कुछ दिन पूर्व जब रूस में हुए चुनाव में व्लादिमीर पुतिन को चौथी बार राष्ट्रपति चुन लिया गया, तो इस पर किसी को ज्यादा हैरत नहीं हुई और न ही इस खबर ने दुनियाभर में ज्यादा सुर्खियां बटोरीं। दरअसल, उनकी जीत तो प्रत्याशित ही थी। इस जीत से पुतिन रूस में जोसेफ स्टालिन के बाद सबसे लंबे समय तक राष्ट्रपति रहने वाले शख्स हो जाएंगे। रूस के बारे में माना जाता है कि वहां बहुदलीय लोकतंत्र है। लेकिन इसके शीतयुद्धकालीन आलोचकों को छोड़कर और कोई भी ‘दूसरी पार्टियों के प्रति सहानुभूति नहीं दर्शा रहा है। रूसी जनता और दुनियाभर में रूस पर नजर रखने वाले लोग वास्तव में यही सोच रहे हैं कि पुतिन अपने चौथे कार्यकाल के बाद आगे कौन सा पद संभालेंगे? न भूलें कि सत्ता के सूत्र अपने हाथ में रखने के लिए पुतिन राष्ट्रपति के तौर पर दो कार्यकाल के बाद खुद प्रधानमंत्री बन गए थे और दिमित्रि मेदवेदेव को अपनी जगह राष्ट्रपति बनवा दिया था।
बहरहाल, यहां पर एक बात और गौरतलब है कि पुतिन के पुन: चुने जाने के कुछ हफ्ते पूर्व ही चीन में शी जिनपिंग को ‘आजीवन राष्ट्रपति चुन लिया गया। यदि पुतिन ने कुछ ही लोगों द्वारा शासित बहुदलीय व्यवस्था को अपने हिसाब से इस्तेमाल किया, तो शी ने चीन में वर्ष 1950 से बगैर किसी चुनौती के सत्ता चला रही चीनी कम्युनिस्ट पार्टी पर अपना वर्चस्व स्थापित कर चीन के संविधान में राष्ट्रपति के दो कार्यकाल संबंधी प्रावधान में संशोधन पारित करवा लिया। जैसा कि कहते भी हैं – ‘झुकती है दुनिया…!
मजबूत नेताओं को एक साथ कई चीजें संभालना भी आना चाहिए। क्या हम नहीं देखते कि एक ओर मोदी भारत के किसी मेहमान राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री के साथ दिल्ली में वार्ता भी करते हैं और उसी दिन अपनी पार्टी के लिए किसी राज्य में चुनावी रैली को संबोधित करने भी पहुंच जाते हैं।
विरोधी चीजों को संभालना नेतृत्व की चुनौतियों का हिस्सा है। राष्ट्रपति चुनाव में अपने प्रचार अभियान के दौरान पुतिन ने खुलेआम यह घोषणा की कि रूस ऐसे ‘अजेय परमाणु हथियार विकसित करने की सोच रहा है, जो फ्लोरिडा तक मार कर सकें। यह सीधे-सीधे अमेरिका का तिरस्कार था। पुतिन ने चुनाव अभियान के दौरान पश्चिम के खिलाफ खूब आग उगली। इसके बावजूद अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने पुतिन को फोन कर बधाई दी। जबकि उनकी सरकार ने उन्हें ऐसा न करने की सलाह दी थी। कहा जाता है कि रूस ने पिछले अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव को प्रभावित करते हुए डोनाल्ड ट्रंप को हिलेरी क्लिंटन के खिलाफ जीतने में मदद की थी।
बहरहाल, इस वक्त जहां तकनीक दुनिया को आपस में समेटते हुए इसे एक वैश्विक गांव में तब्दील कर रही है, वहीं इंसान इसके उलट कर रहा है। वह इसी दुनिया को बांटते हुए अलग-अलग ‘राजनीतिक बस्तियों में तब्दील कर रहा है। पुतिन के पश्चिम-विरोधी बयान उनकी उसी राष्ट्रवादी छवि का हिस्सा हैं, जिससे वे अपने देशवासियों को लुभाते हैं।
ट्रंप ने 2016 का चुनाव ‘अमेरिका फर्स्ट के आधार पर जीता और वे दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों के साथ द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के दौर में बनी व्यवस्था व संबंधों को खतरे में डालते हुए ऐसा कर रहे हैं। वे भले ही भारत को लुभाना चाहते हों और मोदी से गलबहियां करते हों, लेकिन उन्होंने भारतीयों के लिए अमेरिकी वीजा पाना और भारतीय कंपनियों व बीपीओ आदि के लिए वहां काम करना काफी मुश्किल कर दिया है।
