पिछले दिनों ब्यूनस आयर्स (अज्रेटीना) में आयोजित विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के 11वें मंत्रिस्तरीय सम्मेलन में खाद्य सुरक्षा के मुद्दे पर वार्ता असफल हो गई है। साथ ही मौजूदा विवाद में विकासशील देशों की मांग है कि धनी देश खेती पर सब्सिडी घटाएं जबकि अमरीका सहित यूरोपीय संघ चाहता है कि ई-कॉमर्स और निवेश सुविधा को बढ़ावा दिया जाए। विकासशील देश इसे विकसित देशों की तरफ से उठाया गया नया मुद्दा मानते हैं और वे इसे छोटे विक्रेताओं के विरुद्ध बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हित में उठाया गया कदम मानते हैं। अतएव भारत ने खाद्य सुरक्षा और कृषि संबंधी अन्य मुद्दों पर डब्ल्यूटीओ के अमीर और विकासशील देशों की छठी मंत्रिस्तरीय बैठक फरवरी 2018 में बुलाई है। जिसमें डब्ल्यूटीओ के 40 सदस्य देशों के भाग लेने की उम्मीद है। इस बैठक में डब्ल्यूटीओ के तहत बहुपक्षीय व्यापार में नई जान फूंकने के तरीके भी ढूंढे जाएंगे। डब्ल्यूटीओ में भूख एवं खाद्य सुरक्षा के मसले पर अमेरिका और विकसित देशों के नकारात्मक रवैये के विरोध में न्यायोचित मांग के लिए अगुवाई करते हुए भारत के द्वारा आयोजित की जा रही लघु मंत्रिस्तरीय बैठक की ओर पूरी दुनिया की निगाहें लगी हुई हैं।
गौरतलब है कि डब्ल्यूटीओ के ब्यूनस आयर्स सम्मेलन में भारत ने स्पष्ट कहा कि देश की गरीब आबादी को पर्याप्त अनाज मुहैया कराने से जुड़े खाद्य सुरक्षा कानून से वह कोई समझौता नहीं करेगा। भारत की ओर से यह भी कहा गया कि खाद्य पदार्थो के सार्वजनिक भंडारण का स्थायी हल निकाला जाना चाहिए। यह बात महत्त्वपूर्ण है कि इस सम्मेलन में विकासशील देशों के समूह जी-33 के 47 देशों ने कृषि मुद्दे पर भारत को पूरा समर्थन दिया। साथ ही खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम पर भारत और चीन में भी एकता देखी गई। लेकिन इस सम्मेलन में अमेरिका और यूरोपीय यूनियन की नकारात्मक भूमिका रही। भारत के द्वारा उठाई गई खाद्य सुरक्षा की मांग को लेकर इन देशों ने एक साझा स्तर पर पहुंचने से न केवल मना कर दिया वरन् ये देश खाद्य भंडारण के मुद्दे का स्थायी समाधान ढूंढने की अपनी प्रतिबद्धता से भी पीछे हट गए।
निस्संदेह इस सम्मेलन का यह दुर्भाग्यपूर्ण पक्ष रहा कि डब्ल्यूटीओ के मौजूदा लक्ष्यों एवं नियमों पर आधारित भारत की खाद्य सुरक्षा अस्वीकृत कर दी गई। इस मुद्दे पर अगले दो साल के लिए कोई कार्ययोजना भी तैयार नहीं हो सकी। दुनिया के कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि खाद्य सुरक्षा पर भारत का पक्ष पूर्णतया न्यायपूर्ण है। यद्यपि डब्ल्यूटीओ के नियमों के तहत 164 सदस्य देशों में से कोई भी सदस्य देश हर साल अपनी कृषि पैदावार की कीमत का दस फीसदी से ज्यादा खाद्य सब्सिडी