Saturday 13 January 2018

स्वामी विवेकानंद का भारत

उठो, जागो और तब तक मत रुको जब तक कि लक्ष्य पूरा न हो जाए।’ उपनिषदों से निकले इस श्लोक को स्वामी विवेकानंद ने बहुत लोकप्रिय बनाया। सभी भारतीयों और विशेषकर युवाओं के लिए यह प्रेरणा का महामंत्र होना चाहिए जिन्हें शिक्षा और समर्पण के जरिये नए भारत का निर्माण करना है। भारत के लिए शायद इससे बेहतर अवसर कभी नहीं रहा कि वह अपनी वास्तविक क्षमताओं को पहचान सके जिसकी 65 फीसद से अधिक आबादी युवाओं की है।

आइटी शक्ति के रूप में स्थापित:
भारत पहले ही दुनिया की प्रमुख आइटी शक्ति के रूप में स्थापित हो चुका है जहां जीडीपी में सेवा क्षेत्र का भारी- भरकम योगदान है। हालांकि भारत के चतुर्दिक एवं सर्वांगीण विकास के लिए आवश्यक है कि विनिर्माण, कृषि, ऊर्जा और बुनियादी ढांचे का भी समुचित विकास हो ताकि देश दस से पंद्रह वर्षों की अनुमानित अवधि से पहले ही दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन सके।

भारत की होगी 21वीं सदी:
मिशिगन विश्वविद्यालय में पत्रकारों के समूह से स्वामी विवेकानंद ने कहा था, ‘फिलहाल यह आपकी सदी है, लेकिन 21वीं सदी भारत की होगी।’ शंकालु और निराशावादी अभी भी इस बात पर संदेह कर सकते हैं कि क्या भारत सभी वर्जनाओं को धता बताते हुए दुनिया की प्रमुख अर्थव्यवस्था बन पाएगा, लेकिन वृद्धि के हालिया रुझानों से उम्मीद की तमाम किरणें नजर आती हैं। विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और तमाम अन्य वैश्विक एजेंसियों का मानना है कि भारत विकास की सही दिशा में अग्रसर है। हालांकि हमें कुछ बाधाओं और चुनौतियों पर भी गौर करना होगा। तमाम तरह की विचारधाराओं में उभरते पूर्वाग्रहों से निपटना होगा।

अवरोधों को करना होगा दूर:
नए भारत की बुनियाद को मजबूत बनाने के लिए सामाजिक सौहार्द, शांतिपूर्ण समावेशन के साथ ही समाज में समानता की राह में आने वाले अवरोधों को दूर करना होगा। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था कि भारत की आत्मा उसके गांवों में बसती है। ऐसे में जब तक गांवों में रहने वालों का विकास नहीं होगा तब तक देश की सही मायनों में तरक्की नहीं हो सकती। ऐसे में विकास की होड़ में पिछड़ गए लोगों के उत्थान को ध्यान में रखकर आगे बढ़ने की जरूरत है जिसमें गांवों के सर्वांगीण विकास का लक्ष्य तय किया जाए, साथ ही खेतीकिसानी को आकर्षक पेशा बनाकर किसानों की आमदनी भी दोगुनी करनी होगी। खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करते हुए किसानों के कल्याण को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी होगी।

आत्मविश्लेषण करने की आवश्यकता:
हाल के दौर में यह देखने को मिला है कि देश की वृद्धि और विकास से जुड़े वास्तविक और सार्थक मुद्दों के बजाय निरर्थक मसलों ने सार्वजनिक विमर्श में अपनी जगह बनाई। मुझे लगता है कि संवाद के दो सबसे सशक्त माध्यमों मीडिया और सिनेमा को इस परिप्रेक्ष्य में गंभीर आत्मविश्लेषण करने की आवश्यकता है। हमें सकारात्मक बदलाव के वाहकों की दरकार है। हमें ऐसे लोगों की जरूरत है जो तार्किकता, निष्पक्षता, आशा, साहस और शांति के पक्ष में आवाज बुलंद कर सकें। हमारे जैसे संसदीय लोकतंत्र वाले देश में विकास की कहानी को मूर्त रूप देने में जनप्रतिनिधियों की अहम भूमिका है। उन्हें दूसरों के लिए आदर्श बनना चाहिए।

