दो मुद्दे ऐसे हैं जो मोदी सरकार के लिए मुश्किल पैदा कर सकते हैं। ये हैं किसानों की खराब हालत और बेरोजगारी। भारत में खेती-किसानी की पिछले 70 सालों से उपेक्षा हुई है। इसके बावजूद कि यह सबसे ज्यादा रोजगार देने वाला क्षेत्र है। खेती के बारे में सरकारों की सोच न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से आगे नहीं जाती। केंद्र में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार बनने के बाद से किसानों की हालत सुधारने के कई उपाय किए गए हैं। नीम कोटेड यूरिया, अच्छे किस्म के बीजों की उपलब्धता और मृदा स्वास्थ्य कार्ड (स्वायल हेल्थ कार्ड) जैसे उपायों से फसल की लागत कम करने और पैदावार बढ़ाने में मदद मिली है, लेकिन कृषि क्षेत्र की दो विकट समस्याएं हैं। एक, जब पैदावार भरपूर हो तो दाम गिर जाते हैं। ऐसे समय न्यूनतम समर्थन मूल्य का कोई अर्थ नहीं रह जाता। सरकारी खरीद के प्रयास भी उस समय किसानों के काम नहीं आते। दूसरी समस्या ज्यादा बड़ी है और वह यह समझना है कि कृषि पैदावार का सही मूल्य न मिलना ही ग्रामीण भारत की सबसे बड़ी समस्या है।
किसान की असली समस्या है खेती के अलावा किसी अतिरिक्त आमदनी का जरिया न होना। खेती में कुछ आधुनिक उपकरण आने के साथ ही तमाम किसानों ने अपनी परंपरागत चीजें छोड़ दीं। इनमें सबसे प्रमुख है पशुपालन। ट्रैक्टर आया तो बैल चले गए। बैल गए तो गाय, भैंस, बकरी और दूसरे जानवर चले गए, क्योंकि चरागाह खेत बन गए। ट्रैक्टर और रासायनिक खाद आई तो अपने साथ कर्ज की नई ग्रामीण अर्थव्यवस्था लाई। ट्रैक्टर किसान की जरूरत से ज्यादा प्रतिष्ठा की वस्तु बन गया। जिसके पास बमुश्किल दो एकड़ खेत था, वह भी ट्रैक्टर मालिक बन गया। खेत गिरवी रखकर कर्ज लेने का चलन शुरू हुआ। इसका नतीजा यह हुआ कि किसानों की अब सबसे बड़ी मांग कर्ज माफी बन गई है। आखिर यह सिलसिला कब तक चल सकता है? कर्ज माफी किसान और ऐसा करने वाली सरकारों, दोनों के लिए नुकसानदेह है। इससे बैंकिंग व्यवस्था को होने वाले नुकसान का मसला तो अलग ही है।
मोदी सरकार के सामने ग्रामीण व्यथा को दूर करना, देश की अर्थव्यवस्था ही नहीं राजनीतिक नजरिए से भी सबसे बड़ी चुनौती है। हाल में हुए गुजरात विधानसभा के चुनाव ने इस समस्या को फिर से राष्ट्रीय विमर्श में ला दिया है। ग्रामीण भारत की समस्या का हल गुजरात चुनाव के नतीजों में छिपा है। सौराष्ट्र में कपास और मूंगफली की बंपर पैदावार हुई। यही किसानों के लिए आफत बन गई। एमएसपी पर राज्य सरकार ने बोनस भी दिया, लेकिन जब बाजार में दाम एमएसपी से नीचे हों तो एमएसपी कितनी भी हो, उसका कोई महत्व नहीं रह जाता। सौराष्ट्र में ये दोनों फसलें किसानों के पूरे साल का खर्च चलाती हैं। इनमें गड़बड़ मतलब पूरे साल का आर्थिक संकट। सौराष्ट्र से बाहर गुजरात के बाकी और खासकर उन ग्रामीण इलाकों को देखें, जहां किसान खेती के अलावा दूध और सब्जी उत्पादन से जुड़ा है। सब्जी की खेती करने वाले साल में तीन फसल लेते हैं। एक फसल में घाटा हो जाए तो बाकी दो में भरपाई हो जाती है। सौराष्ट्र के किसानों ने राज्य