Showing posts with label सामान्य अध्ययन प्रश्न पत्र - 1. Show all posts
Showing posts with label सामान्य अध्ययन प्रश्न पत्र - 1. Show all posts

Saturday, 30 December 2017

डा भीमराव अम्बेडकर का अधूरा सपना - "समान नागरिक संहिता"

तीन तलाक पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश और उसके बाद सरकार द्वारा तीन तलाक पर कानून बनाने के लिए लाए जाने वाले नए बिल के बाद समान नागरिक संहिता का मुद्दा एक बार फिर से सुर्खियों में है। संविधान बनाते वक़्त क़ानून मंत्री भीमराव अम्बेडकर को जिस इकलौते मसले पर सबसे बड़ी अग्नि-परीक्षा से गुज़रना पड़ा उसका नाम है ‘समान नागरिक संहिता’। इसे लेकर अम्बेडकर को इतना अपमान झेलना पड़ा कि उन्होंने देश के पहले क़ानून मंत्री के पद से इस्तीफ़ा दे दिया। उन्हें देश के पहले आम चुनाव में हार का मुँह भी देखना पड़ा।

बाबा साहब का कहना था,पर्सनल लॉ में सुधार लाये बग़ैर देश को सामाजिक बदलाव के युग में नहीं ले जाया जा सकता। रूढ़िवादी समाज में धर्म भले जीवन के हर पहलू को संचालित करता हो, लेकिन आधुनिक लोकतंत्र में धार्मिक क्षेत्राधिकार को घटाये बग़ैर उस असमानता और भेदभाव को दूर नहीं किया जा सकता, जिसे नागरिकों का मूल अधिकार बनाया गया है। इसीलिए देश का ये दायित्व होना चाहिए कि वो ‘समान नागरिक संहिता’ को अपनाये।’ डॉ० भीमराव अम्बेडकर के सपने "समान नागरिक संहिता" को सच करने का वक्त क्या आ गया है ?

सर्वोच्च न्यायालय समान नागरिक संहिता को लागू करने का निर्देश पहले भी कई बार दे चुका है। समान नागरिक संहिता का मसला उस समय दोबारा चर्चा में आया जबकि एक ईसाई युवक ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर करके ईसाइयों के तलाक अधिनियम को चुनौती दी थी। उसके बाद मोदी सरकार ने आयोग को पत्र लिखकर इस मुद्दे पर विचार करने को कहा था। उस ईसाई युवक का कहना था कि ईसाई दंपत्ति को तलाक लेने से पहले दो वर्ष तक अलग रहने का कानून है जबकि हिन्दू कानून और अन्य कानूनों के अनुसार यह अवधि छह-छह महीने मिलाकर कुल एक वर्ष की है। इस मुद्दे के बाद से अदालत में मुसलमानों में प्रचलित तलाक सम्बन्धी और शादी सम्बन्धी प्रक्रिया का मुद्दा भी पुनः आ गया।

केंद्र सरकार द्वारा विधि आयोग से समान नागरिक संहिता को लागू किये जाने सम्बन्धी मामले की समीक्षा करने को कहते ही मुस्लिम मजलिस और कई अन्य संगठनों ने आलोचना करनी शुरू कर दी। यह पहली बार नहीं है कि समान नागरिक संहिता पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सरकार से अपना रुख स्पष्ट करने को कहा गया है। सर्वोच्च न्यायालय ने इससे पूर्व वर्ष 2003 में भी भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम 1925 की धारा 118 को असंवैधानिक करार देते हुए संसद को समान नागरिक संहिता के निर्माण के सम्बन्ध में अपनी टिप्पणी प्रेषित की थी। तब भी ईसाई समुदाय के एक मामले को लेकर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा टिप्पणी की गई थी।

ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के आख़िरी दौर
में ‘समान हिन्दू लॉ’ बनाने की पहल हुई थी। इसके लिए 1941 में बी एन राव की अगुवाई में एक कमेटी बनी। द्वितीय विश्व युद्ध से इसके काम में ख़लल पड़ा। लेकिन 1946 में इसने सरकार को रिपोर्ट सौंपी। महात्मा गाँधी भी जातिगत ऊँच-नीच और छुआछूत वाली व्यवस्था को बदलना चाहते थे। वर्ष 1948 में अम्बेडकर की अगुवाई में एक प्रवर समिति बनी जिसे नया ‘हिन्दू कोड’ बनाना था। अम्बेडकर ने ख़ुद राव-रिपोर्ट की गहराई से समीक्षा करके ‘हिन्दू कोड’ का मसौदा तैयार किया जिसे संसद में पेश करते वक़्त उन्होंने कहा था, मसौदे का मक़सद, हिन्दू महिलाओं को बराबरी का हक़ देना और जातिगत असमानता को ख़त्म करना है। हिन्दू विधवाओं और बेटियों को भी सम्पत्ति में पुरुषों जैसा ही हिस्सा मिलना चाहिए।’ तब तक पैतृक सम्पत्ति पर बेटों का ही हक़ हुआ करता था। यदि महिलाओं को पति के दुर्व्यवहार, ज़्यादतियों या घातक बीमारियों की वजह से अलग रहना पड़े तो उसे गुज़ारा भत्ता का हक़ नहीं था। अन्तर्जातीय विवाह को मान्यता नहीं थी। तलाक का हक़, पति-पत्नी दोनों को नहीं था। बहुविवाह निषेध नहीं था और किसी भी जाति के व्यक्ति को गोद लेने की छूट नहीं थी। अम्बेडकर इसके सख़्त हिमायती थे।

समान नागरिक संहिता का मुद्दा कोई राजनैतिक नहीं है, वरन संविधान में ही इसके तत्त्व समाहित हैं। आज़ादी के बाद नवम्बर 1948 में संविधान सभा की बैठक में समान नागरिक संहिता को लागू किये जाने पर लम्बी बहस चली। बहस में इस्लामिक चिन्तक मोहम्मद इस्माईल, जेड एच लारी, बिहार के मुस्लिम सदस्य हुसैन इमाम, नजीरुद्दीन अहमद सहित अनेक मुस्लिम नेताओं ने तब डॉ० भीमराव अम्बेडकर का विरोध किया था। इसके बाद हुए मतदान में डॉ० अम्बेडकर का समान नागरिक संहिता का प्रस्ताव विजयी हुआ और संविधान के अनुच्छेद 44 में समान नागरिक संहिता को लागू किये जाने सम्बन्धी विधान लाया गया। इसके बाद भी बँटवारे की त्रासदी झेल रहे मुसलमानों के प्रति सौहार्द्र दर्शाते हुए समान नागरिक संहिता को लागू करने का विचार कुछ वर्षों के लिए टाल दिया गया। समय गुजरने के साथ-साथ मुस्लिम कट्टरता बढ़ती गई, मुस्लिम तुष्टिकरण बढ़ता गया और समान नागरिक संहिता की राह संकीर्ण होती गई। इसी विरोध और कट्टरता के चलते सन 1972 में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का जन्म हुआ। तबसे यह समान नागरिक संहिता का विरोध करते हुए शरीयत को संविधान और कानून से ऊपर बताती-मानती है।

इसके विरोध में खड़े लोगों का यह तर्क तो अत्यंत हास्यास्पद है कि समान नागरिक संहिता की बात हिन्दुओं द्वारा महज इस कारण की जाती है क्योंकि वे मुसलमानों की चार शादी और तलाक देने की सुविधा को आबादी बढ़ाने वाला मानते हैं। यहाँ सवाल उठता है कि क्या ये प्रासंगिक है कि एक महिला को मात्र तीन बार तलाक बोलकर हमेशा के लिए बेघर कर दिया जाये? जैसा कि शाहबानो प्रकरण में हुआ। 1985 में शाहबानो की उम्र 62 वर्ष थी और उसके पति ने तीन बार तलाक कहकर उससे सम्बन्ध विच्छेद कर लिया था। पाँच बच्चों की माँ शाहबानो को तब सिर्फ मैहर की रकम वापस की गई थी। शायराबानो केस में सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय और उसके बाद केन्द्र सरकार द्वारा संसद में लाया गया संबंधित विधेयक स्वागत है। परंतु तीन तलाक जैसी सामाजिक बुराई का सामना करने के लिए और भी कानूनों की आवश्यकता है जिसमें हलाला और बहुपत्नी विवाह मुख्य हैं। चार शादियों का लाभ उठाकर अरब के कामलोलुप मासूम लड़कियों से निकाह कर उन्हें अरब ले जाकर बेच देते हैं। सोचने वाली बात है कि यदि समान नागरिक संहिता के चलते मुस्लिम समुदाय में भी एक पत्नी प्रथा लागू होती तो क्या कामांध मुसलमान मासूम बच्चियों का भविष्य ख़राब कर पाते?

