WHO के अनुसार उपेक्षित उष्णकटिबंधीय बीमारियाँ (एनटीडीएस - NTDs), वे बीमारियाँ होती हैं, जो उष्ण व उपोष्ण कटिबंध में स्थित ग्रामीण क्षेत्रों तथा शहरी क्षेत्रों की मलिन बस्तियों में निवास करने वाले गरीब लोगों को प्रभावित करती हैं। जापानी इंसेफलाइटिस, डेंगू बुखार, कुष्ठ रोग, क्लेमाइडिया, बुरुलाई अल्सर, चैगास, परजीवी कीड़े की वजह से होने वाली बीमारी ‘शिस्टोसोमासिस’ आदि एनटीडीएस - NTDs के उदाहरण हैं। राष्ट्रीय व क्षेत्रीय स्तर पर इन बीमारियों का प्रभाव इतना भयंकर होता है कि इन्हें गरीबी के चिरस्थायीकरण के लिये उत्तरदायी माना जाता है।
एक अनुमान के मुताबिक दुनिया के छह लोगों में से एक एनटीडीएस - NTDs से पीड़ित है, जिनमें से 50 करोड़ से ज्यादा बच्चे हैं। एनटीडी से बच्चे स्कूल से बाहर हो जाते हैं। माता-पिता काम से बाहर हो जाते हैं। आर्थिक भविष्य अंधकार में डूब जाता है। उम्मीदें टूट जाती हैं और गरीबी का चक्र चिरस्थायी हो जाता है।
10 करोड़ से अधिक एनटीडीएस के लिए इलाज और देखभाल की जरूरत वाले लोगों की सबसे बड़ी संख्या भारत, इंडोनेशिया और नाइजीरिया में हैं। इन देशों में करीब 47 फीसदी ऐसी बीमारी के मामले पाए गए हैं।
एनटीडीएस पर विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) की चौथी रिपोर्ट के मुताबिक भारत ने 82 फीसदी उप-जिलों में ‘कालाजार’ को समाप्त करने का लक्ष्य हासिल कर लिया है। कालाजार एक नेग्लेक्टड ट्रापिकल डिजिज(एनटीडी) या उपेक्षित उष्णकटिबंधीय रोग के रूप में जाना जाता है।
भारत द्वारा एक और महत्वपूर्ण उपलब्धि, एक अन्य बिमारी ‘यॉज’ का खात्मा है। यह त्वचा से जुड़ी एक पुरानी बीमारी है। वर्ष 2015 में गरीब बच्चे इससे ज्यादा प्रभावित हुए हैं। डब्ल्यूएचओ ने भारत को इस महत्वपूर्ण लक्ष्य को हासिल करने के लिए प्रथम सदस्य राज्य के रूप में मान्यता दी है।
भारत ने हाथी रोग या फाइलेरिया के इलाज में भी प्रगति हासिल की है । भारत ने वर्ष 2017 के अंत में ‘लिशमानियासिस’ और ‘लसीका फिलारियासिस’ जैसी बीमारियों को खत्म करने का लक्ष्य रखा है।
Government has prepared an action plan to eliminate;
Kala-Azar and Filariasis by 2017
Leprosy by 2018
Measles by 2020
Tuberculosis by 2025
भारत सहित डब्ल्यूएचओ दक्षिण-पूर्व एशियाई क्षेत्र के देशों ने वर्ष 2020 तक उपेक्षित उष्णकटिबंधीय बीमारियों (एनटीडीएस - NTDs) जैसे कि कुष्ठ रोग, लिम्फेटिक फिलारिसिस और काला-अजार को समूल नष्ट करने का निर्णय लिया है।
उपेक्षित उष्णकटिबंधीय बीमारियों (Neglected Tropical Disease) में प्रमुख हैं;
1. फाइलेरिया (Lymphatic Filariasis):
फाइलेरिया (Lymphatic Filariasis) एक परजीवीजन्य संक्रामक बीमारी है जो धागे जैसे कृमियों से होती है। वैश्विक स्तर पर इसे एक उपेक्षित उष्णकटिबंधीय बीमारी (Neglected Tropical Disease) माना जाता है। फाइलेरिया दुनिया भर के उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय देशों में एक गंभीर स्वास्थ्य समस्या है। जिसमें भारत भी शामिल है।
हाथीपांव (Elephantiasis) फाइलेरिया का सबसे सामान्य लक्षण है जिसमें शोफ (Oedema) के साथ चमड़ी तथा उसके नीचे के ऊतक मोटे हो जाते हैं।
फाइलेरिया के कौन से कारक जीव हैं?
