Sunday, 4 March 2018

रंग जिनसे कोई मुक्ति नहीं चाहता

भारत के सभी त्योहारों में होली का अलग महात्म्य है। बसंत पंचमी, यानी माघ की शुक्ल पंचमी से ही बसंत का आगमन माना जाता है, जो उल्लास, आशा और प्रेम का संचार कर जाता है। कठिन श्रम से निखरी रबी की फसल जब खेत में पककर तैयार हो जाती है, आमों में बौर आ जाते हैं, मादक बयार बहने लगती है, कोयल कूकने लगती है, ऐसे में कंठ से स्वर लहरियां स्वत: फूटने लगती हैं। धमार, डेढ़़ ताल, चौताल, फाग, उलारा, चौता की अनुगूंज उत्सव का माहौल रच देती है। बसंत पंचमी से ही गांव-गांव में फाग या फगुआ की तान सुनाई देने लगती है। लोग एक स्थान पर एकत्रित होकर ढोलक, मृदंग, करताल, झांझ बजाते हुए फाग व होरी गाते हैं। कभी किसी पेड़ के नीचे, कभी खेत के किनारे, तो कभी किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति के द्वार के सामने,

अवध नगरिया छाई रे बहरिया / भल रंग खेलैं, होरी चारों भइया / केसर भरी कंचन पिचकारी हांथन राम के सोहे / रंग रंगीली होली खेलैं सब के हृदय बसैया

इस दौरान हमारे आराध्य कभी फाग के गीतों में रंग उड़ाते, कभी ढोलक बजाते, तो कभी नृत्य करते दिखाई देते हैं। पूरे उत्तर भारत में गाया जाने वाला उलारा होली खेलें रघुबीरा हो या आज बिरज में होली मोरे रसिया इन गीतों को गाते हुए जन-साधारण को अपने इष्ट राम और कृष्ण बहुत अपने से लगने लगते हैं। ढोलक बजाते राम और मंजीरा बजाते लक्ष्मण, मानो अपने में से कोई एक हो, अयोध्या के राजा राम नहीं। राधा को रंगने की योजना बनाते श्रीकृष्ण उनको अपने अंतर्मन में ऐसे बसाते हैं, जैसे कान्हा घर का ही कोई तरुण हो, गीता का ज्ञान देने वाला योगेश्वर नहीं। राम और कृष्ण, दोनों ही भारतीय लोक के हृदय में विराजमान हैं। वे इष्ट भी हैं और लोक नायक भी। अत: पर्व-उत्सव उनके बिना अधूरे ही हैं। अवध में यदि राम और सिया फाग खेलते हैं, तो बृज में राधा और कृष्ण।

बिरज में होली कैसे खेलूं रे सांवरिया के संग/ अबीर उड़ते, गुलाल उड़ते उड़ते सातों रंग/ भर पिचकारी सन्मुख मारी सखियां हो गईं तंग/ तबला बाजै सारंगी बाजै और बाजै मृदंग/ कान्हा जी की बंसी बाजै राधा जी के संग

यहां तक कि महादेव भी फाग खेलते दिखते हैं। कभी गौरा जी के साथ, तो कभी श्मशान में भस्म लपेटे, नर मुंडों से खेलते हुए, जीवन के शाश्वत सत्य का परिचय कराते हुए-

आजु सदाशिव खेलत होरी / जटा जूट में चंद्र विराजे, अंग भभूत रमोरी / लेइ गुलाल संभु पर डारत, रंग में तन मन बोरी / भइल लाल सब देह संभु के, गण सब करत ठिठोरी।

होली ही एकमात्र पर्व है, जिसमें आज भी ग्राम गीतों की टेर सुनाई देती है। नगर, महानगर और बहुखंडी अट्टालिका में रहने वाले शहरी जीवन शैली में ढले लोगों को आज भी होली के पारंपरिक गीत उसी कालखंड में ले जाते हैं, जहां पनघट पर जाती नायिकाओं को रंगने की योजना बनाते किशोर छिपे खड़े हैं। जहां टेसू के फूलों से बने केसरिया रंग की पिचकारी से वातावरण केसरिया हो गया है। जहां आज भी किसान झूम-झूमकर चौता गाते हैं और घूंघट की ओट से सलज्ज ग्राम वधुएं प्रत्युत्तर में फाग गाती हुई झूमती हैं

बरजोरी करो न मोसे होरी में / जा रे बावर ढीठ लंगरवा / बतरस तोरी रस घोरी रे बरजोरी।

