गर्मी शुरू हो गयी है. हम सब जानते हैं कि हर साल की तरह हमारे गांव, कस्बे और शहर पानी की कमी से जूझेंगे. लेकिन, इस विषय में हम तभी सोचते हैं, जब समस्या हमारे सिर पर आ खड़ी होती है. न तो सरकारों की ओर से कोई ठोस पहल होती है और न ही समाज की ओर से कोई अभियान छेड़ा जाता है. समस्या केवल कम बारिश की नहीं है.
बारिश होती भी है तो जल संरक्षण हम नहीं करते. जो हमारे तालाब हैं, उनको हमने पाट दिया है. शहरों में तो उनके स्थान पर बहुमंजिले अपार्टमेंट्स और मॉल खड़े हो गये हैं. झारखंड की ही मिसाल लें. यहां साल में औसतन 1400 मिलीमीटर बारिश होती है. यह किसी भी पैमाने पर अच्छी बारिश मानी जायेगी. लेकिन बारिश का पानी बहकर निकल जाता है, उसके संचयन का कोई उपाय नहीं है.
इसे चेक डैम अथवा तालाबों के जरिये रोक लिया जाये तो साल भर खेती और पीने के पानी की समस्या नहीं होगी. हालत यह है कि गर्मी ने अभी दस्तक भर दी है और देश के कई राज्यों में जल संकट पैदा हो गया है.
हाल में संयुक्त राष्ट्र की पहल पर दुनियाभर के शहरों का एक सर्वेक्षण कराया गया कि भविष्य में पानी की स्थिति कैसी रहने वाली है. इस सर्वे में पाया गया कि दुनिया के 11 बड़े शहर पानी की भारी कमी से जूझने वाले हैं.
इसमें दक्षिण अफ्रीका का केपटाउन शहर पहला बड़ा शहर है, जो पानी के संकट से दो-चार हो रहा है. केपटाउन की हालत इतनी खराब हो गयी है कि यहां पानी की राशनिंग की स्थिति आ गयी है. लोगों को रोजाना पानी नहीं मिलता और मिलता भी है तो सीमित मात्रा में. समस्या इतनी गहरा गयी है कि अब इससे बचने का रास्ता निकालने का वक्त ही नहीं रहा.
दुनिया के 500 बड़े शहरों में हुए एक सर्वेक्षण में पाया गया है कि हर चार में से एक शहर पानी की समस्या से जूझ रहा है. जल विशेषज्ञों का मानना है कि 2030 तक विश्व स्तर पर पीने के पानी की मांग और आपूर्ति में भारी अंतर हो जायेगा. विशेषज्ञ मानते हैं कि इसके तीन प्रमुख कारण हैं- जलवायु परिवर्तन, बेतरतीब विकास और जनसंख्या में भारी वृद्धि. लेकिन हमारी सरकारें और समाज अभी तक इसको लेकर सजग नहीं हैं. हाल के सर्वे में पाया गया कि जल्द ही देश का बेंगलुरु शहर ऐसे ही संकट का सामना करने जा रहा है. बेंगलुरु एक तरह से देश की तकनीकी राजधानी है. कर्नाटक में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं. बेंगलुरु और राज्य के अन्य अनेक हिस्से जल संकट से जूझ रहे हैं. लेकिन, मैंने जितनी भी राजनीतिक बहसें सुनी हैं, उनमें इसका जिक्र नहीं होता. राज्य का झंडा कैसा हो, इस पर बहस चल रही है. भाषायी मुद्दे को हवा दी जा रही है. लिंगायत समाज को विशेष व्यवस्था मिले, क्योंकि इस समाज के वोट बहुत हैं, ऐसे मुद्दे चर्चा में हैं.
दुर्भाग्य है कि जिस राज्य की राजधानी जल संकट की चपेट में है, उसे दूर करने के क्या उपाय होने चाहिए, उसका खाका कोई दल पेश नहीं करता. लोग भी जैसे इसे लेकर उदासीन हैं. मेट्रो स्टेशन के बोर्ड केवल कन्नड़ में लगें, इसको लेकर तो लोग सड़कों पर आ जाते हैं लेकिन शहर के जल संकट को लेकर कोई बड़ी रैली अथवा प्रदर्शन नहीं होता.