ये समझने का विषय है कि आज़ादी के तुरंत बाद तो भाजपा नहीं थी, तब हिंदुत्व साम्प्रदायिकता जैसी कोई स्थिति भी नहीं थी तब उस समय क्यों इसका विरोध किया गया? सभी नागरिकों के एक अधिकार हो जाने का विरोध क्यों? शरीयत की बात करने वाला कट्टरपंथी मुसलमान क्या सभी कार्य शरीयत के अनुसार ही करता है? किसी मुसलमान द्वारा अपराध किये जाने पर शरीयत के अनुसार उसको कोड़े मारना, हाथ काटना, पत्थर मारना, फांसी पर लटकाना आदि जैसी सजाएँ दी जाती हैं? कुरान में बाल विवाह प्रतिबंधित है। उसके अनुसार विवाह केवल बालिग स्त्री-पुरुष के बीच हो सकता है। जबकि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के अनुसार ख्याल-उल-बलूग अर्थात बाल विवाह का प्रावधान है। कुरान के अनुसार तलाक बिना अदालती हस्तक्षेप के संभव नहीं जबकि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के अनुसार मुस्लिम मर्द को अपनी मर्जी से तलाक लेने का अधिकार है। कुरान विधवा विवाह और पुनर्विवाह को मान्य करती है जबकि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ऐसा प्रतिबंधित करता है। ऐसे एक-दो नहीं अनेक उदाहरण हैं जिनके आधार पर न ही शरीयत का सम्पूर्ण पालन होता दिखता है न ही कुरान और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड में समन्वय दिखता है। ऐसे में ये लोग किस शरीयत की दुहाई देते हुए समान नागरिक संहिता का विरोध करने में लगे हैं? क्यों इस विषय पर मुस्लिमों के एकमत होने का इंतजार किया जाता है? क्यों उनको अंतरात्मा की आवाज़ सुनने के लिए कहा जाता है?

सवाल उठता है कि क्या सन 1955-56 में हिन्दू कोड बिल लागू करते समय हिन्दुओं की भावनाओं का ख्याल रखा गया था? क्या उत्तराधिकार, बाल विवाह आदि पर नियम बनाते समय हिन्दुओं की अंतरात्मा की आवाज़ को सुनने का प्रयास किया गया था?
आखिर चन्द गैरजिम्मेवार लोगों के विरोध के चलते कब तक अपरिहार्य विधान को लागू होने से रोका जाता रहेगा? समान नागरिक संहिता किसी एक समुदाय विशेष के विवाह अथवा तलाक की बात नहीं करती वरन एक महिला को भी नागरिक के रूप में अधिकार प्रदान किये जाने की बात करती है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में आवश्यकता इसकी है कि सभी लोग हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई आदि धार्मिक मानसिकता से ऊपर उठकर विशुद्ध भारतीय नागरिक की मानसिकता से विचार करें। देश में एक ऐसी संहिता का निर्माण करने में योगदान दें जो सभी समुदायों पर समान रूप से लागू हो, सभी को भारतीयता की पहचान कराती हो।

Saturday, 23 December 2017

संसद और विधानसभा में अनुसुचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षित सीटों से चुने जाने वाले जनप्रतिनिधि कितने असरदार

हर दस साल पर, संसद एक संविधान संशोधन विधेयक पारित करती है, जिसके तहत लोकसभा और विधानसभाओं में अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षण को दस साल के लिए बढ़ा दिया जाता है और फिर राष्ट्रपति इस विधेयक को अनुमोदित करते हैं। संविधान का अनुच्छेद 334, हर दस साल पर दस और साल जुड़कर बदल जाता है। इसी प्रावधान की वजह से लोकसभा की 543 में से 79 सीटें अनुसूचित जाति और 41 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए रिज़र्व हो जाती हैं। वहीं, विधानसभाओं की 3,961 सीटों में से 543 सीटें अनुसूचित जाति और 527 सीटें जनजाति के लिए सुरक्षित हो जाती हैं। इन सीटों पर वोट तो सभी डालते हैं, लेकिन कैंडिडेट सिर्फ एससी या एसटी का होता है। लोकसभा और विधानसभाओं में आज़ादी के समय से ही अनुसूचित जाति और जनजाति का उनकी आबादी के अनुपात में प्रतिनिधित्व रहा है।
सवाल यह उठता है कि इतने सारे दलित और आदिवासी सांसद और विधायक अपने समुदाय के लिए करते क्या हैं?

