चिपको आन्दोलन की 45वीं जयन्ती पर गूगल ने डूडल के जरिये न सिर्फ एक पवित्र आन्दोलन की याद दिलाई, बल्कि देश के वनों की हालत पर पुनर्विचार करने का मौक़ा भी दे दिया। इस अवसर पर उत्तराखंड के वनों की दशा का भी जायजा लिया जाना चाहिए। यही नहीं, चिपको की सफलता-विफलता का भी आकलन होना चाहिए। आखिर चिपको से क्या मिला देश को? उन महिलाओं को क्या हासिल हुआ जो ठेकेदारों की कुल्हाड़ियों से रखवाली के लिए पेड़ों से चिपक गयी थीं।
इसमें कोई दो राय नहीं कि आज सारी दुनिया जलवायु परिवर्तन के गर्म थपेड़ों से आहत है। मौसम चक्र बदल रहा है, फसल चक्र बदल रहा है, मनुष्य को नई बीमारियों और चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। ऐसे में चिपको जैसे आन्दोलन की बरबस याद हो आती है। चिपको जितना प्रासंगिक 1970 के दशक में था, उससे भी ज्यादा प्रासंगिक आज है। तब उसकी जरूरत सिर्फ गढ़वाल के पर्वत जनों को महसूस हुई थी, आज समूची दुनिया महसूस कर रही है।
1970 के आसपास हमारे पास अपेक्षाकृत ज्यादा जंगल थे। सरकार जंगलों की कटाई के ठेके दिया करती थी। इसमें हर तरह के पेड़ कट जाते थे। जंगल भले ही सरकार के हाथ में थे, लेकिन उनके नजदीक रहने वालों को भी जंगलों से कुछ न कुछ मिल जाता था। चाहे जलावन की लकड़ी हो या पशुओं का चारा या कंद-मूल फल। जरूरत के लायक ईंधन की लकड़ी भी सरकारी अनुमति से मिलती थी। 1970 के आसपास उत्तराखंड में सर्वोदयी कार्यकर्ताओं ने प्रकृति और मनुष्य के रिश्तों को लेकर लोगों को जागरूक करना शुरू किया। गांधी के ग्राम-स्वराज और ग्राम-स्वशासन से परिचित कराना शुरू किया। लोगों को यह बताना शुरू किया कि प्राकृतिक संसाधनों पर पहला अधिकार वहां रहने वालों का है।
इसी बीच मार्च 1973 में चमोली जिले के मंडल गांव के लोगों ने अपने इस्तेमाल के लिए दस पेड़ मांगे लेकिन सरकार ने साफ़ मना कर दिया। जबकि तभी इलाहाबाद की साइमन नाम की कम्पनी को 300 पेड़ काटने का ठेका दे दिया जो खेल का सामान बनाती थी। दशौली ग्राम स्वराज्य मंडल नामक संस्था के तहत एकत्र लोगों ने इस फैसले का पुरजोर विरोध किया। यह 27 मार्च 1973 की घटना है। इसका असर यह हुआ कि साइमन के लोगों को वापस जाना पडा। इसके बाद साल भर तक रस्साकशी चलती रही। कहानी में नाटकीय मोड़ तब आया, जब 26 मार्च 1974 को साइमन के लोग पेड़ काटने के लिए चमोली जिले के रेंणी गांव पहुंचे।
50 साल की गौरा देवी के नेतृत्व में गांव की औरतें जंगल जाकर पेड़ों से लिपट गयीं। उन्होंने रात-रात भर पेड़ों की रखवाली की और पेड़ काटने वालों को पास नहीं फटकने दिया। कहा—पहले हमें काटो, फिर पेड़। देखते ही देखते यह खबर जंगल की आग की तरह सब तरफ फैल गयी। आने वाले महीनों में टिहरी की हेंवल घाटी, नरेन्द्र नगर, उत्तरकाशी, नैनीताल और अल्मोड़ा सब तरफ पेड़ काटने का विरोध हुआ। निस्संदेह गौरा देवी चिपको आन्दोलन की नायिका बनकर उभरीं। चंडी प्रसाद भट्ट, सुन्दर लाल बहुगुणा जैसे सर्वोदयी नेताओं के अतिरिक्त उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी के लोग भी इसमें शामिल हुए। यह आन्दोलन 1980 तक चलता रहा। कहीं-कहीं सरकार पेड़ कटवाने में सफल भी हुई, लेकिन ज्यादातर जगहों पर उसे जबरदस्त अहिंसक विरोध का सामना करना पडा। 1980 में जाकर इंदिरा गांधी को उत्तराखंड में वनों के कटान पर रोक का ऐलान करना पड़ा।
चिपको आन्दोलन के दौरान जो नारा सबसे ज्यादा लगा, वह था—