मुझे अपने धर्म पर गर्व:
स्वामी विवेकानंद ने 1893 में विश्व धर्म संसद में ऐतिहासिक व्याख्यान में कहा था, ‘मुझे अपने धर्म पर गर्व है जिसने दुनिया को सहिष्णुता और सार्वभौमिक स्वीकार्यता की शिक्षा दी। हम न केवल सार्वभौमिक सहिष्णुता में विश्वास करते हैं, बल्कि सभी धर्मों को मूल रूप में स्वीकार करते हैं। मुझे अपने देश पर भी गर्व है जिसने सभी धर्मों और सभी देशों के लोगों को शरण दी।’

…तो अधिक विकसित होता मानव समाज
उन्होंने यह भी कहा था कि यह खूबसूरत धरती लंबे समय से तमाम खांचों में बंटे समाज, धर्मांधता और उसके खतरनाक प्रभावों से बदसूरत होती जा रही है। इसकी वजह से हिंसा बढ़ी और कई बार खूनखराबे तक की नौबत आई जिसने इंसानी सभ्यता को नष्ट किया जिसकी चपेट में सभी देश आ गए। अगर यह दानव नहीं होता तो आज मानव समाज कहीं अधिक विकसित होता।’धार्मिक एकता की साझा जमीन के संदर्भ में उन्होंने कहा था कि किसी एक धर्म द्वारा दूसरे धर्म पर जीत हासिल करने के बाद शांति और एकता की उम्मीद बेमानी है। उनसे मैं यही कहूंगा कि ‘बंधु, आप एक असंभव उम्मीद पाले हुए हैं।’

विवेकानंद के भाषण का उल्लेख:
सभी धर्मों के लोगों के बीच शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के लिए धार्मिक सहिष्णुता की महत्ता का संदेश देने के लिए ही मैंने विश्व धर्म संसद में स्वामी विवेकानंद के भाषण का उल्लेख किया। समस्या तब उत्पन्न होती है जब अज्ञानी और उन्मादी धर्मांध दूसरों पर अपनी राय थोपते हुए अपने मत को ही सर्वोपरि बनाने पर आमादा होते हैं। वे चाहे किसी भी धर्म के हों, इस तरह का व्यवहार स्वीकार नहीं किया जा सकता और न ही किया जाना चाहिए। सभी पक्षों विशेषकर राजनीतिक दलों द्वारा जातिगत दीवारें ध्वस्त किए जाने के प्रयासों की जरूरत है। चुनावी राजनीति में धन-बल, जाति और समुदाय की लेशमात्र भी भूमिका न हो और लोग प्रत्याशियों के चरित्र, क्षमताओं और आचार-व्यवहार के आधार पर ही जनप्रतिनिधियों का चुनाव करें।

युवाओं की बड़ी आबादी:
मैं महसूस करता हूं कि आज भारत की भांति दुनिया का कोई और देश नहीं है जो युवाओं की इतनी बड़ी आबादी के साथ तरक्की की तेज राह पर अग्रसर है। स्वामी विवेकानंद ने व्यक्ति एवं चरित्र निर्माण मिशन का उल्लेख करते हुए कहा था, ‘व्यक्ति निर्माण ही मेरे जीवन का लक्ष्य है। मैं न तो कोई नेता हूं और न ही समाज सुधारक। मेरा काम ही व्यक्ति और चरित्र निर्माण का है। मुझे केवल आत्मा की फिक्र है और जब वह सही होगी तो सब कुछ स्वत: ही सही हो जाएगा।’ स्वामी विवेकानंद चाहते थे कि शिक्षा का उद्देश्य ही जीवन निर्माण, व्यक्ति निर्माण और चरित्र निर्माण होना चाहिए। हमें ऐसे ज्ञानी, कुशल और सही दृष्टिकोण वाले महिलाओं- पुरुषों की जरूरत है जो सामाजिक कायाकल्प को रफ्तार दे सकें।

मानवता के उत्थान में विश्वास:
स्वामी विवेकानंद जाति और नस्ल से परे मानवता के उत्थान में विश्वास रखते थे। मानवता की प्रगति और अस्तित्व के लिए उन्होंने अध्यात्म की अहमियत पर बल दिया। वह सिद्ध आध्यात्मिक उपदेशक थे जिन्होंने पश्चिमी दुनिया का योग और वेदांत से साक्षात्कार कराया। विश्व धर्म संसद में अपने ऐतिहासिक भाषण से उन्होंने हिंदुत्व और उसके जीवन दर्शन के सही स्वरूप से पूरे विश्व का परिचय कराया। विवेकानंद पश्चिम और पूरब के बीच एक सेतु की भांति रहे जिन्होंने मानवता की आध्यात्मिक आधारशिला को सशक्त बनाने में अतुलनीय योगदान दिया। युवा पीढ़ी को उनके आदर्शों का अनुसरण करना चाहिए।

