आर्थिक वृद्धि को पटरी पर लाना वर्ष 2018 की प्रमुख चुनौती होगी। पश्चिम बंगाल के वित्त मंत्री के अनुसार जीएसटी के कारण छोटे उद्योगों के व्यापार में 40 प्रतिशत की गिरावट आई है। यह गिरावट जीएसटी ढांचे के कारण भी हो सकती है। जीएसटी लागू होने से हर व्यापारी को अपना माल पूरे देश में बेचने की छूट मिल गई है। यह व्यवस्था बड़े उद्योगों के लिए विशेष लाभप्रद है, क्योंकि अंतरराज्यीय व्यापार करने की उनकी क्षमता अधिक है। छोटे व्यापारी अंतरराज्यीय व्यापार कम ही करते हैं। बड़े व्यापारियों को मिली यह सहूलियत छोटे व्यापारियों के लिए अभिशाप बन गई है। जैसे नागपुर में बने आलू चिप्स अब गुवाहाटी में आसानी से पहुंचते हुए वहां के स्थानीय नमकीन विक्रेता का धंधा चौपट कर रहे हैं। जीएसटी का छोटे उद्योगों पर दूसरा प्रभाव रिटर्न भरने का बोझ है।
केंद्रीय वित्त मंत्री ने कहा है कि जीएसटी के तहत पंजीकृत 35 प्रतिशत लोग टैक्स अदा नहीं कर रहे हैं। बड़े व्यापारियों को जीएसटी से कोई समस्या नहीं हुई है, क्योंकि उनके दफ्तर में चार्टर्ड अकाउंटेंट और कंप्यूटर ऑपरेटर पहले से ही मौजूद थे। छोटे व्यापारियों के लिए यह अतिरिक्त बोझ बन गया है। छोटे व्यापारियों की तीसरी परेशानी है कि खरीद पर अदा किए गए जीएसटी का उन्हें रिफंड नहीं मिलता है। जैसे किसी दुकानदार ने कागज खरीदा और जीएसटी अदा किया। बड़े दुकानदार ने कागज बेचा तो उसके खरीददार ने इस रकम का सेटऑफ (रिफंड) ले लिया। छोटे दुकानदार ने कंपोजिशन स्कीम में कागज बेचा तो उसके खरीददार को जीएसटी सेटऑफ नहीं मिलेगा। इन तीन ढांचागत कारणों से जीएसटी छोटे व्यापरियों के लिए कष्टकारी हो गया है। छोटे व्यापरियों के दबाव में आने से बाजार में मांग कम हो गई है और पूरी अर्थव्यवस्था ढीली पड़ रही है तथा जीएसटी का संग्रह गिरता जा रहा है।
आशंका है कि प्रस्तावित ई-वे बिल इन परेशानियों को बढ़ा सकता है। यह ऐसा है जैसे एक नवजात शिशु को डॉक्टरों ने एंटीबायोटिक दवा दी। उसकी हालत नहीं सुधरी तो और बड़ी मात्रा में एंटीबायोटिक दवा दी, जिससे हालत सुधरने के बजाय और बिगड़ गई। इसी प्रकार वित्त मंत्री ने पहले अर्थव्यवस्था को जीएसटी की दवा दी। अर्थव्यवस्था नहीं सुधरी तो ई-वे बिल की दवा देना चाह रहे हैं। संभव है कि अर्थव्यवस्था और डिप्रेशन में चली जाए
2018 की चुनौती है कि छोटे व्यापारियों को साफ-सुथरी अर्थव्यवस्था में जीने का अवसर उपलब्ध कराया जाए। इस दिशा मे पहली संभावना है कि कुछ उत्पादों को छोटे उद्योगों के लिए पुन: संरक्षित कर दिया जाए, जैसा कि पहले था। इससे छोटे उद्योग चल निकलेंगे। दूसरी संभावना है कि जीएसटी में पंजीकरण के प्रोत्साहन स्वरूप हर व्यापारी को 500 रुपए प्रतिमाह का अनुदान दिया जाए। इस रकम से छोटे व्यापारी पंजीकरण के कागजी बोझ को वहन कर लेंगे। तीसरी संभावना है कि कंपोजिशन स्कीम के छोटे व्यापारियों को भी खरीद पर अदा किए गए जीएसटी को आगे पास ऑन करने की छूट दी जाए। तब ये बड़े व्यापारियों को टक्कर दे सकेंगे। जीएसटी के ढांचे के कारण छोटे व्यापारियों को जो परेशानी हो रही है, उसका उपाय करना ही चाहिए। सरकार जीएसटी के अंतर्राज्यीय व्यापार के सकारात्मक पहलू को बढ़ाये और टैक्स वसूली बढ़ाने के नकारात्मक पहलू को दबाये।