नहीं दे सकता। लेकिन भारत ने इस प्रावधान के बदलाव के लिए लंबे समय से तर्कपूर्ण आवाज बुलंद की हुई है। भारत ने 2013 में बाली में हुए डब्ल्यूटीओ सम्मेलन में जोरदार आवाज उठाते हुए कहा था कि देश के करीब 80 करोड़ लोगों की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए उसने खाद्य सुरक्षा कानून बनाया है। इस कानून के तहत देश की बड़ी आबादी का पेट भरने के लिए खाद्यान्नों का बड़ा भंडार जरूरी है। इसके साथ-साथ देश की वर्षा पर निर्भर कृषि के लिए किसानों को सब्सिडी की भी जरूरत है। ऐसे में भारत में खाद्य सुरक्षा कानून लागू करने पर सब्सिडी 10 फीसदी से ज्यादा हो जाएगी, इसलिए भारत को इस नियम में विशेष छूट दी जानी चाहिए। इसके समाधान के लिए 2013 में बाली में हुए सम्मेलन में ‘पीस क्लॉज’ नाम से एक अस्थायी समाधान निकाला गया। इसके अंतर्गत व्यवस्था दी गई कि कोई भी विकासशील देश यदि 10 फीसदी से ज्यादा सब्सिडी देता है, तो कोई अन्य देश इस बात पर आपत्ति नहीं करेगा। चूंकि यह एक अस्थायी व्यवस्था के तौर पर ढूंढा गया विकल्प था, अत: भारत ब्यूनस आयर्स सम्मेलन में खाद्य सुरक्षा का स्थाई समाधान चाहता था।
उल्लेखनीय है कि डब्ल्यूटीओ दुनिया को नियंत्रण गांव बनाने का सपना लिये हुए एक ऐसा नियंत्रण संगठन है, जो दुनिया में उद्योग, व्यापार एवं वाणिज्य को सहज एवं सुगम बनाने का उद्देश्य रखता है। 1 जनवरी, 1995 से प्रभावी हुआ डब्ल्यूटीओ केवल व्यापार एवं बाजारों में पहुंच के लिए प्रशुल्क संबंधी कटौतियां तक सीमित नहीं है, यह नियंत्रण व्यापारिक नियमों को अधिक कारगर बनाने के प्रयास के साथ-साथ सेवाओं एवं कृषि में व्यापार पर बातचीत को व्यापक बनाने का लक्ष्य भी संजोए हुए है। लेकिन न केवल ब्यूनस आयर्स में वरन् डब्ल्यूटीओ के गठन के बाद पिछले 22 वर्षो में यह पाया गया है कि डब्ल्यूटीओ के तहत अमेरिका और अन्य विकसित देशों की स्वार्थपूर्ण गुटबंदी ने कृषि एवं औद्योगिक टैरिफ कटौती सहित कई मुद्दों पर विकासशील देशों के हितों को ध्यान में नहीं रखा है। इस संगठन से दुनिया के विकासशील देशों को कई सार्थक लाभ प्राप्त नहीं हुए हैं। भारत जैसे विकासशील देशों को सेवाओं एवं कृषि उत्पादों सहित अनेक सामानों के निर्यात में भारी परेशानियों का सामना करना पड़ा रहा है। ख्यात अर्थशास्त्री एवं नोबल पुरस्कार विजेता जसेफ ई स्टिग्लिट्ज का कहना है कि डब्ल्यूटीओ का एजेंडा एवं उसके परिणाम दोनों ही विकासशील देशों के खिलाफ हैं।
