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Monday, 15 January 2018

एफडीआई की जरूरत

एफडीआई ऐसा शब्द है जिसका उपयोग हमारे देश में आर्थिक विमर्श से अधिक राजनैतिक विमर्श में होता है। कुछ लोग एफडीआई को देश को गिरवी रखने जैसा मानते हैं, जबकि असल में यह सिर्फ एक व्यापारिक निर्णय है। एफडीआई के तीन मुख्य लक्ष्य होते हैं- निवेश की वृद्धि, आय और रोजगारध्यान देने वाली बात है कि सिर्फ एफडीआई खोल देने मात्र से निवेश नहीं आता है। विदेशी निवेश आकर्षित होता है-व्यापार की सुगमता,राजनैतिक स्थिरता, विदेशी मुद्रा की मजबूती,सतत आर्थिक नीति, मजबूत सामरिक व्यवस्था, कच्चे माल की उपलब्धता, एक्सपर्ट श्रमिकों की उपलब्धता, ढांचागत सुविधाएं, मजबूत संवैधानिक संस्थाएं, उचित श्रमिक कानून एग्जिट सुविधा आदि उपलब्ध होने पर।

बदलते नियंत्रण माहौल में आर्थिक मजबूती ही देश की एकता के लिए अहम है। खुलेपन की अर्थव्यवस्था को अपना कर चीन उत्तरोतर मजबूत हुआ और न अपना कर सोवियत रूस ग्यारह देशों का समूह बन गया। आज एफडीआई के महत्त्व को रूस भी समझता है। चीन पहले से और भी अधिक समझता है। एफडीआई में लगातार सुधारों एवं नए-नए सेक्टरों में निवेश खोलने में भारत एक बड़े और आत्मविास से लबरेज़ देश की तरह व्यवहार कर रहा है। वह विश्व के सबसे बड़े उभरते बाज़ारों में से एक होने के अलावा, कम उम्र एवं तकनीकी ज्ञान संपन्न नवयुवकों का देश है। दब्बूपन और संरक्षणवादी नीतियों को ओढ़ कर भारत अब नहीं बैठा है। आज हम विश्व भर के देशों के उपग्रहों को सफलतापूर्वक प्रक्षेपित करते हैं। हमने देसी तकनीक विकसित की और विदेशियों को अपनी सेवाएं बेचीं। यह आत्मविास हमारे ब्रांड को उन्नत करता है और विदेशी निवेश अच्छा देश बनाता है। एफडीआई ऋण नहीं होता है, भागीदारिता होता है। जब तक विदेशी निवेशकों को विश्वास नहीं होगा कि उन्हें उनके निवेश पर लाभ होगा वह भारत में आने से हिचकिचाएंगे। कम मूल्य पर श्रम की उपलब्धता और करों में सुविधा भी इस आकर्षण को बढ़ाने में सहायक है।

