गुजरात के भावनगर जिले में पिछले हफ्ते एक दलित युवक की हत्या सामान्य कानून-व्यवस्था का मामला नहीं है। यह हत्या बताती है कि भारतीय समाज में वर्ण या जातिप्रथा की जड़ें कितनी गहरी हैं। कई लोगों पर उच्च जाति का अहंकार उन्माद की हद तक चढ़ा होता है और उन्हें अत्याचार या अपराध करने में भी हिचक नहीं होती। भावनगर के उमराला तालुका के टिम्बी गांव में प्रदीप नाम के इक्कीस वर्षीय दलित युवक की हत्या सिर्फ इसलिए कर दी गई कि उसे घुड़सवारी का शौक था। उसके बार-बार जिद करने पर उसके किसान पिता ने कोई आठ महीने पहले उसे घोड़ा खरीद दिया था। वह उस पर सवारी करता, घूमता-फिरता। लेकिन घोर सामंती मिजाज के कुछ सवर्णों को यह सहन नहीं हुआ। प्रदीप और उसके परिवार को बार-बार धमकियां दी गर्इं। घोड़ा बेच डालने की सलाह दी गई, और इसे न मानने पर परिणाम भुगतने की चेतावनी। आखिरकार प्रदीप को घोड़ा रखने और घोड़े पर घूमने की कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी। यह स्तब्ध कर देने वाली घटना जरूर है, पर अपनी तरह की पहली या अकेली नहीं। ऐसे जाने कितने वाकये गिनाए जा सकते हैं, जो बताते हैं कि हमारी संवैधानिक और सामाजिक तस्वीर के बीच कितना लंबा फासला है।
संविधान में सबको बराबर के अधिकार दिए गए हैं। लेकिन कानून के समक्ष समानता के प्रावधान के बावजूद हम देखते हैं कि दलितों के उत्पीड़न और अपमान की घटनाएं रोज होती हैं। कभी किसी दलित दूल्हे को घोड़े से उतार देने की खबर आती है, तो कभी मिड-डे मील के समय दलित बच्चों को अलग बिठाए जाने, तो कभी किसी दलित सरपंच को तिरंगा न फहराने देने की। पिछले दिनों खबर आई कि प्रधानमंत्री के ‘परीक्षा पर चर्चा’ उद्बोधन को सुनने के लिए हिमाचल प्रदेश के एक स्कूल में दलित बच्चों को बाहर बिठाया गया। ज्यादा वक्त नहीं हुआ, जब गुजरात में कुछ दलितों पर राजपूतों जैसी मूंछ रखने के लिए हमले हुए थे। उससे पहले गुजरात का उना कांड पूरे देश में चर्चा का विषय बना था। आंकड़े बताते हैं कि गुजरात देश के उन राज्यों में है जहां दलितों पर अत्याचार की घटनाएं सबसे ज्यादा होती हैं। वर्ष 2016 के सरकारी आंकड़ों के मुताबिक गुजरात में दलितों पर अत्याचार की घटनाएं 32.5 फीसद दर्ज हुर्इं, जो कि राष्ट्रीय औसत 20.4 फीसद से बहुत ज्यादा था। यही हाल उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान और आंध्र प्रदेश का भी है।
दूसरी तरफ दलितों पर अत्याचार के मामलों में दोषसिद्धि की दर काफी कम है। अनुसूचित जातियों और जनजातियों को उत्पीड़न से बचाने के लिए हालांकि विशेष कानून है, मगर पुलिस और प्रशासन के स्तर पर पीड़ित पक्ष के लिए अपेक्षित सहयोग पाना अमूमन मुश्किल ही रहता है। अकसर जांच के स्तर पर ही मामले को कमजोर कर दिया जाता है। यह कैसा भारत बन रहा है? क्या भारत अपनी इसी तस्वीर के बल पर दुनिया को अपनी महान सभ्यता और संस्कृति की सीख देगा? गुजरात की गिनती देश के अपेक्षया संपन्न राज्यों में होती है। लेकिन क्या विकास का मतलब फ्लाईओवर, बड़े बांध और एफडीआई वगैरह ही होता है? क्या सामाजिक समता और सामाजिक सौहार्द भी विकास की एक कसौटी नहीं होना चाहिए?
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