वर्ष 2018 की दूसरी चुनौती किसान के हितों की रक्षा करने की है। बीते 70 वर्षों में तमाम सरकारों के अथक प्रयासों के कारण देश में खाद्यान्न् उत्पादन में भारी वृद्धि हुई है। साठ के दशक में हम भुखमरी के कगार पर थे, लेकिन बीते कई दशकों में अन्न् उत्पादन में अभूतपूर्व वृद्धि के बावजूद हमारे किसानों की आय न्यून बनी हुई है और वे लगातार आत्महत्या कर रहे हैं। कारण यह कि उत्पादन में वृद्धि के साथ-साथ दाम में गिरावट आ रही है। हाल के दौर में आलू-प्याज के किसानों द्वारा अपनी उपज सड़क पर फेंकने की घटनाएं सामने आईं, क्योंकि उन्हें सही दाम नहीं मिल पा रहा था।
सरकार किसानों की इस समस्या से चिंतित भी है। प्रधानमंत्री ने ‘हर खेत को पानी का नारा दिया है। किसान को मुफ्त में मृदा हेल्थ कार्ड दिए जा रहे हैं कि वे अपनी जमीन की जरूरत के लिहाज से उचित उर्वरक का उपयोग कर और उत्पादन बढ़ाएं। विचार है कि किसान को पानी मिलेगा तो उत्पादन बढ़ेगा और आय भी, परंतु इस नीति की सफलता भी संदिग्ध है, क्योंकि दाम में कमी आने से बंपर उत्पादन भी किसान के लिए अभिशाप बन जाएगा। सिंचाई सुविधा बढ़ाने के हमारे प्रयासों से भी कुछ समस्याएं बढ़ी हैं। कई राज्य सरकारों द्वारा किसानों को सस्ती अथवा मुफ्त बिजली दी जा रही है। इससे किसान जरूरत से ज्यादा पानी का उपयोग करते हैं। हजारों वर्षों से हमारे भूमिगत तालाबों में संचित पानी को किसानों द्वारा अनुचित मात्रा में निकाला जा रहा है। भूमिगत जल का स्तर खतरनाक रूप से गिर रहा है। पहले वर्षा का पानी रिसकर 50 फुट की गहराई पर ठहरता था और वहां से निकाला जाता था। अब वह 1000 फुट की गहराई पर ठहर रहा है और वहां से निकाला जा रहा है। अधिक गहराई से निकालने पर बिजली की अनायास ही बर्बादी हो रही है। साथ-साथ सिंचाई के लिए दोहन से हमारी नदियां नष्ट हो रही हैं। हथिनीकुंड के नीचे यमुना, नरोरा के नीचे गंगा और सरदार सरोवर के नीचे नर्मदा सूख गई है। कृष्णा एवं कावेरी नदियों का पानी अब पूरी तरह निकाल लिया जा रहा है और समुद्र तक नहीं पहुंच रहा है। नदियों के सूखने से तमाम मछुआरों की जीविका संकट में पड़ गई है। गाद के समुद्र तक न पहुंचने से देश की बहुमूल्य भूमि का समुद्र भक्षण कर रहा है। यूं समझें कि सिंचाई बढ़ाने को हम अपने देश की भूमि का भक्षण कर रहे हैं।
इस समस्या का समाधान है कि किसान से माप के अनुसार पानी का मूल्य वसूला जाए। तब वह ट्यूबवेल और नहर से पानी कम लेगा। भूमिगत जलस्तर ऊंचा होने लगेगा और हमारी नदियां बहने लगेंगी, लेकिन किसान की उत्पादन लागत बढ़ेगी। किसान को इस अतिरिक्त बोझ से बचाने के लिए सीधे नकद सबसिडी देनी चाहिए।
वित्त मंत्रालय द्वारा प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार 2015-16 में केंद्र एवं राज्यों ने किसानों के हित में खाद्य निगम में 129 हजार करोड़ रुपए, कृषि पर 295 हजार करोड़ रुपए, उर्वरक पर 72 हजार करोड़ रुपए व सिंचाई पर कुल 67 हजार करोड़ रुपए सहित कुल 563 हजार करोड़ रुपए खर्च किए। इसमें 25 प्रतिशत को निवेश मान लिया जाए तो किसान के नाम पर दी जा रही सबसिडी 422 हजार करोड़ बैठती है। 2018-19 में यह लगभग 520 हजार करोड़ रुपए बैठेगी। इस रकम को लगभग 10 करोड़ किसान परिवारों को सीधे वितरित कर दिया जाए तो हर परिवार को 52,000 रुपए प्रतिवर्ष दिए जा सकते हैं। साथ-साथ पानी और उर्वरक पर सबसिडी को समाप्त कर दिया जाए। किसान भी खुश होगा, क्योंकि उसे 52,000 रुपए नकद मिल रहे हैं। साथ ही हमारी नदियों और भूमिगत जल की भी रक्षा होगी। परंतु इसके कुछ नुकसान भी हैं जिन पर अर्थशास्त्रियों और नीति निर्माताओं को गौर करना जरूरी होगा।
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