हमें समझना होगा कि हमारी सबसे बड़ी शक्ति हमारा यंग होना है। जापान-चीन बूढ़े लोगों के देश हैं। भारत असल में यंग इंडिया है मगर यही हमारी सबसे बड़ी चिंता का विषय भी है। हमने इस यंग जनरेशन को रोजगार देना है। डबल डिजिट ग्रोथ के बिना सबको रोजगार शायद संभव न होगा। बैंक ऋण आधारित अर्थव्यवस्था विकासशील बनाये रख सकती है मगर विकसित अर्थव्यवस्था ‘‘वित्तीय दलाली’ पर नहीं टिक सकती।बैंक ऋण’ उद्यमिता के लिए अच्छा ईधन नहीं है, वह भीगा हुआ कोयला भर है। इससे विकास का इंजिन स्पीड नहीं पकड़ सकता। तेज़ विकास के लिए ‘भागीदार पूंजी’ की आवश्यकता है।इक्विटी कैपिटल’ ही वह ईंधन है, जो इस रफ्तार को हासिल करवा सकता है। हर बिजनेस एक जोखिम से भरा हुआ खेल होता है, जिसमें उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। बिजनेस चक्र में उतार के समय बैंक-कर्ज खुद ही बड़ा जोखिम बन जाता है। प्रोमोटरों का सारा समय और शक्ति बिजनेस को संभालने के स्थान पर बैंकों को संतुष्ट करने में ही नष्ट हो जाता है। बहुत सारे बिजनेस इसी वजह से खराब हुए हैं। यह एक शोध का विषय है कि क्या वाकई बैंकों को अपने वर्तमान फॉर्मेट में कार्य करना चाहिए। उद्यमियों को वैकल्पिक वित्त को उपलब्ध करना और वह भी जहां तक हो सके साझा जोखिम आधारित होना एक बड़ी आवश्यकता है। नए ऑर्बिट में जाने के लिए अलग तरह के राकेट की जरूरत है। निश्चित रूप से वह राकेट बैंक नहीं है, वह राकेट है स्टॉक मार्किट। 2017 में आईपीओ द्वारा 36 कंपनियों ने 67147 करोड़ रुपये जुटाया। इन कंपनियों को इस पैसे पर कोई ब्याज नहीं देना। न ही ये पैसा वापिस करना है। एनपीए की समस्या का सच्चा निदान है - डेट कैपिटल से इक्विटी कैपिटल को स्थान्तरित करना। ये 36 कंपनियां अपने बिजनेस पर अच्छे से फोकस कर सकती हैं। मगर ये सिर्फ एक बहुत छोटा-सा इशारा भर है। यही है वह ईंधन जिसकी देश को आवश्यकता है, जब तक ये ईंधन हम उपलब्ध नहीं कराते, सरकार के पास इस ईंधन को आयात करने के सिवा कोई रास्ता नहीं बचता।

एफडीआई सिर्फ ‘‘इम्पोर्ट ऑफ़ इक्विटी कैपिटल’ ही है इसका विरोध उचित नहीं। हमें स्वयं वह ईंधन उपलब्ध कराना चाहिए। यह एक तरह की देश सेवा ही है। एफडीआई का विरोध ऐसा ही है जैसे हम क्रूड ऑयल के इम्पोर्ट का विरोध करें क्योंकि वह हमारे यहां नहीं होता, 80% इम्पोर्ट होता है। अब चूंकि बहुमूल्य विदेशी मुद्रा का अपव्यय होता है। लिहाजा, क्रूड ऑयल का आयात बंद किया जाए क्या ये संभव है? ये जरूरी बीमारी है। विकास के लिए क्रूड आयल एवं एफडीआई दोनों जरूरी हैं। दोनों का एक इलाज़ है घरेलू उत्पादन बढ़ाया जाए। हम स्वयं थोड़ा-बहुत पैसा निवेश करें बिजनेस में। स्टॉक मार्किट बिजनेस निवेश का साधन मात्र हैं। हां मगर तीन चीज़ों पर ध्यान रख कर ही ये संभव है। एक वित्तीय ज्ञान, दूसरा सामाजिक सुरक्षा और तीसरा कम ब्याज दरें। इन तीनों पर सरकारें काफी समय से ध्यान दे रही हैं। आधार का अंतिम लक्ष्य सामाजिक सुरक्षा ही है।

कुछ सज्जन एफडीआई का विरोध यह कह कर भी करते हैं कि बिजनेस से होने वाले लाभ को देश के बाहर ले जाया जाएगा। उन्हें समझना होगा कि हम खैरात नहीं मांग रहे। हम उस युग से काफी आगे आ चुके हैं, जब गेहूं तक बाहर से आता था। कुछ लोग मगर अभी उस युग में ही जी रहे हैं। हम अब आईएमएफ़ से कर्ज नहीं लेते। हजारों व्यापार विदेशी पूंजी से पोषित हैं। हमें लाभ होता है टैक्स का, रोजगार का, तकनीकी संवर्धन का। मोबाइल हो, वॉलेट हो, ओला हो, बैंक हों; सब में विदेशी निवेश हैं। इसी विदेशी पूंजी से हमें विदेशी मुद्रा मिलती है और हम सुरक्षा के लिए हथियार लेते हैं। लड़ाकू जहाज़ लेते हैं। हमने लाभ उठाया है विदेशी पूंजी का उसका सम्मान होना चाहिए। साथ ही, हमें खुद को विकसित करना चाहिए। हमें ‘एफडीओ’ में तेज़ी से बढ़ना होगा। विगत में काफी सफल अधिग्रहण हुए हैं। उसका प्रचार होना चाहिए कि हमने विदेशों में कौन-कौन से बिजनेस खरीदे हैं।

