Wednesday, 4 April 2018

स्त्री-पुरुष समानता नजर भी आनी चाहिए, अाज भी जनाजे में नहीं जा सकती महिलाएं

 मेरी मां जब बीमार थीं तो मैं और मेरी नानी पूरे वक्त उनके साथ रहती थीं। हम दोनों दिन-रात उनकी देखभाल में लगे रहते थे। उनके पास कोई और नहीं आता था। घर के पुरुष सदस्य अपने-अपने काम में व्यस्त रहते थे, लेकिन मां के इंतकाल के बाद शव को लेकर क्या-क्या करना है, यह सारा निर्णय पुरुष सदस्यों ने कर लिया। मां का जनाजा खाट में रखकर कब्रगाह में ले जाया गया। मैंने जनाजे के साथ कब्रगाह तक जाने की बात कही तो मुझसे कहा गया कि महिलाओं को जनाजे के साथ कब्रगाह जाने की इजाजत नहीं है। पुरुषों ने कहा कि तुम मां की संतान हो सकती हो, लेकिन तुम्हें मां के जनाजे के साथ जाने का हक नहीं है।

अाज भी महिलाअों को जनाजे की नमाज पढ़ने और मां की कब्र पर मिट्टी देने का हक नहीं:

यहां तक कि जनाजे की नमाज पढ़ने और मां की कब्र पर मिट्टी देने और कब्रगाह में दाखिल करने का भी हक नहीं है। ऐसा क्यों? क्या मैं एक महिला हूं, इसलिए ऐसा कहा गया। इस्लाम महिलाओं को जनाजे के साथ कब्रगाह जाने की अनुमति नहीं देता। बांग्लादेश में जनाजे की नमाज में किसी भी महिला की मौजूदगी नहीं होती, हालांकि पाकिस्तान में है। संभवत: कुछ और मुस्लिम देशों में भी है। जब पाकिस्तान में मानवाधिकारों के लिए लड़ने वाली अधिवक्ता आसमां जहांगीर का जनाजा निकला तो उसमें बड़ी संख्या में महिलाएं भी शामिल हुईं। पहली कतार में खड़ी होकर आसमां जहांगीर की बेटी समेत कई महिलाओं ने जनाजे की नमाज अदा की। क्या इस्लाम महिलाओं को जनाजे की नमाज अदा करने की अनुमति दे देता है? इस सवाल का जवाब यह मिला कि जनाजे में पुरुष के साथ नमाज पढ़ने के लिए महिलाओं को उत्साहित नहीं किया जाता। महिलाओं के लिए घर में बैठकर ही नमाज पढ़ना बेहतर है। हालांकि जनाजे की नमाज पढ़ना महिलाओं के लिए गैरकानूनी या इस्लाम विरोधी नहीं है।

यदि पढ़ना ही है तो पुरुषों के पीछे खड़े होकर पढ़ा जा सकता है। किसी भी सूरत में पुरुष के सामने खड़े होकर नहीं। इस्लाम के कई विशेषज्ञों का कहना है कि अरब देशों में मोहम्मद नबी के वक्त महिलाएं जनाजे में शरीक होती थीं। उस समय भी महिलाओं को नमाज पढ़ने के लिए पिछली कतार में खड़ा होना होता था। आज 1400 वर्ष बाद महिलाओं के अधिकार और बढ़ने चाहिए थे, लेकिन बांग्लादेश में जनाजे के सामने की कतार में तो क्या, पिछली कतार में भी महिलाओं को खड़े होने की इजाजत नहीं है। पाकिस्तान में जो हो सकता है, वह बांग्लादेश में क्यों नहीं हो सकता? पाकिस्तान का जन्म धार्मिक आधार पर हुआ था। वहीं बांग्लादेश का जन्म भाषा, संस्कृति और धर्मनिरपेक्षता के आधार पर हुआ।

पाकिस्तान और बांग्लादेश की बुनियाद में जमीन-आसमान का अंतर:

पाकिस्तान और बांग्लादेश की बुनियाद में जमीन-आसमान का अंतर है, लेकिन पाकिस्तान में महिलाओं को जितनी स्वाधीनता और अधिकार हैं उतने बांग्लादेश में नहीं मिलते। मैं ऐसा नहीं कह रही हूं कि पाकिस्तान में महिलाएं प्रताड़ित नहीं होती हैं, बल्कि यह कहना चाहती हूं कि बांग्लादेश में महिलाएं प्रताड़ित होने के साथ अपने अधिकारों से भी वंचित हैं। इस्लाम ने जो थोड़े-बहुत अधिकार महिलाओं को दिए हैं वे भी नहीं मिल रहे हैं।

यह मुमकिन नहीं कि पुरुष महिलाओं के पीछे खड़े होकर नमाज पढ़ें:

हाल में केरल के मल्लापुरम के चेरूकोड़ गांव में जमीदा बीबी ने जुम्मे की नमाज पढ़ाई। इस्लाम यह मान सकता है कि एक महिला दूसरी महिलाओं की नमाज के लिए इमाम हो सकती है, लेकिन यह मुमकिन नहीं कि पुरुष महिलाओं के पीछे खड़े होकर नमाज पढ़ें, लेकिन यह असंभव घटना केरल के इस गांव में हुई। महिला-पुरुष, सभी ने जमीदा के पीछे खड़े होकर नमाज अदा की। नमाज के बाद जमीदा बीबी ने कहा कि कुरान में महिला-पुरुष में समानता की बातें लिखी हैं। भेद पुरुषों ने पैदा किया है, जिसे मैं दूर करूंगी। जमीदा का कहना है कि कुरान में कहीं भी यह नहीं लिखा कि पुरुष ही इमाम का काम कर सकते हैं। जमीदा कुरान पर यकीन करती हैं, हदीस पर नहीं। उनका तर्क है कि हदीस अल्ला या रसूल ने नहीं लिखी। हदीस रसूल के अनुयायियों ने लिखी। इन अनुयायियों पर जमीदा को यकीन नहीं।

महिला जमीदा की ओर से नमाज पढ़ाने की खबरें सुनकर एक मुस्लिम संगठन के नेता ने कहा कि जमीदा बीबी ने जो किया वह नाटक के अलावा कुछ नहीं है। जमीदा के खिलाफ फतवा जारी किया गया, लेकिन उन्होंने साफ कहा कि वह इमाम का कार्य करेंगी। उन्हें फतवा की परवाह नहीं है और जरूरी हुआ तो पुलिस से सुरक्षा लेंगी। जमीदा ने पूछा कि अगर महिलाओं के अधिकार वाले नियमों में बदलाव नहीं होगा तो देश कैसे आगे बढ़ेगा? जमीदा जैसी साहसी महिलाएं बांग्लादेश अथवा अन्य मुस्लिम देशों में क्यों नहीं हैं? कई अन्य मुस्लिम देशों में महिलाएं मस्जिद में जाकर नमाज अदा करती हैं, लेकिन भारतीय उपमहादेश में महिलाओं के कदम-कदम पर बेड़ियां डाली गई हैं। किसी-किसी मस्जिद में पुरुषों के नमाज पढ़ने के स्थान के पास दीवार घेरकर महिलाओं के लिए स्थान बनाए गए हैं। वहां महिलाएं नमाज पढ़ती हैं, लेकिन अधिकांश मस्जिदों में बड़े-बड़े अक्षरों में नोटिस चस्पा है कि महिलाओं का प्रवेश निषेध है। आदिकाल में बर्बरता के समय भी महिलाएं मस्जिद में जाकर नमाज पढ़ती थीं, लेकिन तब भी घर में नमाज पढ़ने को अच्छा माना जाता था। कहा जाता है कि जमात में यानी जब कई लोग एक साथ नमाज पढ़ते हैं तो उसका सवाब अधिक मिलता है। आखिर महिलाओं को जमात का सवाब क्यों नहीं लेने दिया जाता?

महिलाएं घर का चौखट नहीं लांघ सकतीं:

अगर महिलाएं मस्जिद में जाती हैं तो इस्लाम के कानून के मुताबिक कौन सा नियम टूटता है? किसी को यह अधिकार नहीं कि महिलाओं को मस्जिद में जाने से रोके। सभी मस्जिदों में महिलाओं को नमाज पढ़ने दी जाए। दरअसल जो सबसे अधिक जरूरी है वह है इस्लाम में बदलाव। वक्त के साथ हर चीज में बदलाव होता है। किसी हदीस में लिखा है कि महिलाएं शिक्षा के लिए सुदूर चीन देश भी जा सकती हैं। किसी में लिखा है खबरदार, महिलाएं घर का चौखट नहीं लांघ सकतीं। इन दो तरह की बातों से लोगों में संशय पैदा होता है इसलिए जरूरी है कि इस्लाम उदार बने ताकि वह आधुनिकता को अपना सके। मोबाइल फोन, टीवी, कंप्यूटर, इंटरनेट, फेसबुक के इस्तेमाल की बातें भी तो कुरान या हदीस में नहीं लिखी हैं, लेकिन मुसलमान इन चीजों का खूब इस्तेमाल करते हैं।

क्या कुरान या हदीस में यह लिखा है कि अन्य धर्म मानने वालों के साथ दोस्ती न करें:

क्या कुरान या हदीस में यह लिखा है कि अन्य धर्म मानने वालों के साथ दोस्ती न करें? क्या मुसलमानों के लिए अन्य धर्म वालों के वैज्ञानिक आविष्कारों को छोड़कर जीवन-यापन करना संभव है? क्या इन्हें ठुकराने के बाद मुसलमानों को आदिकाल में नहीं लौटना होगा? अन्य धर्मावलंबियों से शत्रुता न कर उनसे दोस्ती करना, आधुनिक होना एक छोटा सा प्रयास है। यदि केरल के गांव की एक महिला इमाम का कार्य कर सकती है तो मुस्लिम समाज की अन्य महिलाएं भी आगे क्यों नहीं आ सकतीं? इस्लाम समानता की बात करता है, यह सुन-सुनकर मेरे कान पक चुके हैं। मैं सच में यह देखना चाहती हूं कि इस्लाम समानता की बातें करता है। सातवीं सदी के इस्लाम को 21वीं सदी के इस्लाम में बदलना होगा। जो इस्लाम महिलाओं के मस्जिद में नमाज पढ़ने और उनके इमाम बनने में बाधा नहीं डालेगा, हम सभी उसी इस्लाम पर गर्व करेंगे।

(तसलीमा नसरीन, सौजन्य – दैनिक जागरण।)

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