किसी भी देश में सुचारू प्रशासन चलाने के लिए जिम्मेदार नौकरशाही की आवश्यकता होती है। आज के दौर में कर्मठता, ईमानदारी और संवेदनशीलता को लेकर नौकरशाही पर सवाल उठने लगे हैं। यह आम धारणा बन गई है कि देश को चुने हुए प्रतिनिधि नहीं, नौकरशाही चला रही है तथा रोजमर्रा के कामों में होने वाली देरी एवं बढ़ते भ्रष्टाचार के लिए नौकरशाही ही जिम्मेदार है। अंग्रेजों ने इस देश में नौकरशाही के कामकाज का तरीका इस प्रकार का बनाया था कि कोई मनमर्जी नहीं कर सके। प्रत्येक फैसले का पूरा रिकार्ड रखा जाता था। ताकि पारदर्शिता बनी रहे एवं फैसले के अहम बिन्दुओं व मुद्दों को छुपाया नहीं जा सके। नौकरशाही को असहमति का अधिकार था पर अनुशासनहीनता, अनादर व अवहेलना का नहीं।
स्वतंत्रता के बाद प्रारंभिक वर्षो में इस देश के प्रशासनिक अधिकारियों ने इस शासन व्यवस्था को बनाये रखा। बाद के दौर में राजनीतिक दलों एवं नेताओं के कार्य-व्यवहार व आचरण में गिरावट के मुताबिक नौकरशाही के कामकाज का तौर-तरीका भी बदलने लगा। प्रशासनिक सुधार के संबंध में अनेक आयोग बने लेकिन उनकी रिपोर्ट भी ठंडे बस्तों में रह गई। या तो इनकी सिफारिशों को तवज्जो ही नहीं दी गई या फिर आधी-अधूरी पालना की गई। चयन प्रक्रिया व प्रशिक्षण में भी खामियां रहीं। सामाजिक सोच, समाज के प्रति प्रतिबद्धता व जिम्मेदारी की भावना, योग्यता का मापदंड नहीं रहे।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अधिकारियों की जवाबदेही तय करने के लिए नए आधारों की बात करते हुए योग्य अधिकारियों के चयन एवं पदोन्नति के युक्तिसंगत तरीके अपनाने पर जोर दिया है। यह किसी से छिपा नहीं है कि प्रशासन में भ्रष्टाचार की शिकायतें बढ़ती जा रहीं है। नियम-कायदे आम आदमी के लिए नहीं रहे। नियम कायदों, उचित-अनुचित, आवश्यक-अनावश्यक व न्याय-अन्याय को स्वेच्छा से परिभाषित किया जा रहा है। पटवारी से लेकर एसडीओ तक राजस्व कानूनों की जानकारी व कानून-व्यवस्था संबंधी प्रावधानों की जानकारी का अभाव कई परेशानियां खड़ी करने वाला रहता है।
ऊपर से नीचे तक सरकारी सिस्टम में तबादलों व पदस्थापन में राजनीतिक दखल भी बड़ी समस्या है। नौकरशाही को संवेदनशील बनाने की जरूरत है। जरूरी यह भी है कि विभिन्न विभागों में समन्वय कायम किया जाए। राजनेताओं व नौकरशाहों को यह अहसास कराना होगा कि सत्ता उनमें निहित नहीं है बल्कि आम जनता में है और वे सत्ताधारी नहीं है अपितु जनसेवक हैं।
आज भारतीय नौकरशाही लापरवाही, सुस्ती और भ्रष्टाचार का पर्याय बन गई है। समय-समय पर अंतरराष्ट्रीय सर्वेक्षणों में उसके बारे में जो निष्कर्ष आते हैं, उससे देश को शर्मसार होना पड़ता है। समाज में आम धारणा बन गई है कि कोई भी सरकारी काम समय पर नहीं होता। निचले स्तर की सरकारी नौकरी के बारे में तो पक्की राय यही है कि इसमें लोग आराम फरमाते हैं और बिना रिश्वत के कोई काम नहीं करते। जाहिर है, सरकारी तंत्र के इस रवैये ने ही विकास कार्यों की गति बढ़ने नहीं दी है। अनेक विशेषज्ञ मानते हैं कि भारत अगर भूमंडलीकरण का लाभ ढंग से नहीं उठा पाया है, तो इसकी मुख्य जवाबदेह यहां की नौकरशाही पर आती है। अनेक पूंजी निवेशकों ने नौकरशाही के ढीले-ढाले रवैये की वजह से ही भारत से मुंह मोड़ लिया है। इसलिए नौकरशाही को चुस्त-दुरुस्त बनाना बेहद जरूरी है।
और यह काम सख्ती से ही होगा। सच्चाई यह भी है कि केंद्र और राज्य सरकारों ने प्रशासनिक अमले को एक वोट बैंक की तरह देखा और इसे अनेक तरह से संतुष्ट रखने की कोशिश की। उन्होंने इसका प्रदर्शन सुधारने के बजाय इसका इस्तेमाल अपने राजनीतिक फायदे के लिए किया। मोदी सरकार को इस प्रलोभन से बचना होगा। उसे यह भी समझना होगा कि नौकरशाही तभी बेहतर परफॉर्म कर पाएगी, जब राजनीतिक तंत्र खुद भी स्वच्छ हो, क्योंकि दोनों का गहरा संबंध है।
