वित्तीय वर्ष 2017-18 के बजट में स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए आवंटन में 27 प्रतिशत की वृद्धि की गई थी। वर्ष के दौरान केंद्रीय मंत्रिमंडल ने भारत की नई राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति (एनएचपी), 2017 घोषित की। राष्ट्रीय स्वास्थ्य आयोग (एनएमसी) बिल लाया जो संसद में पारित होने पर मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया (एमसीआई), अधिनियम, 1956 का स्थान लेगा। मेंटल हेल्थकेयर एक्ट, 2017 व एचआईवी एंड एड्स (प्रिवेंशन एंड कंट्रोल) एक्ट पारित किया गया। हृदय रोग संबंधी स्टेंट्स तथा विकलांगों के अंग प्रत्यारोपण संबंधी लागतों को विनियमनों के जरिए माकूल बनाया गया। डॉक्टरों से कहा गया कि नुस्खों में दवाओं के जेनरिक नाम लिखें। नीति आयोग ने तीन वर्षीय कार्ययोजना (जिसमें स्वास्थ्य क्षेत्र शामिल है) जारी की; राज्य स्तर पर देश में पहली दफा हृदय रोग संबंधी आंकड़े जारी हुए तथा नेशनल न्यूट्रीशन मिशन की घोषणा हुई। कह सकते हैं कि 2017 का साल ऐसा था जिसमें स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए तमाम नीतियों और नियम-कायदों की बात थी।
राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति (एनएचपी), 2017 का लक्ष्य है कि ‘सभी तक बिना वित्तीय अड़चन गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य देखभाल संबंधी सेवाएं पहुंचाई जाएं’। यह मंसूबा सही मायनों में यूनिवर्सल हेल्थ कवरेज(यूएचसी) संबंधी नियंत्रण चर्चा को ही बयां करने वाला है। पंद्रह वर्ष पूर्व घोषित राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति, 2002 में कुछ लक्ष्य प्रस्तावित थे; लेकिन जब एनएचपी, 2017 जारी की गई तो अनेक लोगों को लगा कि कुछेक लक्ष्यों को छोड़कर एनएचपी, 2002 को ही दोहरा दिया गया है।
दशकों से भारत में स्वास्थ्य क्षेत्र योजना बनाने पर तो ध्यान देता रहा है, लेकिन योजनाओं के क्रियान्वयन के स्तर पर बहुत कम किया जा सका है। योजना आयोग को भंग किया जा चुका है लेकिन पहले जैसा ढर्रा अभी भी बना हुआ है। वर्ष 2017 के उत्तरार्ध में तमाम खबरें थीं, जिनमें समूचे देश में स्वास्थ्य सेवाओं की खराब गुणवत्ता का जिक्र था। ये खबरें सरकारी और निजी, दोनों क्षेत्रों द्वारा मुहैया कराई जारी स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर थीं। गोरखपुर के सरकारी मेडिकल कॉलेज तथा देश के कुछ हिस्सों में जिला अस्पतालों में बच्चों की मृत्यु होने की खबरें मिलीं। दिल्ली के एक निजी अस्पताल ने तो हद ही कर दी जब उसने एक जीवित शिशु को मृत घोषित कर दिया। खबरें ऐसी भी थीं कि कुछ अस्पताल मरीजों से बेतहाशा वसूली कर रहे थे।
कमोबेश कहा जा सकता है कि बीते 15 से 20 वर्षो में स्वास्थ्य क्षेत्र में कोई ज्यादा बदलाव नहीं आया है। दरअसल, नीति-नियमन स्वयं में कोई समाधान नहीं होते। स्पष्ट है कि भारत में स्वास्थ्य प्रणाली को दुरुस्त करना है, तो पूर्व में किए जा चुके प्रयासों से सिरे से भिन्न उपाय करने होंगे।