महान राष्ट्र निर्माता थे स्वामी विवेकानंद:
स्वामी विवेकानंद एक महान राष्ट्र निर्माता थे। देश की प्रगति में अवरोध पैदा करने वाले कुछ शरारती तत्वों द्वारा कुत्सित प्रयासों के दौर में उनकी शिक्षाएं कहीं अधिक समीचीन हैं। भारतीय हमेशा से ही ‘सर्व धर्म समभाव’ में विश्वास करने वाले और सदैव शांति एवं सौहार्द की कामना करने वाले रहे हैं। शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व ही हमारा मूल मंत्र रहा है। ऐसे में हमें अपनी समृद्ध सभ्यता की विशेषताओं का स्मरण कर उसे पुनर्जीवित करना चाहिए।

लेखक
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एम वेंकैया नायडू,
उप-राष्ट्रपति, भारत।

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मैं विवेकानंद को महज एक आध्यात्मिक शख्सियत नहीं मानता। वह एक क्रांतिकारी और युगदृष्टा थे। बेशक वेदांत के ज्ञान से वह खुद प्रकाशित हुए और दूसरों को प्रकाशित करना चाहते थे, मगर समाज को लेकर उनकी सोच उन्हें खास बनाती है। उन्होंने सामाजिक सरोकार के कई काम किए। जैसे, कलकत्ता (अब कोलकाता) के लाल बाजार में लड़कियों के लिए पहला विद्यालय खुलवाना। वह शिक्षिका के तौर पर आयरलैंड से निवेदिता को लेकर आए, ताकि बच्चियों को अंतरराष्ट्रीय स्तर की शिक्षा मिले। यह कितना क्रांतिकारी कदम था, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उन्होंने लड़कियों की शिक्षा की बात तब की थी, जब हमारा समाज बिल्कुल अनपढ़ था।

इसी तरह, स्वामी विवेकानंद ने उस वर्ग के उत्थान के लिए भी भरसक प्रयास किए, जिसे हम आज दलित या शोषित कहते हैं। उन्होंने ही पहली बार इन लोगों को दरिद्र नारायण कहा। उनका मानना था कि नारायण की सेवा बाद में, पहले दरिद्र नारायण की सेवा। जैसे आजकल लंगर खिलाया जाता है, ठीक वैसे ही उन्होंने बंगाल में दरिद्र नारायण भोज की परंपरा शुरू की थी। विवेकानंद ने आध्यात्मिक चेतना को सामाजिक चेतना के साथ जोड़ा। रामकृष्ण मिशन की शुरुआत भी उनकी इसी सामाजिक चेतना का हिस्सा है। पहली बार भारत में कोई आध्यात्मिक केंद्र मिशन यानी सेवा की तरह काम कर रहा था। एक जगह उन्होंने कहा भी है कि किसी संन्यासी से ज्यादा बड़ा संन्यासी एक गृहस्थ होता है, जो परिवार का भी ध्यान रखता है और समाज का भी। वह यह भी कहते थे कि आंखें मूंदकर मुझ पर विश्वास न करो; जब तक स्वयं अनुभूति न हो, तब तक नास्तिक बने रहो। वह मानव-उत्थान से जुड़े तमाम प्रश्नों का तार्किक जवाब देते दिखते हैं।

स्वामी विवेकानंद को याद करने की एक बड़ी वजह यह भी है कि भारत की परिकल्पना जो हमारे मन में थी, उन्होंने उसकी आकृति साफ-साफ बताई। विवेकानंद वह शख्स थे, जिन्होंने देश के तमाम हिस्सों की यात्राएं करके भारत का सांस्कृतिक मानचित्र चिह्नित किया। उन्होंने कश्मीर से कन्याकुमारी और पूर्वोत्तर तक को अपने कदमों से नापा। इतना ही नहीं, भारत देश को माता मानने वाले भी वही पहले शख्स थे। भारत के अनेक ऋषि-मुनियों ने हिमालय पर तपस्या की है। यानी अगर भारत को मां के रूप में देखें, तो उन्होंने मां के सिर पर बैठकर साधना की। मगर विवेकानंद चरणों में यानी कन्याकुमारी में बैठकर अपनी तपस्या करते दिखते हैं।