Saturday, 13 January 2018

Fields of despair: Rural Farm and Non-form Sector

Rural wage growth has fallen to a 14-month-low of 4.9 per cent in October, confirming a declining trend visible since the second half of 2017. This is a reflection of agrarian distress arising from the crash in farm produce prices. Indeed, Labour Bureau data shows the drop in all-India average annual wage growth to be even sharper for agricultural occupations — from 8.1 per cent in July to 4.7 per cent in October. It is obvious that farmers, faced with low crop realisations, have sought to protect whatever little margins that are left by transferring some of their burden to agricultural labourers. A not-so-good and well-distributed monsoon, unlike in 2016, has also led to lower plantings this time. That has, in turn, reduced the demand for farm labour, putting further pressure on wages.

The agrarian distress problem is partly an outcome of depressed global prices for most farm commodities — be it cereals, pulses, edible oil, cotton or milk powder. This has rendered agri-exports from the country relatively uncompetitive, while also exposing farmers to the threat of increased imports. But domestic policy is equally to blame. The Narendra Modi government has been more hawkish on inflation than its predecessor. While that may not by itself be bad, the urge to keep food prices in check has often extended to imposing restrictions on exports as well as domestic trade and stockholding, even while allowing imports of most agri products at very low or even nil duty. Only in the last six months or so have these curbs been gradually withdrawn along with measured tariff hikes on imports. One hopes this dismantling of controls harking back to the licence raj era is permanent. The Modi government would do well to signal this in the upcoming Union Budget. Farmers, like other businessmen, are entitled to a stable and predictable trade policy regime.

But the current crisis in rural India is not just about agriculture. According to the National Sample Survey Office, only 57.8 per cent of rural Indian households in 2012-13 were “agricultural”. Moreover, even in their case, 40.2 per cent of income on an average was from non-farm sources. In fact, the dip in all-India average rural wage growth for non-agricultural occupations between July and October worked out lower — from 5.7 per cent to 5.1 per cent. Non-farm employment in rural areas today is largely in informal and unorganised enterprises, which are likely to have taken a hit after demonetisation and introduction of the GST. Addressing the transitional problems of this sector — which acts as an “employment sink” for the rural masses — is as important as fixing issues specific to agriculture.

Increase in agri-exports will not only increase the country’s export basket, but also augment farmers’ incomes and ameliorate farm distress. There should be a paradigm shift in policy-making from being obsessively consumer-oriented to according greater priority to farmers’ interests.

Agri-exports:
In general, both agri-exports and imports have increased substantially since 2004-05. Agri-trade increased from $14 billion to $59.2 billion between 2004-05 and 2016-17. As a share of the agri-GDP, the contribution of this trade increased from 11.1 per cent in 2004-05 to 16.7 per cent in 2016-17 after peaking at 19.6 percent in 2012-13, reflecting the increasing integration of Indian agriculture with global markets.

The tumbling agri-trade surplus was the result of falling exports and rising imports. Agri-exports, after peaking at $42.9 billion in 2013-14 fell to $33.7 billion in 2016-17, while imports kept rising — from $17.5 billion in 2013-14 to $25.5 billion by 2016-17. Agri-exports suffered primarily due to the significant fall in exports of cereals (especially wheat and maize), cotton, oilseeds and, to some extent, bovine meet. This, in turn, was largely due to a steep fall in global prices and restrictive export policies.

India has to promote agri-exports, the country’s policymakers must build global value-chains for some important agri-commodities in which the country has a comparative advantage. Estimates show that India is export competitive in almost 70 per cent of agricultural commodities, non-tradable (that is our prices are between import parity and export parity prices) in about 10-15 per cent commodities, and import competitive in the remaining 15-20 per cent commodities. On the exports front, India is relatively competitive in cereals, especially rice and wheat and maize, and, at times, oilseeds, especially groundnuts and oil meals. The country can also be competitive in groundnut and mustard oil, provided there is an open and stable export policy. India has also been the world’s second largest exporter of cotton.