जून, 2014 में दिए गए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के संबोधन में समाधान तलाशा जा सकता है। मोदी ने अपने संबोधन में कहा था, ‘‘जरूरी है कि हम व्यापकता में सोचें। कुशलता, स्तर और त्वरिता को ध्यान में रखकर विचार करेंगे तो भारत के तेजी से आगे बढ़ने के रास्ते उतने ही आसान होंगे।’ हालांकि उनकी टिप्पणी किसी अन्य संदर्भ में थी, लेकिन यह स्वास्थ्य क्षेत्र पर भी लागू होती है। आर्थिक वृद्धि को सर्वोच्च रखते हुए अधिकांश अल्प एवं मध्यम आय (एलएमआईसी) चाहते हैं कि भारत समेत सभी देशों के नागरिकों का स्वास्थ्य बेहतर रहे। इसलिए स्वास्थ्य संबंधी प्रत्येक विमर्श अर्थव्यवस्था के संदर्भ में किया जाना जरूरी है। किसी राष्ट्र के आर्थिक विकास के लिए स्वास्थ्य नागरिक होना अत्यावश्यक शर्त है। संयुक्त राष्ट्र के स्वास्थ्य, रोजगार और आर्थिक विकास संबंधी उच्चस्तरीय आयोग, हार्वर्ड यूनिवर्सिटी तथा लांचट की रिपोर्ट के मुताबिक, जीवन प्रत्याशा में एक अतिरिक्त वर्ष की बढ़ोतरी से जीडीपी में 4% का इजाफा हो जाता है। और स्वास्थ्य पर व्यय किया गया प्रत्येक डॉलर 9 गुणा निवेश के रूप में मिलता है। स्वास्थ्य संबंदी व्यय लोगों को गरीबी और वंचना के दलदल में धकेलने के बड़े कारक होते हैं।
टोक्यो घोषणा, दिसम्बर, 2017 से यूएचसी को नियंत्रण स्तर पर गति मिली है। यूएचसी के महत्त्वपूर्ण सिद्धांत एनएचपी का हिस्सा हैं। देश में अनेक सकारात्मक बदलावा आए हैं, और आजादी के सत्तर वर्ष पश्चात यह एक अवसर है जब नागरिकों के स्वास्थ्य में सुधार के लिए कायाकल्प कर देने वाले उपाय अपनाए जा सकते हैं। भारत में यूनिवर्सल हेल्थ कवरेज (यूएचसी) को क्रियान्वित किया जाना भले ही चुनौतीपूर्ण हो लेकिन यह ऐसा लक्ष्य तो नहीं ही है, जिसे हासिल न किया जा सकता हो। कुछ ‘बड़ा सोचने’ से एक आशय यह भी है कि भारत को यूएचसी को आगे बढ़ाने में बढ़कर भूमिका निभानी चाहिए। बेहतर स्वास्थ्य का लक्ष्य हासिल करने तथा भारत में यूएचसी को लागू करने के लिए जरूरी है कि स्वास्थ्य क्षेत्र के मौजूदा कार्यबल को नये सिरे से दक्ष बनाया जाए। दक्ष मानव संसाधन की उत्पादकता में इजाफा किया जाए। इस क्षेत्र में रोजगार सृजन और दक्ष स्वास्थ्य कार्यबल होने से आर्थिक विकास को संबल मिलेगा। ‘‘कुशल भारत’ पहल को भी मजबूती मिलेगी। भूखा होने पर छोटे निवाले से काम नहीं चलता, ‘‘बड़े निवाले’ की जरूरत होती है। कई दफा स्वास्थ्य प्रणाली में नतीजे हासिल करने के लिए हदों को पार करने की जरूरत महसूस होती है। इतना ही नहीं आगामी 12 वर्षो के लिए लक्ष्य तय कर लेने होंगे। कम-से-कम दो-तीन राज्य तो सार्वजनिक रूप से प्रतिबद्धता जता ही सकते हैं कि वे आगामी 3 से 5 वर्ष के भीतर यूएचसी को हासिल कर लेंगे। कुछ राज्यों को एनएचपी, 2017 के प्रस्ताव अनुसार स्वास्थ्य क्षेत्र में अपने बजट का 8% इस्तेमाल करने में सफल होना चाहिए। ऐसा खाका तैयार किया जाए ताकि आगामी 6-7 वर्षो में स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए जीडीपी का 3-4% व्यय किया जाना सुनिश्चित हो सके।
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