शी भी अपनी बातों और कृत्यों से विरोधाभास फैला रहे हैं। एक ओर वे अपने बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) का मकसद दुनिया को आपस में जोड़ना और इसे समृद्ध बनाना (अकथनीय रूप से अपना वर्चस्व स्थापित करना) बताते हैं, वहीं घरेलू मोर्चे पर उनकी सोच धुर राष्ट्रवादी है। उन्होंने खुलेआम कहा कि ‘वे चीन की संप्रभुता और इसकी एक-एक इंच जमीन की हर हाल में रक्षा करेंगे।
यह संदेश खासकर भारत के लिए था, जो चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव में शामिल होने से इनकार कर चुका है। भारत ने भी इसी तर्ज पर संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि सैयद अकबरुद्दीन के शब्दों में यह जता किया कि भारत और चीन, न तो दोस्त हैं और न दुश्मन! वे तो ‘दोस्त-दुश्मन हैं।
इतिहास बताता है कि अफ्रीका व एशिया का ज्यादातर इलाका यूरोपियों के आने से पहले तक सीमायी विभाजनों से अछूता था। यूरोपीय पहले इन इलाकों में व्यापारी और फिर औपनिवेशिक शासकों के तौर पर पहुंचे। उन्हें इन इलाकों को सीमाओं में बांटना और यहां रहने वाले लोगों को नस्लीय, क्षेत्रीय व धार्मिक आधार पर बांटना सहज लगा। इस प्रक्रिया के चलते ‘देशभक्त नेता उभरे, जिन्होंने पहले इन औपनिवेशिक शासकों के लिए काम किया, फिर वे उनसे लड़े और आजादी हासिल की। लेकिन सीमायी विभाजन बरकरार रहे, यहां तक कि हिंसा के जरिए भी नई सीमाएं निर्मित की गईं।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद दुनिया ने उपनिवेशों की मुक्ति का दौर देखा, जिससे पश्चिमी औपनिवेशिक शासकों की ताकत घटी। उस प्रक्रिया से पं. जवाहरलाल नेहरू से लेकर मिस्र के जमाल अब्देल नासेर जैसे युवा नेता उभरे। ऐसे ज्यादातर नेताओं ने अपनी नई व पुरानी राष्ट्रीय पहचान को कायम रखते हुए दुनिया के दूसरे देशों तक पहुंच स्थापित की।
1980 के दशक में जब शीतयुद्ध का तनाव चरम पर था, तब अमेरिका ने रोनाल्ड रीगन को और ब्रिटेन ने मार्गरेट थैचर को चुना, जो कि संरक्षणवाद की लहर पर सवार होकर सत्ता तक पहुंचे थे। आज के दौर में दुनिया के अनेक देशों में संरक्षणवादी रवैया अब कहीं ज्यादा तीक्ष्ण व जटिल हो गया है। ट्रंप, पुतिन और शी के अलावा आज फिलीपींस में रोड्रिगो दुतेर्ते हैं, हंगरी में विक्टर ऑरबन, इंडोनेशिया में जोको विडोडो, केन्या में उहुरु केन्याता और ऐसे कई नेता हैं। ब्रिटेन के ‘ब्रेक्जिट में भी संकीर्ण राष्ट्रवाद का मजबूत तत्व निहित था, जब ब्रिटेन डेविड कैमरॉन के अधीन योरपीय संघ से अलग होने की रस्साकशी में उलझा था। ट्रंप द्वारा मेक्सिको की सीमा पर दीवार निर्मित करने की घोषणा ने मेक्सिकन्स को भी ‘राष्ट्रवादी बनने के लिए मजबूर कर दिया।
निश्चित तौर पर दुनिया ‘मेरा देश सर्वप्रथम जैसे राष्ट्रवाद और संरक्षणवाद की ओर लौट रही है। यह परिदृश्य 1980 के दशक या उससे पहले के किसी भी दौर से काफी अलग व जटिल है। आज के नए राष्ट्रवादी नायकों के लिए उम्र की कोई सीमा नहीं है। ट्रंप और शी की उम्र सत्तर साल से ज्यादा है तो पुतिन 65 साल के हैं। देखना होगा कि इन नेताओं की यह संरक्षणवादी प्रवृत्ति दुनिया को किस मोड़ पर लेकर जाएगी।
No comments:
Post a Comment