चिंताजनक खबर यह है कि गर्मी ने अभी देश में दस्तक भर दी है, जबकि देश के 91 जलाशयों में केवल 34 फीसदी पानी ही बचा है. यह पिछले साल की तुलना में सात फीसदी कम है. देश के उत्तर, मध्य और दक्षिण के ज्यादातर राज्य अभी से जल संकट का सामना कर रहे हैं.
जैसे-जैसे गर्मी और बढ़ेगी देश में जल संकट और बढ़ने की आशंका है. इससे झारखंड, बिहार और पश्चिम बंगाल भी अछूते नहीं हैं. केंद्रीय जल आयोग देश के 91 जलाशयों में पानी के स्तर की माॅनीटरिंग करता है. उसने जानकारी दी है कि जलाशयों में 54.39 घन मीटर पानी है जो कुल क्षमता का केवल 34 फीसदी है. यह स्थिति इसलिए उत्पन्न हुई है क्योंकि जनवरी और फरवरी में देश के राज्यों में मामूली बारिश हुई. लेकिन कुछ राज्य ऐसे भी हैं जिनमें इस दौरान बिल्कुल बारिश नहीं हुई.
इसमें गुजरात का एक बड़ा हिस्सा शामिल हैं. रबी की फसल के लिए यह बारिश बेहद महत्वपूर्ण होती है. साथ ही जल आपूर्ति में भी इसकी भूमिका अहम रहती है.
मौसम वैज्ञानिकों ने भविष्यवाणी की है कि इस साल देश का औसत तापमान 0.7 डिग्री सेल्सियस बढ़ जायेगा, यानी इस साल पिछले वर्षों की तुलना में अधिक गर्मी पड़ेगी. गुजरात के सौराष्ट्र के इलाके में तापमान 38.4 डिग्री पहुंच गया है. यह पिछले साल की तुलना में चार डिग्री अधिक है.
तापमान बढ़ने का सीधा असर खेती-किसानी पर पड़ेगा और पैदावार कम हो जायेगी. कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि देश का एक डिग्री तापमान बढ़ने से गेहूं, सोयाबीन, सरसों, मूंगफली और आलू की पैदावार में तीन से सात फीसदी की कमी आ जायेगी. पिछले साल के आर्थिक सर्वेक्षण कहा गया था कि मौसम के खराब मिजाज के कारण खेती-किसानी को 62 हजार करोड़ रुपये का नुकसान झेलना पड़ा था.
पानी का मौजूदा संकट सिर्फ पानी की कमी और मांग के बढ़ने की वजह से ही नहीं है. इसमें जल प्रबंधन की कमी का बहुत बड़ा हाथ है. अगर केंद्र व राज्य सरकारों और समाज ने जल व्यवस्था पर ध्यान नहीं दिया तो भारत के ज्यादातर बड़े शहरों में 2020 तक पानी उपलब्ध नहीं होगा.
केवल सरकारों के बूते के बात यह नहीं है. समाज को भी इसके लिए आगे आना होगा. हम लोग गांवों में जल संरक्षण के उपाय करते थे, वे भी हमने करने छोड़ दिये हैं. पर्यावरणविद् दिवंगत अनुपम मिश्र ने तालाबों पर भारी काम किया. उनका मानना था कि जल संकट प्राकृतिक नहीं मानवीय है. हमारे देश में बस्ती के आसपास जलाशय – तालाब, पोखर आदि बनाये जाते थे.
जल को सुरक्षित रखने की व्यवस्था की जाती थी. यह काम पूरे देश में प्रकृति के अनुकूल किया जाता था. इस काम के विशेषज्ञ थे लेकिन वे सामान्य लोग ही थे. लेकिन हमने अपने आसपास के तालाब मिटा दिये और जल संरक्षण का काम छोड़ दिया. आज तालाबों को दोबारा जिंदा करने की जरूरत है.
राज्य सरकारें यह काम करें तो बहुत अच्छा अन्यथा लोगों को इसकी पहल करनी चाहिए. झारखंड सरकार ने तालाबों के निर्माण का काम हाथ में लिया है. इससे लोगों को रोजगार के साथ साथ जल की आत्मनिर्भरता बढ़ेगी. भू-जल स्तर जिस तरह से नीचे जा रहा है, उसे रोकने का उपाय केवल जल संरक्षण ही है. यह जान लीजिए कि जल संरक्षण सीधे तौर से भोजन की सुरक्षा से भी जुड़ा है. इसलिए इसकी अनदेखी की भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है.
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