इस सवाल का जवाब खोजा ही जाना चाहिए कि आखिर विकास के मामले में जैसी इच्छाशक्ति प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री दिखा रहे हैैं वैसी ही उनके नौकरशाह क्यों नहीं दिखा पा रहे हैैं? चूंकि विकास योजनाओं को हकीकत में बदलने का दारोमदार नौकरशाहों पर ही रहता है इसलिए राजनेताओं को चाहिए कि वे उन्हें प्रेरित-प्रोत्साहित करने के साथ ही जिम्मेदार और जवाबदेह भी बनाएं। विकास योजनाएं तेज गति से आगे बढ़ें और तय लक्ष्य में वांछित काम सही तरह पूरे हों, इसके लिए केंद्र के साथ-साथ राज्यों के स्तर पर भी नौकरशाही को सक्रियता दिखाने की आवश्यकता है। इस आवश्यकता की पूर्ति तब होगी जब प्रशासनिक सुधारों को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाएगी। बेहतर हो कि केंद्र और राज्य सरकारें प्रशासनिक सुधारों पर न केवल सहमत हों, बल्कि मिलकर आगे भी बढ़ें। यदि जीएसटी पर केंद्र और राज्यों की नौकरशाही मिलकर काम कर सकती है तो फिर हर तरह की विकास योजनाओं के मामले में ऐसा क्यों नहीं हो सकता? जीएसटी पर अमल के साथ ही संघीय ढांचे में केंद्र और राज्यों के बीच सहयोग का जो नया अध्याय सामने आया है वह महज एक अपवाद नहीं रहना चाहिए। इसे तो अन्य क्षेत्रों में अनुकरणीय उदाहरण बनना चाहिए।
जहां तक विकास के कामों को लेकर राज्यों के बीच होड़ की बात है, यह एक जैसे सामाजिक, आर्थिक, भौगोलिक ढांचे वाले राज्यों के बीच ही संभव है। ऐसा इसलिए, क्योंकि अलग-अलग राज्यों की परिस्थितियां भिन्न-भिन्न हैैं। कहीं उद्योगीकरण के अनुकूल अवसर हैैं तो कहीं पर्यटन को विस्तार देने के। इसी तरह कहीं निर्धनता निवारण पर ज्यादा देने की जरूरत है तो कहीं खेती की दशा सुधारने की। अच्छा यह होगा कि राज्य अपनी क्षमताओं का दोहन करने और चुनौतियों से पार पाने में एक-दूसरे से न केवल सीख लें, बल्कि परस्पर मददगार भी बनें। इसमें केंद्र सरकार की भी सक्रिय भूमिका होनी चाहिए और वह नौकरशाही के स्तर पर अधिक दिखनी चाहिए। केंद्र और राज्यों की नौकरशाही के बीच बेहतर तालमेल कायम करके कहीं आसानी से केंद्र सरकार के साथ राज्य सरकारों की योजनाओं पर भी प्रभावी ढंग से अमल का वातावरण तैयार किया जा सकता है। इस क्रम में यह भी देखा जाना चाहिए कि यदि किसी एक योजना पर सही तरह अमल हो सकता है तो ऐसा ही सभी योजनाओं के मामले में क्यों नहीं हो सकता? जब प्रधानमंत्री राज्यों के साथ मिलकर आगे बढ़ने के मामले में टीम इंडिया का उदाहरण दे रहे हैैं और अगले पांच वर्षों में भारत को नए भारत में बदलने के लिए अनेक योजनाएं लेकर आए हैैं तब फिर यह सुनिश्चित करना आवश्यक हो जाता है कि कोई भी योजना उपेक्षित अथवा लंबित न होने पाए। यह सब सुनिश्चित करने का काम नौकरशाही की जिम्मेदारी बननी चाहिए, क्योंकि यह धारणा बिलकुल सही है कि वह ठान ले तो उसके लिए कोई काम मुश्किल नहीं।
पिछले वर्ष केंद्र सरकार ने भारतीय पुलिस सेवा के दो तथा भारतीय प्रशासनिक सेवा के एक अधिकारी को अनिवार्य सेवानिवृत्ति दे दी। मीडिया की रिपोर्टों के अनुसार, इनके विरुद्ध भ्रष्टाचार और अनियमितता के गंभीर आरोप थे। एक पुलिस अधीक्षक स्तर के अधिकारी के खिलाफ तो आय से अधिक संपत्ति का मामला भी चल रहा है। इससे सरकार ने एक सख्त संदेश देने का प्रयास किया है। भ्रष्टाचार के ऐसे मामलों में संविधान के अनुच्छेद 311 के तहत भ्रष्ट कर्मियों को सेवा से बर्खास्त या उनकी पदावनति की जा सकती है, पर उसकी लंबी प्रक्रिया होती है। अनिवार्य सेवानिवृत्ति के लिए ऐसी कोई प्रक्रिया नहीं है। यह दंडात्मक नहीं है और उन्हें पेंशन जैसे लाभ से वंचित नहीं किया जाता। मुअत्तल करने की प्रक्रिया में और कई वर्ष या शायद दशक लग जाते।
