जिंस चक्र में बदलाव आ रहा है। एक दशक बाद जिंस कारोबारी तेल की तुलना में धातुओं और खनिज के कारोबार से अधिक कमाई कर पा रहे हैं। इलेक्ट्रिक वाहनों के आगमन को देखें तो भी जिंस चक्र में यह बदलाव केवल ऊर्जा से जुड़ा नहीं है। जो खनिज भविष्य में कम कार्बन उत्सर्जन करेंगे वे भी जिंस आपूर्ति के चक्र को व्यापक तौर पर प्रभावित करने वाले हैं। क्या खनिज संसाधनों पर नियंत्रण के लिए भारी होड़ मचेगी? क्या लंबी अवधि में संसाधनों की सुरक्षा के बेहतर विकल्प हमारे पास हैं?
मौजूदा समय में इलेक्ट्रिक वाहनों की तादाद 30 लाख है जिसके सन 2030 तक बढ़कर 4 करोड़ हो जाने का अनुमान है। इससे तेल की खपत में रोजाना करीब 10 लाख बैरल की कमी आएगी। परंतु इसका वास्तविक प्रभाव इलेक्ट्रिक वाहनों की बैटरी में इस्तेमाल होने वाले खनिज पर होगा। कोबाल्ट की मांग में पांच गुना तक का इजाफा हो सकता है। वहीं ग्लेनकोर कंपनी का उत्पादन सन 2020 तक दोगुना हो जाएगा। उम्मीद है कि यह बाजार की 40 फीसदी मांग पूरी करेगा। इन वाहनों के लिए पांच गुना ज्यादा तांबे की आवश्यकता होगी। इसके अलावा इन वाहनों की चार्जिंग के लिए अधिक बेहतर आधारभूत संरचना की जरूरत होगी। अतिरिक्त तांबे की मांग 400,000 टन तक हो सकती है। निकल मैंगनीज कोबाल्ट की बैटरियों में अतिरिक्त निकल और कम कोबाल्ट की मांग बढ़ रही है। इसकी वजह से बाजार में तंगी आ सकती है।
वर्ष 2016 में सीईईडब्ल्यू ने अपने एक अध्ययन में 12 प्रमुख खनिजों की पहचान की थी जिनका आर्थिक महत्त्व बहुत ज्यादा है और आपूर्ति का जोखिम भी। भारत के विनिर्माण क्षेत्र की वृद्घि की बात करें तो इनमें से सात और कुल 49 में से करीब आधे खनिजों का विश्लेषण किया गया। इनके मामले में भारत पूरी तरह आयात पर निर्भर है। यह परिदृश्य अब और अधिक चुनौतीपूर्ण है। भारत इलेक्ट्रिक वाहनों पर दांव लगाना और बैटरी विनिर्माण में जबरदस्त निवेश चाहता है। सीईईडब्ल्यू के विद्वानों का अनुमान है कि सन 2030 तक भारत को 400 गीगावॉट आवर्स बैटरी क्षमता की आवश्यकता होगी। यह इलेक्ट्रिक वाहनों के मौजूदा वैश्विक बाजार से करीब पांच गुना अधिक है। यानी सन 2030 तक भारत को 40,000 टन लिथियम की आवश्यकता होगी। जबकि लिथियम का मौजूदा वैश्विक उत्पादन ही 32,000 टन है। वहीं उस वक्त हमें करीब 131,000 टन कोबाल्ट की आवश्यकता होगी जो अभी 124,000 टन है।
खनिज की असुरक्षता के मद्देनजर विभिन्न देशों और कंपनियों के पास चार विकल्प हैं: संसाधनों की होड़, आपूर्ति शृंखला, स्थायी डिजाइन और व्यापार समझौते। कंपनियां विदेशों में खदानें खरीद रही हैं या फिर खनिज आपूर्ति के अनुबंध हथिया रही हैं। हालांकि दुनिया में लिथियम भंडार मौजूदा वार्षिक उत्पादन से 3,000 गुना अधिक है लेकिन आशंका है कि राजनैतिक हित आपूर्ति को प्रभावित करेंगे। चीन की कंपनियां 77 फीसदी परिशोधित कोबाल्ट उत्पादित करती हैं और वह जल्दी ही 90 फीसदी कोबाल्ट पर नियंत्रण कर सकतह हैं। चीन के विनिर्माता 50 से 77 फीसदी कैथोड और एनोड बाजार, इलेक्ट्रोलाइट सॉल्युशंस और लिथियम आयन बैटरी सेपरेटर बाजार पर कब्जा रख रहे हैं।