संसद और विधानसभाओं में आरक्षित सीटों की वजह से चुनकर आने वाले लगभग बारह सौ जनप्रतिनिधियों ने अपने समुदाय को लगातार निराश किया है। दलित और आदिवासी हितों के सवाल उठाने में ये जनप्रतिनिधि बेअसर साबित हुए हैं। लेकिन इसमें उनकी कोई ग़लती नहीं है उनका ऐसा करना एक संरचनात्मक मजबूरी है क्योंकि उनका चुना जाना उनके अपने समुदाय के वोटों पर निर्भर ही नहीं है। सुरक्षित सीटों पर कोई भी ऐसा जनप्रतिनिधि चुनकर नहीं आ सकता, जो दलित या आदिवासी हितों के लिए आक्रामक तरीके से संघर्ष करता हो, और ऐसा करने के क्रम में अन्य समुदायों को नाराज़ करता हो। रिज़र्व सीटें हमेशा दुर्बल जनप्रतिनिधि ही पैदा कर सकती हैं।

उदाहरणस्वरूप जिग्नेश मेवानी गुजरात विधानसभा के वडगाम सीट पर 15 प्रतिशत दलित वोटर की वजह से नहीं, 85 प्रतिशत ग़ैर-दलित वोटरों के समर्थन से चुने गए हैं। उस सीट के सारे दलित मिलकर भी कभी किसी को जिता नहीं सकते। संसद और विधानसभा में सीटों के रिज़र्वेशन की व्यवस्था पर सवाल उठाने का समय आ गया है। बेहतर होगा कि ये सवाल ख़ुद अनुसूचित जाति और जनजाति के अंदर से आएं। इस सवाल पर राष्ट्रीय बहस होनी चाहिए।

नेशनल क्राइम रेकॉर्ड्स ब्यूरो के इस साल जारी आंकड़ों के मुताबिक इन समुदायों के उत्पीड़न के साल में 40,000 से ज़्यादा मुकदमे दर्ज हुए। यह आंकड़ा साल दर साल बढ़ रहा है। जाहिर है कि इन आंकड़ों के पीछे एक और आंकड़ा उन मामलों का होगा, जो कभी दर्ज ही नहीं होते हैं। क्या दलित उत्पीड़न की इन घटनाओं के ख़िलाफ़ दलित सांसदों या विधायकों ने कोई बड़ा, याद रहने वाला आंदोलन किया है? ऐसे सवालों पर, संसद कितने बार ठप की गई है और ऐसा रिज़र्व कैटेगरी के सांसदों ने कितनी बार किया है?

हमने देखा है कि तेलंगाना से आने वाले दसेक सांसदों ने कई हफ़्ते तक संसद की गतिविधियों को बाधित रखा। कोई वजह नहीं है कि लगभग सवा सौ एससी और एसटी सांसद अगर चाह लें तो संसद में इससे कई गुना ज़्यादा असर पैदा कर सकते हैं। लेकिन भारतीय संसद के इतिहास में ऐसा कभी हुआ नहीं है। इसी तरह, सरकारी नौकरियों और शिक्षा में अनुसूचित जाति और जनजाति को आबादी के अनुपात में आरक्षण मिला हुआ है लेकिन केंद्र और राज्य सरकारें अक्सर यह सूचना देती हैं कि इन जगहों पर कोटा पूरा नहीं हो रहा है। ख़ासतौर पर उच्च पदों पर, अनुसूचित जाति और जनजाति के कोटे का हाल बेहद बुरा है। जैसे कि हम देख सकते हैं कि देश की 43 सेंट्रल यूनिवर्सिटी में एक भी वाइस चांसलर अनुसूचित जाति का नहीं है या कि केंद्र सरकार में सेक्रेटरी स्तर के पदों पर अक्सर एससी या एसटी का कोई अफसर नहीं होता।

शासन के उच्च स्तरों पर अनुसूचित जाति और जनजाति की अनुपस्थिति क्या अनुसूचित जाति और जनजाति के सांसदों के लिए चिंता का विषय है? अगर वे इसके लिए चिंतित हैं, तो उन्होंने सरकार पर कितना दबाव बनाया है? क्या इस सवाल पर कभी संसद के अंदर कोई बड़ा आंदोलन या हंगामा हुआ? ज़ाहिर है कि ऐसा कुछ नहीं हुआ।

चूंकि सरकारी नौकरियों की संख्या लगातार घट रही है और हाल के वर्षों में निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग उठी है, लेकिन क्या अनुसूचित जाति और जनजाति के सांसदों और विधायकों के लिए यह कोई मुद्दा है? इसी तरह की एक मांग उच्च न्यायपालिका में आरक्षण की भी है। ख़ासकर संसद की कड़िया मुंडा कमेटी की रिपोर्ट में न्यायपालिका में सवर्ण वर्चस्व की बात आने के बाद से यह मांग मज़बूत हुई है। लेकिन क्या अनुसूचित जाति और जनजाति के सांसदों ने कभी इस मुद्दे पर संसद में पुरज़ोर तरीक़े से मांग उठाई है?