The country has a great potential to export fish and seafood, bovine meat, and fruits, nuts and vegetables. These are the commodities to focus on in order to stimulate agri-exports. This would require infrastructure and institutional support — connecting export houses directly to farmer producer organisations (FPOs), sidestepping the APMC-regulated mandis, removing stocking limits and trading restrictions.

Stimulating such exports would also require structural reforms in agriculture. When global prices dip suddenly by 25-30 per cent — for example, between 2013-16 — domestic exporters face problems. Export-oriented value-chains may need support in such times. A special package to support value-chains through infrastructural investments (in assaying, grading, packaging and storing facilities), which will also create jobs in rural areas, or assistance in adhering to sanitary and phytosanitary standards would make them more resilient to future price shocks.

Second, India needs to adopt an open, stable and reliable export policy. Abrupt export bans, high minimum export prices to restrict exports, or other quantitative restrictions on pulses, edible oils — even on vegetables and cereals at times — must give way to a policy that does not put any fetters on exports.

Third, on the imports front, India loses out most in the edible oils sector, especially palm and soybean oil. Palm oil is used to adulterate several other oils for the domestic market. Similarly, among pulses, primarily yellow pea is used as an adulterant in besan (chickpea flour). The import policy must, therefore, be designed such that the landed price of palm oil and yellow pea never goes much below the domestic prices of their nearest rivals, say, soybean oil and chickpea, respectively.

Last, liberalisation of factor markets, especially land-lease markets, would also help in building more efficient and reliable export value-chains. Over-regulated land-lease markets have kept landholdings small and forced informal tenancies to flourish rendering them incapable of mobilising large-scale capital. Long land-lease arrangements can facilitate private investments in building export-oriented global value-chains, generating rural non-farm employment and enhancing farmers’ incomes.

It is time for the commerce and industry minister to steer a “farm-to-foreign” strategy, improve agri-trade surpluses by promoting agri-exports, and most importantly create more jobs and bring prosperity to rural areas.

Thursday, 11 January 2018

भारत में विदेश निवेश (FDI in India): फायदा या नुकसान

पक्ष-

विकास दर में तेजी लाने के लिए प्रत्यक्ष विदेशी निवेश आकर्षित करना केंद्र सरकार की प्राथमिकता है। सरकार की कमान संभालने के साथ ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दुनिया के तमाम संपन्न देशों की यात्राएं कीं और वहां बसे भारतीयों का यहां आकर कारोबार शुरू करने के लिए आह्वान किया। विदेशी कंपनियों के कारोबार में आने वाली रुकावटों को दूर करने का भी प्रयास किया।

केंद्र सरकार ने साहसी कदम उठाया है। जिस समय भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर कुछ हलकों में चिंताएं जताई जा रही थीं, तब उसके ताजा फैसलों को मास्टरस्ट्रोक कहा जा सकता है। इससे दुनियाभर के निवेशकों में सकारात्मक संदेश जाएगा। गौरतलब है कि ये कदम उस समय उठाया गया है, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्विट्जरलैंड के शहर दावोस में होने वाली वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की सालाना बैठक में जाने की तैयारी में हैं। मोदी वहां 23 जनवरी को दुनिया की मशहूर कंपनियों के प्रमुखों को संबोधित करेंगे। साफ है, उसके पहले भारत में बड़े पैमाने पर विदेशी निवेश का मार्ग प्रशस्त किया गया है।

अब सिंगल ब्रांड रिटेल में भी विदेशी कंपनियां ऑटोमेटिक रूट से शत-प्रतिशत निवेश कर सकेंगी। यानी ऐसे निवेश के लिए उन्हें पूर्व-अनुमति की जरूरत नहीं होगी। साथ ही ऐसी निवेशक कंपनियों के लिए भारत के घरेलू बाजार से 30 फीसदी खरीदारी करने की शर्त को आसान बनाया गया है। शर्तों में फेरबदल के बाद उम्मीद है कि ज्यादा-से-ज्यादा विदेशी कंपनियां भारत में कारोबार के लिए प्रोत्साहित होंगी। सिंगल ब्रांड के कारोबार में एच एंड एम, गैप और आइकिया जैसी कंपनियां पहले ही भारतीय बाजार में आ चुकी हैं। खबरों के मुताबिक 50 से भी ज्यादा कंपनियां इस क्षेत्र में आने को तैयार हैं। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को प्रोत्साहित करने की नरेंद्र मोदी सरकार की नीति काफी सफल रही है। भारत में 2013-14 में 36.05 अरब डॉलर का विदेशी निवेश आया था, जो 2016-17 में 60.08 अरब डॉलर तक पहुंच गया। अब चूंकि एनडीए सरकार ने फिर निवेशकों के अनुकूल निर्णय लिया है, तो ऐसे निवेश में और बढ़ोतरी हो सकती है। इससे भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूती मिलेगी। विदेशी कंपनियां अपने साथ नई तकनीक और कार्यशैली भी लेकर आती हैं। इसका लाभ आम उपभोक्ता को मिलता है।