विवेकानंद उस समय एक पूरे युग को देख रहे थे। उनके शब्द हैं कि वह हर भारतीय को एक पूर्ण और शक्तिशाली मनुष्य के रूप में देखना चाहते हैं। जिस किसी विधा में भारतीय जाएं, उसमें वे सबसे आगे रहें। वह भारत को युवाओं का देश मानते थे। वह नारी शक्ति को आगे बढ़ाना चाहते थे। आज जब ये तमाम चीजें साकार हो रही हैं, तो स्वामी जी का दर्शन और उनकी सोच व दृष्टि के अनुकूल समाज को ढालने का प्रयास और तेज किया जाना चाहिए। हमें यह मानना पड़ेगा कि यही एक संन्यासी था, जो अनवरत बिना थके काम करता रहा। उन्होंने किसी का भी धर्मांतरण नहीं किया। वह इसके खिलाफ थे। उनकी नजर में हम सभी एक ही शक्ति को अलग-अलग नामों से बुलाते हैं, इसलिए धर्मांतरण की कोई जरूरत नहीं। सभी अपने-अपने धर्म में रहकर भी वेदांत की पद्धति से उपासना कर सकते हैं। उन्होंने वेदांत का जो अर्थ बताया, वह भी अद्भुत है। वेदांत यानी जो मैं हूं, वही तुम भी हो। जो आत्मा मेरे अंदर है, वही तुम्हारे अंदर भी है, और हर आत्मा में परमात्मा का निवास है। हर व्यक्ति परमात्मा का मंदिर है। विश्व एक परिवार है। सभी को सम्मान देना है। क्या इस सोच की जरूरत आज हमें नहीं है?

मृत्यु से ठीक पहले स्वामी विवेकानंद ने एक बात कही थी। अगर भारत सामाजिक और राजनीतिक संघर्ष में लिप्त रहेगा, तो विनाश को प्राप्त होगा। और अगर यह अपने ईश्वर की खोज में लगा रहेगा, तो अमर रहेगा। इसका सीधा अर्थ है कि हर व्यक्ति अपने अंदर के ईश्वर को देखे। जब आप अपने अंदर परमपिता को देखने लगते हैं, तो हर तरह की बुराइयों से ऊपर उठ जाते हैं। उनकी नजर में ऐसा करना इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि तभी समाज का उत्थान होगा। वह मानते थे कि समाज का एक हिस्सा अगर कमजोर है, तो यह ठीक वैसे ही है, जैसे किसी मानव के एक अंग का कमजोर होना। समाज के सर्वांगीण विकास की बात स्वामी विवेकानंद किया करते थे। इसीलिए वह चीजों को अलग-अलग करके नहीं देखते थे। मगर आज हालात अलग हैं। आज हर कोई अपने-अपने हिस्से की बात करता है। किसी ने हाथी की पूंछ पकड़ रखी है, तो किसी ने पांव, तो किसी ने सूंड़। मगर सबको लगता है कि उसी का हिस्सा सत्य है। हमें समझना होगा कि समाज को एक इकाई मानने पर ही सभी समस्याओं का अंत संभव है।


स्वामी विवेकानंद की चर्चा होते ही विश्वधर्म सम्मेलन में कही गई उनकी बातें याद आती हैं। वे बातें आज भी अनुकरणीय हैं। 11 सितंबर, 1893 को बुलाई गई उस सम्मेलन में स्वामी जी ने कहा था, असहिष्णुता नाम के राक्षस को ताबूत में हमेशा के लिए दफ्न करना होगा। यह किसी भी समस्या का हल नहीं है। आज हम देख सकते हैं कि असहिष्णुता किस कदर हमारे समाज को खोखला कर रही है।

ऐसे में, भला स्वामी जी की बातों को हम क्यों न अपनाएं? क्यों न समाज का हर व्यक्ति पढ़ा-लिखा हो? क्यों न हम स्वस्थ रहें? क्यों न दूसरों के लिए काम करें? आज भी देश में एक बड़ा हिस्सा ऐसा है, जहां शिक्षा का उचित प्रकाश नहीं फैल सका है। आज अगर स्वामी विवेकानंद होते, तो इस सामाजिक बुराई को दूर करने के लिए लोगों को खूब प्रोत्साहित करते। वह कहा करते थे कि मुझे 100 ईमानदार और चरित्रवान व्यक्ति दे दो, मैं पूरे संसार में क्रांति ला दूंगा। वह एक-एक व्यक्ति की ताकत में विश्वास करते थे। इसीलिए आज उनकी जयंती के उपलक्ष्य में क्यों न हम उनके प्रति अपनी अद्भुत श्रद्धा दिखाएं? हम उनके दर्शन को अपने जीवन में अगर उतार लें, तो सपनों का भारत साकार हो सकता है।