खनिजों पर कब्जे की यह नीति वहां की सरकार के इस मानक से सीधे जुड़ी हुई है कि वह चीनी बैटरियों और इलेक्ट्रिक वाहनों के लिए विशिष्ट बाजार तैयार करे। चीन की योजना तीन से चार साल में 150 गीगावॉट आवर उत्पादन क्षमता की है। गौरतलब है कि टेस्ला केवल 35 गीगावॉट आवर क्षमता निर्माण पर काम कर रही है। स्टेट रिजर्व ब्यूरो के भंडार में 5,000 टन कोबाल्ट है। विश्लेषकों का कहना है कि किसी कार निर्माता के पास लिथियम की आपूर्ति के दीर्घावधि के अनुबंध नहीं हैं। इसलिए कंपनियां अब अपनी आपूर्ति शृंखला दुरुस्त करने में लगी हैं।
चीन की वाहन कंपनियां, बैटरी निर्माता कंपनियां और खनन कंपनियां, इन सभी ने अर्जेन्टीना, ऑस्ट्रेलिया और क्यूबेक में लिथियम खदानों में तमाम अनुबंध किए हैं।बीएमडब्ल्यू लिथियम और कोबाल्ट की लंबी अवधि की आपूर्ति सुनिश्चित करने में लगी है। टेस्ला चिली के साथ बातचीत कर रही है जो दुनिया के सबसे बड़े लिथियम उत्पादकों में से एक है। टोयोटा ने हाल ही में एक ऑस्ट्रेलियाई कंपनी में 15 फीसदी हिस्सेदारी खरीदी है। यह कंपनी अर्जेन्टीना में लिथियम खनन करती है। जापान की सबसे बड़ी निकल खनन कंपनी में भी उसकी हिस्सेदारी है।
फोक्सवैगन को जहां पांच साल के लिए कोबाल्ट आपूर्ति जुटाने में खासी मशक्कत करनी पड़ी है वहीं चीन का इस आपूर्ति शृंखला पर दबदबा है। सन 2020 तक वह ग्लेनकोर से वैश्विक कोबाल्ट उत्पादन का आधा अपने पास रखेगा। चीन की मोलीबडेनम ने कॉन्गो में 2.65 अरब डॉलर मूल्य की खदान खरीदी है जो दुनिया का सबसे बड़ा कोबाल्ट भंडार वाला देश है। कीमतों में उतार-चढ़ाव का अर्थ यह है कि लंबी अवधि के अनुबंध खतरे में पड़ सकते हैं। सन 2015 में जब रेयर अर्थ (रासायनिक धातु तत्त्व समूह) की कीमतों में गिरावट आई थी तब अमेरिका में इकलौती चालू खदान दिवालिया हो गई थी। मूल्य के मामले में अधिक प्रतिस्पर्धी होने के लिए जापानी कंपनियों उबे, सुमितोमो, सेंट्रल ग्लास आदि ने अन्य एशियाई देशों में बैटरी उत्पादन में निवेश किया है। कुल मिलाकर परिदृश्य अनिश्चित है। कंपनियां भूराजनैतिक चिंताओं और लंबी अवधि के निवेश के बीच उलझी हैं।
तीसरा विकल्प है बेहतर डिजाइन और पुनर्चक्रण से खनिज की मांग को कम करना। बड़े इलेक्ट्रिक वाहन अधिक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जित करते हैं। एक औसत इलेक्ट्रिक वाहन बैटरी की क्षमता 2025 तक दोगुनी की जा सकती है। यूरोप में 5 फीसदी से भी कम लियॉन बैटरियों का पुनर्चक्रण किया जाता है। चीन में ऐसा कतई नहीं होता। छोटी बैटरियां और जरूरी पुनर्चक्रण खनिज असुरक्षा से जुड़ी चिंता कम कर सकता है। चौथा तरीका यह है कि खनिज संपन्न देशों के साथ प्राथमिकता आधारित व्यापार समझौते हों। विश्व व्यापार संस्थान के इलौरिया एस्पा के मुताबिक बहुपक्षीय अनुबंध जरूरी हैं क्योंकि विभिन्न देशों के बीच खनिज को लेकर बहुत कम समझौते हुए हैं। केंद्रीकृत निगरानी और खनिज संसाधनों के निर्यात पर नजर रखने के साथ-साथ इससे पारदर्शिता आएगी। कुछ खास खनिज पर निर्यात शुल्क को लागू करने के तरीके को लेकर बातचीत हो सकती है। खनिज निर्यातक देशों में इतना लचीलापन होना चाहिए कि वे उचित वजहों से प्रतिबंध लगा सकें, बजाय कि घरेलू उद्योग को संरक्षण देने के।
उपरोक्त में कोई विकल्प पूर्ण नहीं है। भारत को ऊर्जा और जिंस क्षेत्र में बदलाव के लिए संसाधनों की होड़ में लाभ और जोखिम के बीच संतुलन कायम करना होगा। अगर बेहतर डिजाइन और मजबूत कारोबारी समझौते होते हैं तो इस होड़ को रोका जा सकता है।
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