फाइलेरिया, फाइलेरियोडिडिया (Filariodidea) कुल के नेमैटोडों (गोलकृमि) के संक्रमण से होता है। तीन प्रकार के कृमि इस बीमारी को जन्म देते हैं। ये हैं वुचिरेरिया बैंक्राफ्टाई (Wuchereria bancrofti), ब्रुजिया मलाई (Brugia malayi) और ब्रुजिया टिमोरीई (Brugia timori)।
वुचिरेरिया बैंक्राफ्टाई इस बीमारी का सबसे सामान्य कारक है जो पूरे विश्व में पाया जाता है। ब्रुजिया मलाई दक्षिण-पश्चिम भारत, चीन, इंडोनेशिया, मलेशिया, दक्षिण कोरिया, फिलिपींस और वियतनाम में पाया जाता है जबकि ब्रुजिया टिमोराई सिर्फ इंडोनेशिया तक ही सीमित है। वुचिरेरिया बैंक्राफ्टाई में नर कृमि 40 मिलीमीटर लंबा होता है जबकि मादा की लंबाई लगभग 50-100 मिलीमीटर होती है।
कैसे फैलता है फाइलेरिया?
फाइलेरिया मच्छरों से फैलता है जो परजीवी कृमियों के लिए रोगवाहक का काम करते हैं। इस परजीवी के लिए मनुष्य मुख्य पोषक है जबकि मच्छर इसके वाहक और मध्यस्थ पोषक हैं। परजीवियों को चार मुख्य प्रकार के मच्छरों द्वारा प्रेषित किया जाता है: क्यूलेक्स, मैनसोनिया, एनोफेलीज और एडीज।
2. जापानी इंसेफलाइटिस:
जापानी मस्तिष्क ज्वर (इंसेफलाइटिस) एक प्राणघातक संक्रामक बीमारी है, जो फ्लैविवायरस के संक्रमण से होती है। सूअर तथा जंगली पक्षी मस्तिष्क ज्वर के विषाणु के स्रोत होते हैं। क्यूलेक्स मच्छर इस बीमारी का वाहक होता है।
जापानी इंसेफलाइटिस से प्रभावित क्षेत्रों में भारत के उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड, ओडिसा, पश्चिम-बंगाल, असम, मेघालय, मणिपुर, त्रिपुरा तथा आंध्र प्रदेश राज्य आते हैं। वर्तमान में पूर्वी उत्तर प्रदेश में यह बीमारी एक गंभीर स्वास्थ्य समस्या बनी हुई है।
पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोरखपुर तथा कुशीनगर ज़िले इस बीमारी से सर्वाधिक प्रभावित क्षेत्र हैं। इस बीमारी का प्रकोप जुलाई से नवम्बर माह के अंत तक जारी रहता है। वयस्कों की तुलना में बच्चे इस बीमारी के ज़्यादा शिकार होते हैं।
इस बीमारी के वाहक क्यूलेक्स मच्छर आमतौर पर स्थिर जलाशयों, जैसे- पोखर, तालाब, धान के खेतों में प्रजनन करते हैं।
हरित क्रांति के फलस्वरूप सिंचाई-सुविधाओं के विस्तार, धान की फसल के क्षेत्रफल में वृद्धि तथा सिंचाई जल के कुप्रबंधन के कारण होने वाले जल-जमाव और जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ती उष्णता इस बीमारी के पूर्वी उत्तर प्रदेश में प्रकोप के कारण हैं।
इन इलाकों की मानव बस्तियों में होने वाले सूअर-पालन की भी इस बीमारी के विकास और संचार में भूमिका होती है। इन क्षेत्रों में झीलों व दलदली भूमि की बाहुल्यता इसके विषाणुओं से ग्रस्त प्रवासी पक्षियों के आश्रय स्थलों का काम करती हैं।
जापानी इंसेफलाइटिस पर नियंत्रण हेतु सुझाव-
इस बीमारी के प्रकोप वाले क्षेत्रों में शत-प्रतिशत टीकाकरण सुनिश्चित किया जाए।
मच्छरों के लार्वा का भक्षण करने वाली इटली से आयातित “गैम्बूसिया एफिनिस” प्रजाति की मछली को झीलों, तालाबों, नहरों, धान के खेतों में वृहद् पैमाने पर छोड़ना चाहिये।
“पिस्टिया लैंसीओलेटा व साल्विनिया मोलेस्टा” नामक जलीय पौधों की प्रजातियाँ, जो क्यूलेक्स मच्छरों के प्रजनन में सहायक होती हैं, को वर्षा ऋतु के दौरान जलाशयों से निकालकर नष्ट कर देना चाहिये।
सूअर पालन मानव बस्तियों से दूर किया जाए तथा इन बस्तियों में स्वच्छता का विशेष ध्यान रखा जाए।
मानव बस्तियों के आसपास जल-जमाव को हर हाल में रोका जाना चाहिये। खेतों में सिंचाई के दौरान जल प्रबंधन व नहरों की गाद की सफाई से जल-जमाव की स्थिति को रोका जा सकता है।
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