क्या हैं जंगल के उपकार, मिट्टी, पानी और बयार।
मिट्टी, पानी और बयार, ज़िंदा रहने के आधार…
सबसे बड़ी बात यह थी कि यह नारा गांव की अनपढ़ स्त्रियां लगा रही थीं। चिपको ने टिकाऊ विकास की अवधारणा दुनिया के सामने रखी। आज वैज्ञानिक कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन का सबसे बड़ा कारण जंगलों की कटाई है। धरती का इस्तेमाल बदलने से कार्बन का सबसे ज्यादा उत्सर्जन हुआ। ग्रीन हाउस गैसों के बढ़ने से धरती लगातार गर्म होती गयी। 1930 में हमारे देश की 26.4 प्रतिशत भूमि वनों से आच्छादित थी, जो आज घट कर 20 प्रतिशत रह गयी है। जबकि देश में 33 प्रतिशत भूमि वनों से ढकी होनी चाहिए। पिछले कुछ वर्षों से वन भूमि का क्षेत्रफल बढ़ रहा है, लेकिन यह अभी नाकाफी है।
ऐसा नहीं है कि सरकार को इसका पता नहीं है। सरकार ने वनों के कटान को कम करने के मकसद से 1980 में वन संरक्षण क़ानून बनाया, जिसमें 1988 में संशोधन भी हुआ। चूंकि नीति-नियोजक जमीन से कटे होते हैं, इसलिए इससे लोगों की आकांक्षाएं पूरी नहीं हुईं। नतीजा यह हुआ कि चिपको के मुद्दों को दबा दिया गया। चिपको एक फैशन बन गया। उसे बड़े-बड़े पुरस्कार मिलने लगे। लेकिन जमीनी स्तर पर लोग उपेक्षित ही रहे। नीति नियोजकों ने ऐसे वनों को वरीयता दी, जिससे मुनाफा अधिक हो। पड़ोस के वन पर गांव वासियों का अधिकार ख़त्म कर दिया गया, जिससे वनों के प्रति जो आत्मीय भाव 1970 के दशक तक लोगों में था, वह ख़त्म हो गया।
आज वन हैं, गांववासी हैं लेकिन उनके आपस में कोई रिश्ता नहीं बचा। इसलिए अब जब जंगलों में आग लगती है तो गांव वाले बुझाने नहीं जाते। मजदूरी मिलती है तो चले जाते हैं। उतना ही काम करते हैं, जितनी मजदूरी। इसलिए गर्मियों में अब पहाड़ों में शीतल हवाओं से नहीं, धुएं और आग की लपटों से स्वागत होता है। चीड़ के जो जंगल 3000 फुट ऊंचाई तक ही हुआ करते थे, आज सात हजार फुट तक पहुंच चुके हैं। इसकी मौजूदगी में पारंपरिक वृक्ष और अन्य वनस्पतियां ख़त्म हो रही हैं। इसलिए आग भी ज्यादा लगती है, जिससे जीव-जंतु और औषधीय वनस्पतियां उजड़ती जा रही हैं। यानी नया वन क़ानून वनों के संवर्धन की बजाय उन्हें और कमजोर बना रहा है।
रेंणी गांव की गौरा देवी की सहयोगी बाली देवी कहती हैं, ‘पहाड़ों का दोहन जारी है। केदारनाथ जैसी आपदाएं फिर हो सकती हैं। चिपको आन्दोलन जरूर सफल हुआ लेकिन समस्याएं बढ़ गयी हैं। आज हमारे जंगल पर नंदा देवी बायो रिजर्व बन गया है। इस पर सरकार का नियंत्रण है। गांव वालों को पास तक फटकने नहीं दिया जाता जबकि उस पर सदियों से हमारा अधिकार था। आन्दोलन करने पर वे हमें चोर बताकर जेल डाल देते हैं। पहले ठेकेदारों से लड़ लेते थे, आज उनकी जगह सरकार और वन निगम ने ले ली है। उनसे लड़ना हमारे बस की बात नहीं है। चिपको करके हम फंस गए। अब और नहीं फंसेंगे।’
जिस चिपको ने दुनिया का ध्यान अपनी तरफ खींचा था, जिस चिपको में पर्यवारणविद् जलवायु परिवर्तन की चुनौती से जूझने की ताकत देखते हैं, आज भी जिस चिपको की नक़ल पर लोग अपने इलाकों में गांधीगिरी करते हैं, उस चिपको का ऐसा हश्र होगा, यह कौन जानता था। लेकिन यह तो होना ही था क्योंकि हमारी नीतियां ही ऐसी हैं।
गोविन्द सिंह
लेखक केंद्रीय विवि जम्मू में
पत्रकारिता के प्राध्यापक हैं।
सौजन्य – दैनिक ट्रिब्यून।
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