यह पाया गया है कि अमेरिका और विकसित देश आर्थिक संरक्षणवाद की अधिक ऊंची दीवारें खड़ी करते जा रहे हैं। आऊटसोर्सिंग जैसे संरक्षणवादी कदम के अलावा अंतरराष्ट्रीय व्यापार को पर्यावरण संरक्षण से जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। विकसित देशों में घरेलू स्तर पर नौकरियों को बढ़ावा देने की अंतरमुखी नीति का परिदृश्य भारत सहित विकासशील देशों के लिए एक बड़ी आर्थिक चुनौती बन गया है। वस्तुत: विकसित देशों के वीजा रोक और कई वस्तुओं के आयात नियंत्रण संबंधी प्रतिबंध डब्ल्यूटीओ के उद्देश्य के प्रतिकूल हैं। यही कारण है कि विकासशील देशों के करोड़ों लोग जोर-शोर से यह कह रहे हैं कि जब डब्ल्यूटीओ के तहत पूंजी का प्रवाह पूरी दुनिया में खुला रखा गया है, तो सेवा एवं श्रम के मुक्त प्रवाह और गरीब की खाद्य सुरक्षा पर विकसित देशों के द्वारा तरह-तरह के प्रतिबंध अनुचित और अन्यायपूर्ण हैं।
यहां यह भी उल्लेखनीय है कि डब्ल्यूटीओ के सदस्य देशों ने सब्सिडी, सीमा शुल्क में कटौती, व्यापार की अन्य बाधाओं को दूर करने के लिए 2001 में दोहा दौर की व्यापार वार्ता शुरू की थी, जिसे वर्ष 2004 में समाप्त होना था। परंतु यह वार्ता विकसित एवं विकासशील देश के आर्थिक हितों की टकराहट के कारण अब तक पूरी नहीं हुई है। मंत्रिस्तरीय वार्ताओं की असफलता की वजह यह है कि अमेरिका सहित कई विकसित देश अपने किसानों को भारी सब्सिडी जारी रखना चाहते हैं, लेकिन वे अपेक्षा कर रहे हैं कि विकासशील देश किसानों की सब्सिडी कम करें और गरीबों की खाद्य सुरक्षा को भी कम करें। ब्यूनस आयर्स में पिछले दिनों सम्पन्न डब्ल्यूटीओ के मंत्रिस्तरीय सम्मेलन की असफलता की वजह भी यही है।
लेकिन डब्ल्यूटीओ के मंत्रिस्तरीय सम्मेलनों की कृषि मुद्दों पर बार-बार असफलता के बाद भी हमें यह मानना ही होगा कि अभी भी दुनिया के तमाम देशों के लिए आपसी व्यापार का एक साझा ताना-बाना होना जरूरी है। डब्ल्यूटीओ सदस्य देशों की संख्या तेजी से बढ़कर 164 हो जाना इस बात का सबूत है कि डब्ल्यूटीओ की व्यवस्था नियंत्रण व्यापार की सरलता और नियंत्रण व्यापार बढ़ाने के लिए अब भी महत्त्वपूर्ण है। इसके अभाव में उलझनों और दिक्कतों से भरी हुई द्विपक्षीय विदेश व्यापार समझौते की राह ही बचती है, जिसके चलते दुनिया अलग-अलग व्यापार समूह में बंट सकती है। चूंकि डब्ल्यूटीओ के ब्यूनस आयर्स सम्मेलन में भारत द्वारा उठाई गए खाद्य सुरक्षा और खाद्य पदार्थ के सार्वजनिक भंडार के न्यायोचित मुद्दे को ध्यान में नहीं रखा गया। ऐसे में भारत के द्वारा खाद्य सुरक्षा से जुड़े विकासशील देशों की आवाज को डब्ल्यूटीओ के तहत आगे बढ़ाने के लिए फरवरी 2018 में आयोजित की जाने वाली लघु स्तरीय बैठक सार्थक सिद्ध हो सकती है। आशा की जानी चाहिए कि भारत के द्वारा अभूतपूर्व रूप से खाद्य सुरक्षा पर आयोजित की जाने वाली डब्ल्यूटीओ देशों की लघुस्तरीय इस बैठक की न्यायोचित आवाज डब्ल्यूटीओ के आगामी मंत्रिस्तरीय सम्मेलन में विकसित देशों को लचीला रवैया अपनाने के लिए बाध्य करेगी।
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