लोक जीवन में पर्वों-उत्सवों के प्रति एक आंतरिक और नैसर्गिक उल्लास पाया जाता है, जो नगरीय जीवन में देखने को नहीं मिलता। वैसे ही, जैसे नगरीय जीवन में पलाश का वृक्ष नहीं दिखता, पक्षियों की बोली नहीं सुनाई देती, नदी का बहाव नहीं दिखता, और सबसे बड़ी बात, रमने की प्रवृत्ति नहीं मिलती, रमे बिना आनंद कहां? उत्सव वही है, जहां आनंद है। आनंद के लिए निश्छल मन चाहिए, जो आज भी कृषक समाज में ही दिखता है। उनके लिए होली इसीलिए महत्वपूर्ण है। फाल्गुन मास तक आते-आते कृषक समाज धनधान्य से पूर्ण हो गया होता है, शीत का प्रकोप कम हो गया होता है, फसल पक चुकी होती है, इसलिए काम का बोझ भी कम है, ऐसे में किसान हर रात अलाव जलाकर उसके समीप बैठकर गाते हैं। गांव-गांव में लोककंठों से बसंती बयार में शृंगार भाव से सिक्त गीत सुनाई देते हैं-

रंग डारो, रंग डारो, गोरी बैठी है घूंघट निकाल मुंह पे रंग डारो।

होली समरसता का प्रतीक है। रंगने का आध्यात्मिक प्रयोजन भी यही है। एक निर्गुन को सुन इसे सहज समझा जा सकता है-

लाल हरो समाज में, को जाने को ‘राम’,

जहां सभी रंग में सराबोर हों, वहां कोई राम को कैसे पहचाने? एक बिरहा फाग में छंद पढ़ा जाता है-

या होरी को का कोऊ जाने / होरी को रस रसिक ही जाने / मड़ई और महल दूनो एक हुई जावें / राजा और रंक दूनो मिलि होली गावैं।

जाति, धर्म, वर्ग के सभी भेदभाव को तोड़ती होली इसीलिए देश का लाडला पर्व है। होली का विशेष आनंद इसके रंजन पक्ष के कारण है। हास्य-विनोद, मसखरी-ठिठोली होली के विशेष उपांग हैं। फिर चाहे, वह होली खेलने का अंदाज हो या होली में गाए जाने वाले विभिन्न
गीत हों। फागुन में बुढ़ऊ देवर लागे फागुन में। यह गीत गाते हुए और घूंघट के पीछे हंसती नारियों के मुंह से यह गीत सुनकर घर के बुजुर्ग आंगन में थिरकने लगते हैं। संभवत: इसी कारण जोगीरा गाने की परंपरा का विकास हुआ। समसामयिक घटनाओं एवं परिवेश को लखकर कहे गए जोगीरा को गाने और सुनने लोगों की आज भी भीड़ जुट जाती है। एक टोली में जोगी का वेश धरे और ढोल-करताल संग जोर से जोगीरा सररर की टेर लगाता है और शेष समूह वाह भई वाह, वाह खिलाड़ी वाह की पुनरावृत्ति करते हैं। इसकी लय तेज होती जाती है।

जीवन में सभी रंग हैं और होली एक ऐसा पर्व है, जिसमें जीवन के सभी रस व्याप्त हैं, होली के बहाने समाज आनंद का चरम प्राप्त कर रंग खेल, अपनों के साथ उत्सव मना विश्रांति पाता है और पुन: नई ऊर्जा, नए उत्साह के साथ नववर्ष के स्वागत को जुट जाता है।

कबीर होली पर अलग दृष्टि रखते हुए कह उठते हैं- अबीर लपटाइ तिरिया हांसे। निर्गुण, निराकार ईश्वर पर अपने प्रेम रूपी रंग डालकर उन्हें साकार बनाकर वर्ष-प्रतिवर्ष यही संदेश आत्मसात करना, मोह-माया, राग-द्वेष, सब इन्हीं रंगों की तरह हैैं, इनमें रंगना भी है, बचकर निकलना भी है, और मुक्त भी होना है। लेकिन होली का रंग प्रेम का रंग है, जिससे कोई कभी मुक्त नहीं होना चाहता। यह और भी गाढ़ा हो, और चटख हो, फागुन के रंगों से चटख हो हम सबका जीवन।