प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को बढ़ावा दिए बगैर विकास योजनाओं को गति प्रदान नहीं की जा सकती। स्मार्ट सिटी बनाने, स्वच्छ भारत और वस्तुओं की कीमतें तर्कसंगत बनाने का सपना अधूरा रह जाएगा। माना जाता है कि बाजार में प्रतिस्पर्धा बढ़ने से कीमतों को संतुलित बनाने में सफलता मिलती है। दूरसंचार कंपनियों के बीच प्रतिस्पर्द्धा के नतीजे सामने हैं। इसी तरह प्रतिस्पर्द्धा से खुदरा वस्तुओं की कीमतों में कमी लाने की उम्मीद बनती है। विदेशी कंपनियों के आने से विमानन के क्षेत्र में भी प्रतिस्पर्द्धा बढ़ेगी।

देश के व्यापारी समुदाय में सरकार के ऐसे निर्णयों से कुछ चिंता पैदा होना स्वाभाविक है। सरकार को इसे दूर करने के लिए उनके संगठनों से संवाद कायम करना चाहिए। वैसे अतीत का अनुभव यही है कि विदेशी निवेश को लेकर जताई गई अधिकांश चिंताएं निराधार साबित होती हैं।

सरकार ने कंस्ट्रक्शन डेवलपमेंट क्षेत्र में भी ऑटोमेटिक रूट से 100 फीसदी विदेशी निवेश की छूट दे दी है। इसके अलावा एक बड़ा फैसला एयर इंडिया में विदेशी कंपनियों को 49 प्रतिशत तक निवेश की हरी झंडी देना है, हालांकि इसके लिए सरकार की पूर्व अनुमति जरूरी होगी। एयर इंडिया में विनिवेश का फैसला सरकार पहले ही ले चुकी थी। कई बेलआउट पैकेज के बावजूद अपने पैरों पर खड़ा रहने में विफल रही इस एयरलाइन में निजी क्षेत्र को हिस्सेदारी मिले, इस पर अब लगभग आम-सहमति बन चुकी है। अब चूंकि विदेशी कंपनियां भी हिस्सेदारी हासिल कर सकेंगी, तो उम्मीद की जानी चाहिए कि एयर इंडिया के प्रबंधन को अधिक पेशेवर बनाना संभव हो सकेगा। कुल मिलाकर यह कहने का आधार बनता है कि अर्थव्यवस्था को गति देना और देश को समृद्ध बनाना मोदी सरकार की शीर्ष प्राथमिकता बनी हुई है। उस दिशा में अब उसने कुछ और साहसी फैसले लिए हैं।

चुनौतियां-

सरकार के साढ़े तीन साल बीत जाने के बाद भी अपेक्षित प्रत्यक्ष विदेशी निवेश नहीं जुटाया जा सका। नोटबंदी और जीएसटी के बाद विकास दर की रफ्तार सुस्त पड़ गई है। जबकि सरकार का लक्ष्य इसे आठ फीसद तक पहुंचाना है, पर वह संभव नहीं दिख रहा। महंगाई पर काबू पाना भी चुनौती बना हुआ है। ऐसे में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को बढ़ावा देने के मकसद से केंद्रीय मंत्रिमंडल ने विदेशी कंपनियों के लिए एकल ब्रांड खुदरा कारोबार और भवन निर्माण के क्षेत्र में सौ फीसद निवेश का रास्ता खोल दिया है। खुदरा कारोबार में अभी तक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की सीमा उनचास फीसद थी। उससे अधिक के लिए सरकार से इजाजत लेनी पड़ती थी। इसके अलावा विमानन क्षेत्र में भी उनचास फीसद निवेश की छूट मिल गई है। माना जा रहा है कि इससे प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की दर में बढ़ोतरी होगी। मगर इससे कितना प्रत्यक्ष विदेशी निवेश बढ़ेगा, जिससे दूसरे क्षेत्रों की सुस्ती मिटाने में मदद मिलेगी, कहना मुश्किल है।