संविधान के अनुच्छेद 311(2) में सरकारी कर्मी को सेवा से हटाए जाने, मुअत्तल करने तथा उसके पदावनति का प्रावधान है, पर इसका इस्तेमाल बहुत ही कम हुआ है। भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप जब किसी के विरुद्ध लगते हैं, तो अभियोजन शुरू करने के पहले उसे नियुक्त करने वाले अधिकारी की पूर्वानुमति की आवश्यकता होती है। प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों के मामले में यह अनुमति केंद्रीय कार्मिक मंत्रालय देता है, जबकि पुलिस सेवा के लिए केंद्रीय गृह मंत्रालय। ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जब आवेदन के बावजूद अनुमति नहीं मिली। इस दिशा में भी सरकार ने एक महत्वपूर्ण बदलाव किया है। अब किसी भी अधिकारी के खिलाफ लगे आरोपों की विभागीय जांच छह महीने के भीतर पूरी करने की समय-सीमा तय की गई है। भ्रष्ट अधिकारियों की मदद के लिए जो फाइलें दबा दी जाती थीं, वैसा अब शायद संभव न हो पाए।
नौकरशाही में सुधार के सारे प्रयास अक्सर उन बाबुओं द्वारा विफल कर दिए जाते हैं, जो यथास्थिति के पोषक होते हैं। 1917 की रूसी क्रांति के बाद अधिकतर नौकरशाहों को या तो फांसी दे दी गई या उन्हें कन्संट्रेशन कैंप में भेज दिया गया, क्योंकि उन्हें यथास्थितिवाद का एजेंट माना गया था। पर बाद में साम्यवादी सरकार ने नौकरशाही का एक बड़ा ढांचा खड़ा कर दिया। इसलिए इससे छुटकारा पाना आसान काम नहीं है।
यह एक अहम सवाल है कि किसी की दक्षता मापने का पैमाना क्या हो? क्या यह इससे तय होगा कि कौन कितनी फाइलें निपटाता है, क्योंकि सरकार फाइलों पर चलती है? ब्रिटिश हुकूमत की यह पुरानी परंपरा अब भी बरकरार है। लॉर्ड कर्जन ने सरकारी काम-काज में होने वाली देरी की भर्त्सना की थी और इसके लिए गंभीर प्रयास किया था कि विभागीय फाइलों पर नोटिंग का पहाड़ न बने। एक महत्वपूर्ण फाइल पर उनकी रोचक टिप्पणी है- ‘पृथ्वी की दैनिक परिक्रमा की तरह फाइल चलती रही- शानदार, भव्य, अचूक व धीमी। अब अपेक्षित मौसम में, इसने परिक्रमा पूरी कर ली है, तो मुझे अंतिम टिप्पणी लिखनी है।’ उन्होंने सरकारी कर्मियों की काहिली पर दुख जाहिर किया तथा प्रशासन को गतिशील बनाने का प्रयास किया, परंतु वह सफल नहीं हुए। अप्रैल, 1899 में उन्होंने लिखा,छह महीने में कुछ नहीं हुआ है। ‘लालफीताशाही’ जैसे बदनाम शब्द की उत्पत्ति इसी कारण हुई, क्योंकि फाइलों को लाल फीते से बांधा जाता था और एक बार बांध दिए जाने के बाद यह मान लिया जाता था कि यह फाइल ठंडे बस्ते में चली गई।
नौकरशाही कार्यपालिका का स्थायी अंग है। मैक्स वेबर के शब्दों में, नौकरशाही को निष्पक्ष होकर सरकार की सेवा उत्साह और ईमानदारी से करनी चाहिए। उनका मानना था कि नौकरशाहों को परदे के पीछे से काम करना चाहिए। अब अधिकतर बाबुओं को किसी न किसी राजनेता के प्रति वफादारी दिखाने में गुरेज नहीं है, भले ही सत्ता-परिवर्तन के बाद उनका रंग बदल जाए। अवकाश के बाद पद पाने की कामना में वे कई पक्षपात करते हैं। नेहरू ने नौकरशाही के असली चरित्र को समझ लिया था। इसलिए उन्होंने सामुदायिक विकास का कार्यक्रम शुरू किया था, जिसमें अधिकारी गांव-गांव जाकर लोगों के साथ पेड़ के नीचे बैठकर उनकी राय लेते थे कि विकास कैसे हो? उत्तर प्रदेश के इटावा से इसकी शुरुआत हुई थी, पर दो-तीन जिलों से आगे यह कार्यक्रम बढ़ नहीं पाया।
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