120 से ज़्यादा एससी और एसटी सांसदों के लिए किसी मुद्दे पर संसद में हंगामा करना और दबाव पैदा करना मुश्किल नहीं है। इन सांसदों का एक ग्रुप भी है और जो अक्सर मिलते भी हैं लेकिन देश ने कभी इन सांसदों को अपने समुदायों के ज़रूरी मुद्दों पर आंदोलन छेड़ते नहीं देखा है। अगर ये सांसद अपने समुदाय के सवालों को नहीं उठाते तो फिर वे चुने कैसे जाते हैं? क्या उन्हें हारने का भय नहीं होता?
यह वह सवाल है, जिसमें इन सांसदों और विधायकों की निष्क्रियता का राज छिपा है।

संविधान की व्यवस्था के मुताबिक, अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए सीटें आरक्षित हैं, लेकिन वोटर तमाम लोग होते हैं। किसी भी आरक्षित लोकसभा सीट पर अगर मान लें कि 20 फीसदी अनुसूचित जाति के वोटर हैं, तो 80 फीसदी वोटर अन्य समूहों के हैं। अनुसूचित जाति के किसी नेता का सांसद चुना जाना इस बात से तय नहीं होगा कि अनुसूचित जाति के कितने लोगों ने उसे वोट दिया है। अनुसूचित जनजाति की कुछ सीटों को छोड़ दें, जहां एसटी वोटर 50 फीसदी से ज़्यादा हैं तो ज़्यादातर आरक्षित सीटों की यही कहानी है। चुना वह जाएगा जो आरक्षित समूह से बाहर के ज़्यादातर वोट हासिल करेगा। आरक्षित चुनाव क्षेत्रों के इस गणित का मतलब यह है कि अगर कोई नेता अनुसूचित जाति के आरक्षण को लेकर आंदोलन करेगा या निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग करेगा, तो दूसरे समुदायों की आंख में उसका खटकना तय है। यह उस नेता के लिए राजनीतिक आत्महत्या का रास्ता होगा। यह पूरी तरह विवशता की स्थिति है। आप अनुसूचित जाति के सांसद हैं, पर अनुसूचित जाति के सवालों पर आप मुखर नहीं हो सकते। आप अनुसूचित जनजाति की सांसद हैं लेकिन अनुसूचित जनजाति के सवालों को उठाना आपके लिए आत्मघाती हो सकता है।

इसके अलावा एक और समस्या है। भारत में ज़्यादातर सांसद किसी न किसी दल से चुने जाते हैं। यह रिज़र्व सीटों से चुने जाने वाले सांसदों के लिए भी सच है। संविधान की दसवीं अनुसूची, यानी दलबदल कानून की वजह से ये सांसद दलीय अनुशासन से बंधे होते हैं, वरना उनकी सदस्यता छिन सकती है। ऐसे में जब तक राजनीतिक दलों की नीतियां अनुसूचित जाति और जनजाति के पक्ष में न हों, तब तक रिज़र्व कैटेगरी से चुनकर आने वाले सांसदों और विधायकों के लिए करने को ख़ास कुछ नहीं होता है।

इसका सबसे अच्छा उदाहरण संसद की वह घटना है जब एससी और एसटी के लिए प्रमोशन में आरक्षण का विधेयक फाड़ने का दायित्व समाजवादी पार्टी ने एक एससी सांसद यशवीर सिंह को सौंपा और उन्होंने यह कर दिखाया। यशवीर सिंह उस समय उत्तर प्रदेश की नगीना लोकसभा सीट से सांसद थे। इस सीट पर एससी 21 फीसदी हैं और मुसलमान 53 फीसदी. नगीना रिज़र्व सीट से सांसद बनने के लिए एससी वोट से ज़्यादा महत्वपूर्ण मुसलमान और अन्य समूहों के वोट हैं इसलिए यशवीर सिंह ने एससी के हित के ऊपर समाजवादी पार्टी को रखा क्योंकि उनका गणित रहा होगा कि मुसलमान वोट उन्हें सपा में होने के कारण मिलेंगे इसलिए उनके लिए अनुसूचित जाति के हित से जुड़े एक विधेयक को फाड़ने में कोई दिक्कत नहीं आई।