कुछ मजदूर संगठनों ने सरकार के इस फैसले का विरोध किया है। उनका मानना है कि इससे देसी कंपनियों के कारोबार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। उनका तर्क है कि भाजपा ने अपने चुनाव प्रचार में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश का विरोध किया था, इसलिए भी यह फैसला असंगत जान पड़ता है।

भारत जैसे देशों के सामने बड़ी चुनौती अपने उत्पादों के लिए बाजार तलाशना है। उत्पादन के क्षेत्र में यहां संतोषजनक तरक्की दिखती है, पर निर्यात के मामले में स्थिति बहुत खराब है। विदेशी बाजार में अपने उत्पादों के लिए जगह बना पाना कठिन काम बना हुआ है। जबकि विदेशी कंपनियों ने हमारे बाजार का काफी हिस्सा छेंक रखा है। आयात की दर निर्यात के मुकाबले काफी अधिक है। ऐसे में खुदरा कारोबार में विदेशी कंपनियों के लिए सौ फीसद निवेश की छूट से बाजार में देसी कंपनियों और उत्पादकों के लिए और चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है। कीमतें नियंत्रित करने के लिए विदेशी वस्तुओं से बाजार को पाट देना कोई अंतिम उपाय नहीं माना जाता। संतुलित विकास दर के लिए देसी कारोबार को बढ़ावा देना भी जरूरी होता है। पहले ही हमारे यहां छोटे और मंझोले कारोबार कठिनाइयों से गुजर रहे हैं। विदेशी कंपनियों के लिए निर्बाध रास्ता खोल देने से उनकी मुश्किलें और बढ़ेंगी। ऐसे में विदेशी के साथ-साथ देसी कंपनियों के लिए जगह बनाने के व्यावहारिक उपाय तलाशने की अपेक्षा स्वाभाविक है।

Monday, 1 January 2018

क्रिप्टोकरेंसी या वर्चुअल करेंसी

वर्तमान समय में क्रिप्टोकरेंसी या वर्चुअल करेंसी का चलन तेजी से आगे बढ़ रहा है। हाल ही में देश का पहला बिटकॉइन ट्रेडिंग ऐप लॉन्च हो गया है। मोबाइल आधारित ऐप्लिकेशन प्लूटो एक्सचेंज 28 दिसंबर 2017 को लॉन्च हुआ। अब बिटकॉइन जैसी क्रिप्टोकरंसी (वर्चुअल करंसी) का लेन-देन ऐप के जरिए किया जा सकता है।

प्लूटो एक्सचेंज की स्थापना भरत वर्मा द्वारा 2017 में की गई। प्लूटो एक्सचेंज एक एप सक्षम क्रिप्टोकरेंसी वॉलेट प्रदाता कंपनी है जिसका मुख्यालय दुबई में है तथा आईटी विभाग दिल्ली में है।

बिटकाइन क्या है?

बिटकाइन एक विकेंद्रीकृत डिजिटल मुद्रा है। यह पहली विकेन्द्रीकृत डिजिटल मुद्रा है जिसका अर्थ है की यह किसी केंद्रीय बैंक द्वारा नहीं संचालित होती। कंप्यूटर नेटवर्किंग पर आधारित भुगतान हेतु इसे निर्मित किया गया है। इसका विकास सातोशी नकामोतो नामक एक अभियंता ने किया है। सातोशी का यह छद्म नाम है।

सामूहिक संगणक जाल पर पारस्परिक भुगतान हेतु कूट-लेखन द्वारा सुरक्षित यह एक नवीन मुद्रा है। अंकीय प्रणाली से बनाई गई यह मुद्रा अंकीय पर्स में ही रखी जाती है। इसकी शुरुआत 03 जनवरी 2009 को हुई थी। यह विश्व का प्रथम पूर्णतया खुला भुगतान तंत्र है।