मालिनी अवस्थी, प्रसिद्ध लोक गायिका


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होली का सबसे मजेदार हिस्सा है - जोगीरा सा रा रा रा…… और यह हमारे समाज की आलोचनात्मक ऊर्जा का प्रतीक भी है. इसका प्रयोग कब और कैसे शुरू हुआ, इसके बारे में कुछ कहना कठिन है। लेकिन, लगता है कि शायद जोगी/योगी जैसी कोई एक खास तरह की शख्सियत है, जो बिना भय के समाज की आलोचना कर सकता है। और सवाल-जवाब के माध्यम से समाज के शक्ति-संपन्न लोगों की धज्जियां उड़ा सकता है।

और अंत में जोगीरा की बानगी देखें- खूब चकाचक जीडीपी बा चर्चा बा भरपूर/ चौराहा पर रोज सबेरे बिक जाला मजदूर जोगीरा सा रा रा रा रा..….


जोगीरा सवाल-जवाब देखें- केकर बाटे कोठी कटरा, के सींचे ला लॉन/ के नुक्कड़ पर रोज बिकाई केकर सस्ती जान, जोगीरा सा रा रा रा रा.

नेता जी के कोठी कटरा, अफसर सींचे लॉन/ नुक्कड़ पर मजदूर बिकाला, फांसी चढ़े किसान, जोगीरा सा रा रा रा रा…… यही है आज की स्थिति पर आम लोगों की समझ आम लोगों की भाषा में…


होली किसी धर्म का पर्व होने के बदले एक सांस्कृतिक पर्व ज्यादा है. बल्कि शायद एशियाई समाज का वह तकनीक है, जिससे इसमें बहुत सी संस्कृतियां समा सकीं. जिस हिंदू-मुस्लिम को एक-दूसरे के विरोधी के रूप में परोसा जा रहा है, उनके बीच भी होली ने कमाल का संबंध बनाया था.

अनेकों मुस्लिम कवियों ने होली पर नज्में और कविताएं लिखी हैं और कइयों ने कृष्ण भक्ति को एकदम डूबकर गाया है. अमीर खुसरो ने तेरहवीं शताब्दी में लिखा कि ‘मोहे अपने ही रंग में रंग दे ख्वाजा जी, मोहे सुहागन, रंग बसंती रंग दे….’ तो सत्रहवीं शताब्दी में बाबा बुल्लेशाह ने लिखा कि ‘होरी खेलूंगी कह बिस्मिलाह….’ जहांगीर, मुहम्मद शाह रंगीला, बहादुर शाह जफर और ऐसे कई बादशाहों ने धर्म की बंदिश से ऊपर उठकर होली को अपनाया. निश्चित रूप से यह सब केवल बादशाहों की चाहत मात्र से ही नहीं हो रहा होगा, बल्कि समाज में समन्वय की प्रक्रिया चल रही होगी. इसी का परिणाम था कि हाल तक मेरे गांव में होली गानेवाली टोलियां हिंदू-मुस्लिम घरों में अंतर नहीं करते थे. सारा गांव कई दिनों तक होली के रंग में डूबा रहता था.

होलिका और हिरण्यकश्यप की बहुचर्चित कहानी के अलावा एक और कहानी जुड़ी है होली के साथ. शिव का काम पर क्रोध करना और फिर उसे भस्म कर देना और अंत में काम की पत्नी रति के आग्रह पर उसे केवल भाव के रूप में वापस जीवित करना. यह कहानी बहुत प्रचलित तो नहीं है, लेकिन है काफी रोचक और इसके मनोविश्लेषण की जरूरत है.

कहीं ऐसा तो नहीं कि यह समाज के काम-संबंधी विकार के शोधन का भी एक महापर्व है. शायद यही कारण है कि होली का नाम आते ही गुदगुदी होती है लोगों के मन में. और यह याद दिलाती है कि प्रेम वासना नहीं है, बल्कि एक भाव है, शरीर से ऊपर उठ आत्मा तक पहुंचने का एक रास्ता है. इसी रास्ते का खोजी चैतन्य महाप्रभु का यह जन्मदिन भी है. यह सब केवल संयोग नहीं हो सकता है. निश्चित रूप से इसमें प्रकृति का कोई विधान निहित होगा.

लेकिन, अब यह सब कुछ बदल रहा है. गांव में अब ये टोलियां खत्म हो गयी हैं, प्रेम के वे गीत खत्म हो गये हैं, राधा से रंग खेलने का आग्रह खत्म हो गया है, प्रेम का भाव खत्म हो गया है, काम केवल वासना में बदलता जा रहा है, और संस्कृतियों के मिलन की प्रक्रियाएं खत्म हो रही हैं. 

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