एक उदाहरण बीजेपी सांसद उदित राज का भी है. आईआरएस की नौकरी छोड़कर उन्होंने अनुसूचित जाति और जनजाति का परिसंघ बनाया। इन समुदायों के हितों के सवाल पर वे सबसे ज़्यादा मुखर स्वर में से एक रहे। लेकिन जब तक वे यह करते रहे, तब तक अनुसूचित जाति ने भी उन्हें अपना नेता नहीं माना और वे कोई चुनाव नहीं जीत पाए। लेकिन बीजेपी में शामिल होते ही इन्हें सवा छह लाख से ज़्यादा वोट मिल गए। ज़ाहिर है कि अनुसूचित जाति के वोटर भी अपने हितैषी को नहीं, किसी पार्टी के कैंडिडेट को ही चुनते हैं। तो जीतने के बाद वह कैंडिडेट किसे ज्यादा महत्वपूर्ण मानेगा? यह एक सरल गणित है.

Wednesday, 13 December 2017

संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनीसेफ) द्वारा 'द स्टेट आॅफ द वर्ल्ड चिल्ड्रन 2017: चिल्ड्रन इन ए डिजिटल वर्ल्ड’ रिपोर्ट जारी 'The State of the World's Children 2017 - Unicef'

संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनीसेफ) की ओर से जारी की गयी ‘द स्टेट आॅफ द वर्ल्ड चिल्ड्रन 2017: चिल्ड्रन इन ए डिजिटल वर्ल्ड’ रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया में इंटरनेट का इस्तेमाल करने वालों में से एक तिहाई बच्चे हैं।

यूनीसेफ की ओर से पहली बार बच्चों पर डिजिटल तकनीक के प्रभावाें पर समग्रता में तैयार की गयी इस रिपोर्ट में एक तरफ जहां वंचित तबके के बच्चों तक भी इंटरनेट सेवाएं पहुंचाने की बात कही गयी है तो वहीं दूसरी ओर संपन्न वर्गों के बच्चों को इंटरनेट के खतराें और नुकसान का सामना करने के लिए यूं ही छोड़ दिये जाने का जिक्र भी किया गया है।

रिपोर्ट से जुड़े प्रमुख तथ्य:

शिक्षा से लेकर मनोरंजन तक हर क्षेत्र में आज बच्चे इंटरनेट का धड़ल्ले से इस्तेमाल कर रहे हैं लेकिन जिस पैमाने पर यह इस्तेमाल हो रहा है उस स्तर पर डिजिटल दुनिया के खतरों से उन्हें सुरक्षित रखने की कोई कारगर व्यवस्था नहीं की गयी है।

रिपोर्ट में इंटरनेट सेवाओं तक पहुंच के मामले में लड़के और लड़कियों के बीच लेकर गैर बराबरी की स्थिति को पाटने की बात भी की गयी है।

रिपोर्ट में कहा गया है कि इंटरनेट का इस्तेमाल वंचित तबकों के बच्चों को सूचना पहुंचाने ,कौशल निर्माण और अपने विचारों के वास्ते संवाद करने हेतु मंच प्रदान कर सकता है लेकिन दुनिया के 34 करोड़ 60 लाख ऐसे बच्चों को अभी तक यह सुविधा नहीं मिल सकी है जिससे गैर बराबरी बढ़ रही है।

रिपोर्ट में दूसरी तरफ यह भी कहा गया है कि इंटरनेट कैसे बच्चों के लिए खतरों में चपेट में आने का मौके बढ़ा रहा है। इसमें उनकी निजी सूचना का दुरुपयोग और नुकसानदायक सामग्री तक पहुंच को बढ़ावा मिल रहा है।

निगरानी के अभाव ने इसे और खतरनाक बना दिया है। इससे मानव तस्करी और बाल यौन उत्पीड़न की घटनाएं बढ़ रही हैं। बाल उत्पीड़न से जुड़ी सबसे ज्यादा सामग्रियां इंटरनेट पर कनाडा,फ्रांस,नीटरलैंड,द रशियन फेडरेशन और अमेरिका के यूआरएल से प्राप्त हो रही हैं।

यूनीसेफ ने डिजिटल दुनिया में बच्चों के खिलाफ बढ़ रहे यौन अपराधों और अन्य प्रकार के खतरों पर गहरी चिंता व्यक्त करते हुए कहा है कि इससे निपटने के लिए स्कूलों, अभिभावकों और नीति निर्धारकों को ज्यादा जिम्मेदारी निभाने की आवश्यकता है।
रिपेार्ट में इन खतरों से बचने के लिए सरकारों, निजी क्षेत्र, बाल संगठनों, स्कूलाें और अभिभावकों ज्यादा महत्वपूर्ण और जिम्मेदारी वाली भूमिका निभाने का सुझाव दिया गया है।

The State of the World's Children 2017 - Unicef

Digital technology has transformed the world we live in – disrupting entire industries and changing the social landscape.