इसका सबसे बड़ा फायदा ये है कि कोई इसकी नकल नहीं कर सकता है। इनको किसी भी देश में पेमेंट के विकल्प के तौर पर खर्च किया जा सकता है। इसका सबसे बड़ा नुकसान ये है कि अगर आपका कंप्यूटर हैक हो गया तो ये रिकवर नहीं होगी। इनके चोरी होने पर आप कहीं शिकायत नहीं कर सकते हैं।

बिटकॉइन का न्यूयॉर्क में मूल्य साल 2016 में करीब 1,600 फीसदी बढ़ा है और वर्तमान में इसका मूल्य लगभग 15,000 डॉलर है। भारत में, एक बिटकॉइन की कीमत 10 लाख रुपये है और लोग इसे खरीदने में 3,000 रुपये से लेकर कई लाख रुपये तक का निवेश कर रहे हैं।

अन्य क्रिप्टोकरेंसियां:

बिटकॉइन के अलावा लाइट कॉयन, नेम कॉयन, रिपल, इथेरम, एनईएम, इथेरम क्लासिक, डेश, मोनेरो, जेड कैश और पीपी कॉयन जैसी 1000 क्रिप्टोकरेंसी मौजूद हैं।

क्रिप्टोकरेंसी को लेकर निवेशकों को चेतावनी:

वित्त मंत्रालय ने निवेशकों के लिए चेतावनी जारी की है कि क्रिप्टोकरेंसी की कोई कानूनी मान्यता नहीं है और इस तरह की मुद्रा की कोई सुरक्षा नहीं है।

बिटकॉइन समेत हाल के दिनों में वर्चुअल करेंसी (क्रिप्टोकरेंसी) के मूल्य में तेजी से वृद्धि हुई है। यह स्थिति वैश्विक स्तर के साथ-साथ भारत में भी बनी हुई है। इस तरह की मुद्रा का कोई वास्तविक मूल्य नहीं है और ना ही इसके पीछे कोई संपत्ति है। बिटकॉइन और अन्य क्रिप्टोकरेंसी की कीमत पूरी तरह अटकलों पर आधारित परिणाम है और इसलिए इसकी कीमतों में इतना उतार-चढ़ाव है। बयान के मुताबिक इस तरह के निवेश में वैसा ही उच्च स्तर का जोखिम है, जैसा कि पोंजी योजनाओं में होता है। इससे निवेशकों को अचानक से भारी नुकसान हो सकता है, विशेषकर खुदरा ग्राहकों को जिनकी मेहनत की गाड़ी कमाई को झटका लग सकता है।
मंत्रालय ने कहा कि क्रिप्टोकरेंसी धारकों, उपयोक्ताओं और कारोबारियों को पहले ही भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा तीन बार इसके खतरों के प्रति आगाह किया जा चुका है। साथ ही केंद्रीय बैंक ने यह भी सूचित किया है कि इस तरह की मुद्रा के सौदों या संबंधित योजनाओं को चलाने के लिए उसने किसी को लाइसेंस या प्रमाणन नहीं दिया है।

रिज़र्व बैंक की चेतावनी:

भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा 24 दिसम्बर 2013 को बिटकॉइन जैसी वर्चुअल मुद्राओं के सम्बन्ध में एक प्रेस प्रकाशनी जारी की गयी थी। इसमें कहा गया था कि इन मुद्राओं के लेन-देन को कोई अधिकारिक अनुमति नहीं दी गयी है और इसका लेन-देन करने में कईं स्तर पर जोखिम है। 1 फरवरी 2017 और 5 दिसम्बर 2017 को रिजर्व बैंक ने पुन: इसके बारे में सावधानी जारी की थी।

उर्जा की खपत:

बिटकॉइन की माइनिंग में उपयोग होने वाली बिजली के कारण भी इसकी आलोचना की गयी है। एक बिटकॉइन के संचालन सौदे में अनुमानित 300 kwh बिजली लगती है जो 36000 केतलियों में पानी गर्म करने में लगनी वाली उर्जा के बराबर है।

Friday, 29 December 2017

क्रिप्टोकरेंसी को लेकर निवेशकों को चेतावनी

वित्त मंत्रालय ने निवेशकों के लिए चेतावनी जारी की है कि क्रिप्टोकरेंसी की कोई कानूनी मान्यता नहीं है और इस तरह की मुद्रा की कोई सुरक्षा नहीं है।

