क्या दक्षिण भारत कुछ ज्यादा ही विरोध प्रदर्शन करता है? दक्षिण भारत के राज्यों के मुख्यमंत्री और मंत्री एकजुट होकर हालिया वित्त आयोग की शर्तों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करने जा रहे हैं। वित्त आयोग हर पांच साल में ऐसी अनुशंसा देता है कि केंद्रीय कर राजस्व का कितना हिस्सा राज्यों के साथ साझा किया जाना चाहिए और प्रत्येक राज्य की कितनी हिस्सेदारी होनी चाहिए? नए आयोग से कहा गया है कि वह अपना निर्णय 2011 की जनगणना को ध्यान में रखकर ले सकता है। जबकि इससे पहले तमाम आयोग की रिपोर्ट सन 1971 की जनगणना पर आधारित थी। पिछले आयोग ने सन 1971 और 2011 दोनों जनगणनाओं को ध्यान में रखा था।
इस बदलाव से थोड़ी नाराजगी पैदा हुई है क्योंकि दक्षिण के राज्यों को तिहरे संकट की आशंका है। पहला, आबादी पर नियंत्रण में उनका रिकॉर्ड बेहतर है इसलिए अगर 2011 की जनगणना का प्रयोग किया गया तो केंद्र से मिलने वाले कर राजस्व में उनकी हिस्सेदारी प्रभावित होगी। दूसरी बात, उनको पहले ही नुकसान हो चुका है क्योंकि गरीब राज्यों पर ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है। तीसरा, वस्तु एवं सेवा कर जो कि एक खपत कर है, वह भी अनुत्पादक यानी गरीब राज्यों को अधिक राजस्व प्रदान करेगा। एक लेखक ने तो यहां तक कह दिया कि केरल और तमिलनाडु जैसे राज्यों के लिए तो भारतीय गणराज्य के अधीन फलना-फूलना बहुत मुश्किल हो गया है।
कुछ हद तक यह जरूरी भी है। बिहार को केंद्रीय राजस्व में उसकी आबादी के हिसाब से सुनिश्चित हिस्सेदारी से एक फीसदी अधिक हिस्सा मिलता है। अगर बात देश के सबसे गरीब राज्य की हो रही हो तो इतने से कोई बहुत बड़ा फर्क नहीं पड़ता। इसके अलावा हर वित्त आयोग से कुछ राज्य लाभान्वित होते हैं तो कुछ को नुकसान होता है। 11वें और 14वें आयोग के दौरान दक्षिण के तीन राज्यों (तत्कालीन संयुक्त आंध्र प्रदेश अपवाद था) को केंद्रीय कर हिस्सेदारी में बहुत नुकसान उठाना पड़ा। लेकिन तब उत्तर और पूर्वी भारत के राज्यों उत्तर प्रदेश, एकीकृत बिहार, पश्चिम बंगाल और ओडिशा को भी नुकसान उठाना पड़ा था। पश्चिम के राज्यों महाराष्ट्र और गुजरात को इसका फायदा मिला। जाहिर है उत्तर बनाम दक्षिण के निष्कर्ष निकालने की हड़बड़ी नहीं करनी चाहिए। खासतौर पर तब जबकि आयोग से कहा गया है कि वह राजकोषीय प्रदर्शन और आबादी नियंत्रण को ध्यान में रखे।
एक आशंका यह भी है कि 2026 में जब राज्यवार लोकसभा सीटों के आवंटन की समीक्षा की जाएगी तो सन 2021 की जनगणना के आंकड़ों का इस्तेमाल होने से दक्षिण भारत के राज्यों में सीटों या लोकसभा में कुल सीटों में हिस्सेदारी में कमी आ सकती है। यह विचार भी भय फैलाने वाला है। 2014 को देखें तो अधिकांश राज्यों में प्रति 14 से 15 लाख लोगों पर एक लोकसभा सीट है। इसका राष्ट्रीय औसत 15 लाख से कुछ ज्यादा है। पूर्वोत्तर के राज्यों को छोड़ दें तो उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में यह 17.4 लाख और केरल में 12 लाख है।
सन 2026 में आबादी के मुताबिक सीटों का बंटवारा होने पर केरल की लोकसभा सीट 20 से घटकर 15 हो सकती हैं। इसे गलत कहा जा सकता है क्योंकि यह तो बेहतर प्रदर्शन करने वाले को दंडित करना हुआ। परंतु मौजूदा हकीकत भी ठीक नहीं है। प्रति 36 लाख मतदाताओं पर केरल को तीन सीट जबकि उत्तर प्रदेश को दो सीट दी जाती हैं। कर्नाटक में प्रति सीट मतदाता बिहार से कुछ अधिक हैं। हिमाचल प्रदेश तथा जम्मू कश्मीर में केरल के समान ही 12 लाख का आंकड़ा है। गोवा में प्रति लोकसभा सीट बमुश्किल 5 लाख का औसत है। समग्रता से देखें तो लोकसभा में प्रतिनिधित्व में कोई बड़ा बदलाव आने की आशंका कम ही है।
हिंदी प्रदेश के राज्यों का कर आधार काफी कमजोर है और वे केंद्रीय फंड पर बहुत अधिक निर्भर करते हैं। अपने कुल राजस्व के आधे या उससे अधिक के लिए उनकी निर्भरता केंद्र सरकार पर है। बिहार के मामले में यह आंकड़ा तीन चौथाई का है। जबकि इसकी तुलना में देखा जाए तो दक्षिण भारत के राज्य केंद्र पर कुल राजस्व के बमुश्किल एक तिहाई के लिए ही निर्भर हैं। यह असंतुलन अभी भी कायम है और इसे प्रति व्यक्ति व्यय में देखा जा सकता है। बिना पर्याप्त संसाधनों के आखिर गरीब राज्य अपने लोगों के स्वास्थ्य और शिक्षा आदि में सुधार कैसे ला पाएंगे। या फिर वे आबादी पर नियंत्रण भी कैसे कर पाएंगे? इसे समझना कोई मुश्किल नहीं है।
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