Childhood is no exception. One in three internet users worldwide is a child, and young people are now the most connected of all age groups.

From photos posted online to medical records stored in the cloud, many children have a digital footprint before they can even walk or talk.

Digital technology can be a game changer for disadvantaged children, offering them new opportunities to learn, socialize and make their voices heard – or it can be yet another dividing line. Millions of children are left out of an increasingly connected world.

And the online gender gap is growing: Globally there are 12 per cent more men than women online, and the gap is greatest in low-income countries.

And as digital technology rapidly evolves, so can the risks children face online – from cyberbullying to misuse of their private information to online sexual abuse and exploitation.

For better and for worse, digital technology is an irreversible fact of our lives. How we minimize the risks while maximizing access to the benefits will help shape the lives and futures of a new generation of digital natives.

Connectivity doesn’t always equalize opportunity. Digital divides can mirror broader societal divides – between rich and poor, cities and rural areas, between those with or without an education – and between women and men.

India is one place in which the digital divide highlights society’s deep chasms. Globally, 12 per cent more men than women used the internet in 2016. In India, only 29 per cent of internet users are female: that’s fewer than 1 in 3.

For universal, safe access to be realized, this digital disparity needs to be addressed at the highest levels. 

In India, only 29 per cent of internet users are female. Though the divide is caused by a number of factors – social norms, education levels, lack of technical literacy and lack of confidence among them – it is often rooted in parents’ concern for the safety of their daughters.

Many fear that allowing girls to use the internet will lead to liaisons with men, bringing shame on the family. For most girls, if they are allowed to use the internet, their every move is monitored by their parents or brothers.

In a society that is still largely patriarchal, for girls, traits like deference and obedience are often valued over intelligence and curiosity. In some households, technology is not seen as necessary or beneficial for girls and women.

Recently, a village governing body in rural Rajasthan forbade mobile phones and social media use among girls. Another village in Uttar Pradesh banned unmarried girls from using mobile phones along with a ban on wearing certain kinds of clothing, such as jeans and T-shirts.

Recently, India has made a public push towards a more digitalized economy, including reducing dependency on physical cash. If girls and women remain digitally illiterate, they risk becoming further marginalized in society and at home.


Wednesday, 6 December 2017

दिव्यांगता : विकलांगता का सामाजिक मॉडल

'दिव्यांगता' विकलांगता के सामाजिक मॉडल के उस सिद्धांत पर आधारित है जिसमें किसी व्यक्ति की सीमाओं और अक्षमताओं के कारण नहीं बल्कि सामाजिक व्यवस्था के तरीके के कारण विकलांगता का जन्म होना माना जाता है।

अंतर्राष्ट्रीय दिव्यांग (विकलांग) दिवस:

'अन्तर्राष्ट्रीय दिव्यांग दिवस' प्रतिवर्ष 3 दिसंबर को मनाया जाता है। वर्ष 1976 में संयुक्त राष्ट्र आम सभा के द्वारा 'विकलांगजनों के अंतरराष्ट्रीय वर्ष' के रुप में वर्ष 1981 को घोषित किया गया था। सयुंक्त राष्ट्र द्वारा 1983-92 को अन्तरराष्ट्रीय विकलांग (दिव्यांगजन) दशक घोषित किया गया था। संयुक्त राष्ट्र द्वारा' विकलांग लोगों के अधिकारों पर कन्वेंशन' को वर्ष 2006 में अपनाया गया। अंतर्राष्ट्रीय दिव्यांगजन दिवस 03 दिसंबर, 2017 का विषय (थीम) था - ट्रांसफॉर्मेशन टुवर्ड्स सस्टेनेबल एंड रेसिलिएंट सोसाइटी फॉर ऑल।

दिव्यांगता प्रायः जन्म से, परिस्थितिजन्य अथवा दुर्घटना के कारण होती है। सर्वविदित है कि समाज में दिव्यांगजन की स्थिति चुनौतीपूर्ण होती है। दिव्यांगता के कारण जीवन में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। यदि दृढ़ इच्छा शक्ति हो तो व्यक्ति इस कठिनाई पर विजय प्राप्त कर सकता है।

