ्लैट रास नहीं आता है. ऐसा लगता है जैसे किसी बड़े पेड़ को उखाड़ कर नयी जगह पर लगाने का प्रयास किया जा रहा हो. न तो हवा उनकी अपनी है, न मिट्टी और न ही पानी. फिर आप उनसे कैसे यह उम्मीद करते हैं कि अपने पुत्र या पुत्री की नयी संस्कृति में रमकर दिनभर आकाश में टंगे रहते हुए वे आनंद में रहेंगे? उनकी हालत त्रिशंकु सी हो जाती है, न तो गांव या कस्बे में अकेले रह सकते हैं, न ही बड़े शहर में रहने के काबिल हैं. अकेलेपन के कारण उनमें मानसिक बीमारियां बढ़ती जा रही हैं. अपना शहर और गांव भी धीरे-धीरे बेगाना हो गया है. चीजें बदल गयी हैं, लोग बदल गये हैं, जनसंख्या बढ़ रही है, जरूरी सुविधाएं कम हो गयी हैं, घर और दिल दोनों छोटे हो गये हैं.

सबसे बड़ी समस्या है कि जिस भारतीय संस्कृति का हवाला देकर लोग सत्तासीन हो रहे हैं, उसमें ही इतना बदलाव आ गया है कि बुजुर्गों की इज्जत की जगह अब उन्हें बेकार माना जाने लगा है. वह भी तब जब आज की बुजुर्ग पीढ़ी ने तो अपना सब कुछ नयी पीढ़ी के निर्माण में खर्च कर दिया था, अपने लिए तो कुछ बचाकर रखा ही नहीं था. आज की युवा पीढ़ी तो सचेत हो गयी है और अपनी सुरक्षा की बात भी सोचती है. उनके लिए तो बच्चों का सफल हो जाना ही सब कुछ था, वही सामाजिक सुरक्षा थी. लेकिन अब संस्कृति बाजारू होती जा रही है. जो लोग माता-पिता का इलाज नहीं करवा पाते हैं, जीते जी उन्हें हर तरह की तकलीफ देते हैं, उनके मरने पर बड़ा भोज करते हैं, क्योंकि यह भोज उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए है, बुजुर्गों के सम्मान के लिए नहीं. दिखावे की अनावश्यक चीजें माता-पिता, दादा-दादी से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गयी हैं. पारिवारिक हिंसा केवल औरतों के खिलाफ ही नहीं है, बल्कि बुजुर्गों के खिलाफ भी है. इसके कई उदाहरण हाल में हमारे सामने आये हैं.

अब सवाल है कि हम करें क्या? इस बाजारू संस्कृति में बुजुर्गों को सम्मानपूर्वक जीवन जीने का अधिकार कैसे मिले? बिना राज्य के सचेत हुए यह संभव नहीं है.
आज की युवा पीढ़ी ही कल बुजुर्ग हो जायेगी, इसलिए एक उचित नीति में सबका हित है. सवाल केवल वुद्धावस्था पेंशन का नहीं है. सवाल है सुविधाओं का और सम्मान का. राज्य से भी आगे जाकर समाज को भी कोई समाधान निकालना चाहिए, यह हमारा दायित्व है. केरल की कुछ संस्थाओं ने इस विषय में बहुत ही अच्छा काम किया है.

लोग उन संस्थाओं से जुड़ते हैं, अपनी क्षमता और अपना समय अंकित करवाते हैं. फिर संस्थाएं आवश्यकता के अनुसार उनकी सेवा को बुजुर्गों तक पहुंचाने का काम करती हैं. समय आ गया है कि हम इन बातों पर विमर्श करें और अपनी राजनीति को इस ओर मुखातिब होने के लिए विवश करें.

18 सितम्बर 2019 करेंट अफेयर्स - एक पंक्ति का ज्ञान One Liner Current Affairs

दिन विशेष विश्व बांस दिवस -  18 सितंबर रक्षा 16 सितंबर 2019 को Su-30 MKI द्वारा हवा से हवा में मार सकने वाले इस प्रक्षेपास्त्र का सफल परी...