बिटकॉइन समेत हाल के दिनों में वर्चुअल करेंसी (क्रिप्टोकरेंसी) के मूल्य में तेजी से वृद्धि हुई है। यह स्थिति वैश्विक स्तर के साथ-साथ भारत में भी बनी हुई है। इस तरह की मुद्रा का कोई वास्तविक मूल्य नहीं है और ना ही इसके पीछे कोई संपत्ति है। बिटकॉइन और अन्य क्रिप्टोकरेंसी की कीमत पूरी तरह अटकलों पर आधारित परिणाम है और इसलिए इसकी कीमतों में इतना उतार-चढ़ाव है। बयान के मुताबिक इस तरह के निवेश में वैसा ही उच्च स्तर का जोखिम है, जैसा कि पोंजी योजनाओं में होता है। इससे निवेशकों को अचानक से भारी नुकसान हो सकता है, विशेषकर खुदरा ग्राहकों को जिनकी मेहनत की गाड़ी कमाई को झटका लग सकता है।
मंत्रालय ने कहा कि क्रिप्टोकरेंसी धारकों, उपयोक्ताओं और कारोबारियों को पहले ही भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा तीन बार इसके खतरों के प्रति आगाह किया जा चुका है। साथ ही केंद्रीय बैंक ने यह भी सूचित किया है कि इस तरह की मुद्रा के सौदों या संबंधित योजनाओं को चलाने के लिए उसने किसी को लाइसेंस या प्रमाणन नहीं दिया है।

धीमी हुई है अर्थव्यवस्था की रफ्तार,भारत फिर भी मजबूत

केंद्र सरकार ने वित्त वर्ष 2016-17 में देश की अर्थव्यवस्था में गिरावट की बात मानी है। लोकसभा में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने बताया कि पिछले वित्त वर्ष में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर 7.1 फीसद रही। इससे एक साल पहले यह 8 फीसद थी। वित्त मंत्री ने वैश्विक अर्थव्यवस्था, उद्योग एवं सेवा क्षेत्र में आई नरमी को इस गिरावट के लिए जिम्मेदार माना है।

किसी देश की विकास दर विभिन्न वित्तीय एवं मौद्रिक स्थितियों पर निर्भर करती है। इसमें संरचनात्मक और विदेशी कारकों का भी योगदान रहता है। वर्ष 2016 में वैश्विक अर्थव्यवस्था कमजोर रही, जिसका असर भारत पर भी पड़ा। इसके अलावा कंपनियों की कमजोर बैलेंस शीट और उद्योग जगत की सुस्ती ने विकास दर को प्रभावित किया। केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय (सीएसओ) के ताजा आंकड़ों में 2014-15, 2015-16 और 2016-17 के दौरान क्रमश: 7.5 फीसद, 8.0 फीसद और 7.1 फीसद विकास दर रहने की जानकारी दी गई है। चालू वित्त वर्ष की पहली और दूसरी तिमाहियों में विकास दर क्रमश: 5.7 फीसद और 6.3 फीसद रही।

भारत पिछले तीन साल से लगातार दुनिया की सबसे तेजी से बढऩे वाली अर्थव्यवस्था रहा। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) और वर्ल्ड बैंक के मुताबिक 2017 में भी हम दूसरे स्थान पर रहे। आर्थिक विकास को गति देने के लिए सरकार ने कई कदम उठाए हैं। इनमें विनिर्माण, परिवहन और ऊर्जा जैसे विभिन्न सेक्टर में की गई पहल शामिल हैं जिनमें मुख्य हैं भारतमाला परियोजना, इंसॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड और किफायती आवास को इन्फ्रास्ट्रक्चर का दर्जा देने जैसे कदम।

18 सितम्बर 2019 करेंट अफेयर्स - एक पंक्ति का ज्ञान One Liner Current Affairs

दिन विशेष विश्व बांस दिवस -  18 सितंबर रक्षा 16 सितंबर 2019 को Su-30 MKI द्वारा हवा से हवा में मार सकने वाले इस प्रक्षेपास्त्र का सफल परी...