यह निर्विवाद सत्य है कि प्रत्येक दिव्यांगजन में किसी न किसी प्रकार की विशेष प्रतिभा विद्यमान होती है। आवश्यकता होती है कि उनकी इच्छा शक्ति को जागृत कर उनके आत्मविश्वास को दृढ़ करते हुए उनकी प्रतिभा को विकसित कर उनको आत्मनिर्भर बनाया जाए, जिससे वह सम्मानजनक जीवन व्यतीत कर सकें।

अंतर्राष्ट्रीय दिव्यांगजन दिवस और भारत:

अन्तर्राष्ट्रीय दिव्यांग दिवस के अवसर पर विभिन स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा अनेक गोष्ठियों व कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। इस अवसर पर दिव्यांगजन सशक्तीकरण विभाग द्वारा विशिष्ट प्रतिभा के धनी दिव्यांगजन, उनके सेवायोजकों एवं दिव्यांगजन के हितार्थ कार्य करने वाले व्यक्ति विशेष एवं संस्थाओं को पुरस्कृत एवं सम्मानित किया जाता है। 

(1) दिव्यांगजनों के सशक्तिकरण की दिशा में किए गए उत्कृष्ट कार्यो और उपलब्धियों के लिए वर्ष 2013 से "दिव्यांगजन सशक्तीकरण के राष्ट्रीय पुरस्कार" प्रदान किए जाते हैं।
यह समारोह सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय के अंर्तगत दिव्यांगजन सशक्तीकरण विभाग द्वारा आयोजित किया जाता है।
(2) 2011 की जनसंख्या के अनुसार भारत में 2.68 करोड़ से अधिक दिव्यांगजन हैं, जो कुल जनसंख्या के 2.2 प्रतिशत से अधिक हैं।
(3) दिव्यांगजनों के सशक्तीकरण के लिए योजनाओं और कार्यक्रमों पर ध्यान केंद्रित करने के लिए, सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय के तहत एक नये विभाग का शुभारंभ वर्ष 2012 में किया गया।
(4) दिव्यांगजनों के सशक्तिकरण के लिए कई नई योजनाएं और कार्यक्रमों की भी शुरूआत की गई है जिनमें वर्ष 2015 में शुरू की गया "सुगम्य भारत अभियान" एक प्रमुख कार्यक्रम है।
(5) सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने 'दिव्यांग सारथी' मोबाइल एप की शुरुआत की। इसके माध्यम से दिव्यांगजनों को आसानी से जानकारियाँ मिल सकेंगी। इस मोबाइल एप को यूनिवर्सल एक्सेस के यूएनसीआरपीडी के सिद्धांतों और दिव्यांगजनों के अधिकार अधिनियम 2016 के प्रावधानों के अनुरूप तैयार किया गया है।
(5) दिव्यांग व्यक्तियों के लिए दुनिया का  पहला आईटी परिसर हैदराबाद (तेलंगाना)
में बनेगा।

सुगम्य भारत अभियान:

3 दिसम्बर, 2015 को अंतर्राष्ट्रीय दिव्यांगजन दिवस के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा शुरू किया गया सुगम्य भारत अभियान सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय के दिव्यांगजन सशक्तीकरण विभाग का राष्ट्रव्यापी अभियान है। इस अभियान का उद्देश्य देशभर में दिव्यांगजनों के लिये बाधारहित और सुखद वातावरण तैयार करना है। यह अभियान विकलांगता के सामाजिक मॉडल के उस सिद्धांत पर आधारित है कि किसी व्यक्ति की सीमाओं और अक्षमताओं के कारण नहीं बल्कि सामाजिक व्यवस्था के तरीके के कारण विकलांगता है।
बाधारहित वातावरण से दिव्यांगजनों के लिये सभी गतिविधियों में समान प्रतिभागिता की सुविधा होती है और इससे स्वतंत्र और सम्मानजनक तरीके से जीवन जीने के लिये उन्हें  प्रोत्साहन मिलता है। इस अभियान में एक समावेशी समाज बनाने का दृष्टिकोण है जिसमें दिव्यांग व्यक्तियों की प्रगति और विकास के लिये समान अवसर उपलब्ध हों ताकि वे उत्पादक, सुरक्षित और सम्मानजनक जीवन जी सकें।

18 सितम्बर 2019 करेंट अफेयर्स - एक पंक्ति का ज्ञान One Liner Current Affairs

दिन विशेष विश्व बांस दिवस -  18 सितंबर रक्षा 16 सितंबर 2019 को Su-30 MKI द्वारा हवा से हवा में मार सकने वाले इस प्रक्षेपास्त्र का सफल परी...