सरकार से नाराजगी दिखाई और भाजपा के खिलाफ वोट दिया। वहीं गुजरात के बाकी क्षेत्रों के किसानों में राज्य सरकार के प्रति नाराजगी नहीं दिखी। यह बात पूरे देश पर समान रूप से लागू होती है कि खेती से होने वाली आमदनी लगातार घट रही है, लेकिन उसका निदान सिर्फ एमएसपी बढ़ाने और कर्ज माफी से नहीं होने वाला। जरूरत किसानों के लिए खेती के अलावा आय के अन्य साधन उपलब्ध कराने की है। कोल्ड चेन, नए गोदामों के निर्माण और फूड प्रोसेसिंग के जरिए किसानों की आय बढ़ सकती है, लेकिन ये खर्चीले और समय लेने वाले उपाय हैं। इसलिए इनके साथ-साथ पशुपालन और कुटीर उद्योग को फौरी तौर पर शुरू किया जा सकता है। मोदी सरकार को चाहिए कि वह उद्योगों से कहे कि वे सीएसआर (कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसबिलिटी) के जरिए रेवड़ी बांटने के बजाय अपने लाभ का एक हिस्सा ग्रामीण इलाकों में पशुपालन और कुटीर उद्योग लगाने में निवेश करें। इससे उन्हें लाभ भी होगा, इसलिए वे रुचि भी दिखाएंगे।
बेरोजगारी किसी भी देश के लिए बड़ी समस्या है। भारत के लिए यह और बड़ी समस्या है। देश की एक तिहाई आबादी 35 साल या उससे कम उम्र वालों की है। संगठित क्षेत्र में रोजगार के अवसर घटे हैं और जिस तरह से उद्योगों में ऑटोमेशन बढ़ रहा है, उससे आने वाले दिनों में और कम लोगों को रोजगार मिलेगा। विनिर्माण क्षेत्र सबसे ज्यादा रोजगार दे सकता है, लेकिन निजी निवेश न होने के कारण इस क्षेत्र का विकास बहुत धीमा है या ठहरा हुआ है। मोदी सरकार ने इस मोर्चे पर अब तक कई अवसर गंवाए हैं। कौशल विकास ऐसा क्षेत्र है, जिसमें पिछले साढ़े तीन साल में अपेक्षित विकास नहीं हो पाया है। यही वजह है कि राजीव प्रताप रूडी को हटाकर इस विभाग की जिम्मेदारी धर्मेंद्र प्रधान को दी गई। उज्ज्वला योजना को शानदार तरीके से लागू करके उन्होंने अपनी क्षमता का परिचय दिया है। उनसे अपेक्षा है कि वह इस मोर्चे पर भी कुछ करेंगे, पर उनके पास समय बहुत कम है।
रोजगार के मोर्चे पर केंद्र सरकार की एक नाकामी यह भी रही है कि वह विभिन्न् विभागों के खाली पदों को नहीं भर पाई है। पिछले कुछ दिनों में रेल मंत्री पीयूष गोयल दो बार बोल चुके हैं कि रेलवे में एक लाख साठ हजार पद खाली हैं। सवाल है कि उनके पूर्ववर्तियों ने इन पदों पर भर्ती क्यों नहीं की? भाजपा या उसके सहयोगी दल डेढ़ दर्जन राज्यों में सत्ता में हैं, पर पुलिस में बड़ी संख्या में खाली पदों को भरने का कोई बड़ा प्रयास नहीं हुआ। इसके अलावा केंद्र और राज्य के विभिन्न् उपक्रमों में खाली पद एक तरह से बेरोजगारों को चिढ़ा रहे हैं। सरकार के पास अब भी समय है, वह युद्धस्तर पर खाली जगहों को भरे। इससे देश में एक सकारात्मक माहौल भी बनेगा। मोदी और अमित शाह के लिए एक अच्छी बात यह है कि राष्ट्रीय स्तर पर अभी उनके लिए कोई बड़ी राजनीतिक चुनौती नहीं है। राहुल गांधी का नया अवतार गुजरात में कांग्रेस को सत्ता नहीं दिला सका। अब देखना है कि वह कर्नाटक में सत्ता बचा सकता है या नहीं?
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