– शेखर सेन, अध्यक्ष, संगीत नाटक अकादेमी


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January 12 was the National Youth Day, celebrated on the occasion of the great youth icon Swami Vivekananda’s birthday. Around this day, the nation must take stock of the status of the youth of the country, on whom depends the future of our democracy. January 1, 2018, marked a very important day for Indian democracy. On this day, people born in the 21st century became eligible to vote. The prime minister had this very thought in mind when, in the last session of ‘Mann ki Baat’ for 2017, he focused on and encouraged the youth to participate in huge numbers in the voting process.

He urged all youths turning 18 by January 1 to enrol as voters so that they can be active participants in the Indian democracy in the following year and the years to come, telling them that their votes would be the bedrock of a New India. He also suggested holding a mock parliament, comprising youths selected from every district, to come together to deliberate on the various issues the country faces today. Specifically addressing youths aged 18-25, the prime minister, calling them the “New India Youth”, urged them to participate in the Indian democracy and make it corruption and casteism free.

Over the years, the PM has time and again reiterated the role that the youth have to play in shaping a new and better India. That makes PM Modi one of the few politicians who has understood the importance of youth power. The role of the youth in shaping the course of any democracy is undeniable. More than 50 per cent of India’s population is below the age of 25, and more than 65 per cent below 35. Given that democracy is the will of the majority, and the majority of India’s population — nearly 400 million voters — is the youth, it is essential to look at the way this majority can be harnessed to participate in democracy and contribute towards the development of the country. One of the most important ways is by exercising their right to vote.

The right to vote is not just a right enjoyed by every individual over the age of 18, it is also a responsibility to make an informed and responsible choice and to bring to power the most well-suited candidate. For a long time, there has been a trend to vote for people who give the maximum amount of freebies in return. Instead of following this path, the youth must make a conscious decision to vote on the basis of the agenda of the candidates and their past work.

It is only when the youth become aware of the problems that the country is facing and choose the candidate who is most likely to bring about a change, that the right representatives will come to power and India’s future will be in safe hands. The task is not a long and tedious one. All it requires is a bit of effort to look at all the contesting candidates, their histories and their agendas and vote for the one that they deem the most fit to govern the country. Several websites are making this task easier by simplifying the analysis of the comparative performance of the competing candidates.

In my book, An Undocumented Wonder: The Making of the Great Indian Election (2014), I had pointed out that the youth, who should be the most important participants in the Indian democracy, are mostly absent from the daily discourse on democracy. While they are visible at protest marches, in cricket grounds, at music concerts, cultural events, and can be seen blocking roads, stopping trains, throwing stones, burning tyres and raving and ranting against corruption and bad governance, when the time comes to actually participate in the decision-making process and change the system and its culture by electing the right leaders, most of them disappear.

When I started my tenure as the chief election commissioner, I was distressed to find out that the voter enrolment ratio amongst the 18-20-year-olds was as low as 12 per cent. We in the Election Commission decided to make this issue our top priority. Through a programme called Youth Unite for Voter Awareness (YUVA), we argued that the best way to convert a country’s demographic dividend into democratic dividend is through the mass participation of youth in elections. National Voters Day (NVD), celebrated on January 25, 2011, was launched as an annual event dedicated to youth.

This seeks to create an enlightened movement of voters who see voting as an opportunity to bring about change, who are aware of their role and are neutral with respect to caste, religion, community or other identity differences, those who have their own views about a party and its performance and change their preference from election to election if needed. The NVD not only encourages the youth to enrol in huge numbers and vote without fail but also seeks to involve them in increasing awareness amongst other voters.

Democracy cannot survive without both citizens’ participation and politicians’ accountability. Since the politicians would do nothing to inform the youth about the socio-economic problems facing the nation today and only exploit them, it is the responsibility of civil society organisations and the media to educate young people about the issues involved and their high stakes in the fruits of development.

It is important to remember that instead of always pontificating to the youth about their role and responsibilities, political leaders should remind themselves of their own role to fulfil the needs and aspirations of the youth, particularly with respect to jobs. If their expectations are not met, a backlash is unavoidable. Once the youth become restive, chaos cannot be far behind.

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S Y Quraishi, former Chief Election Commissioner of India.

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