नेपाल के दोबारा प्रधानमंत्री बनने के बाद जब के. पी. शर्मा ओली का भारत आने का कार्यक्रम बना तो वैसा उत्साह नहीं था जैसा आम तौर पर नेपाल के नेताओं के आगमन को लेकर होता था। शुष्क कूटनीतिक संबंधों के परे भारत-नेपाल के संबंधों में विशेष किस्म का भाईचारा रहा है। जितनी संवेदनशीलता नेपाल को लेकर भारत में रही है, उतनी शायद ही किसी देश के प्रति रही हो। किंतु ओली जब पिछली बार प्रधानमंत्री बने थे भारत के साथ संबंध काफी खराब दौर में पहुंच गएथे। मधेसियों और जनजातियों ने अपने साथ अन्याय के विरु द्ध जो आंदोलन छेड़ा था, उसने नेपाल के लिए राशन से लेकर तेल, औषधियां सबका संकट पैदा कर दिया था। ओली ने आरोप लगाया था कि भारत जानबूझकर इस आंदोलन को बढ़ावा दे रहा है। उस समय के उनके तथा नेपाली मंत्रिमंडल के अन्य सदस्यों के बयानों को देखें तो लगेगा ही नहीं कि दोनों देशों के बीच वाकई कभी घनिष्ठ संबंध रहे हैं। भारत के खिलाफ वातावरण बनाया गया, नेपाली केबल से भारत के टीवी चैनल हटा दिए गए, भारतीय सिनेमा प्रतिबंधित हो गया, भारतीय नम्बर की गाड़ियां हमले की शिकार हुई, काठमांडू दूतावास की गाड़ी फूंकी गई। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के पुतले भी फूंके जाने लगे। प्रतिक्रिया में चीन के साथ संबंधों को सशक्त करके भरपाई करने की कोशिश हुई। यह बात अलग है कि कम से कम अभी की भौगोलिक स्थिति में चीन, नेपाल के लिए भारत का स्थानापन्न नहीं कर सकता था। हालांकि उसके बाद फरवरी, 2016 में ओली भारत आए। उस समय नौ समझौते हुए। किंतु उनकी सोच बदल गई हो ऐसा मान लेने का प्रमाण हमारे पास उपलब्ध नहीं है। परंपरा के अनुरूप इस बार उन्होंने अपनी विदेश यात्रा की शुरुआत भारत से की है, जो सकारात्मक संकेत है। प्रधानमंत्री मोदी के साथ मिलकर बीरगंज में जिस नये इंटिग्रेटेड चेक पोस्ट का उद्घाटन किया है, उससे दोनों देशों के बीच व्यापार और लोगों का आवागमन बढ़ेगा। दोनों नेताओं ने मोतिहारी और अमलेखगंज के बीच तेल पाइप लाइन बिछाने की आधारशीला रखी। रक्सौल और काठमांडू के बीच रेललाइन बिछाने पर सहमति हुई। ऐसा हो जाने से केवल दिल्ली ही नहीं, भारत के सभी कोनों से नेपाल जुड़ जाएगा। इस साल के अंत तक जयनगर से जनकपुर/कुर्था तथा जोगबनी से विराटनगर कस्टम यार्ड के बीच रेललाइन तैयार हो जाएगी। जयनगर-विजलपुरा-वर्दीवास और जोगबनी-विराटनगर परियोजनाओं के शेष हिस्से पर काम आगे बढ़ाया जाएगा। जल परिवहन को विकसित करने का मतलब है नदियों के साथ नेपाल का समुद्र तक प्रवेश। इस तरह देखें तो भारत, नेपाल के विकास तथा वहां के नागरिकों एवं सरकार, दोनों के साथ पूर्व के संबंधों के अनुरूप ही सहयोग के रास्ते बढ़ रहा है। कुछ लोग रेललाइन को चीन द्वारा तिब्बत से होकर नेपाल तक रेल मार्ग विकसित करने की योजना का जवाब मान रहे हैं। लेकिन भारत का कदम प्रतिक्रियात्मक नहीं है। न्यू जलपाईगुड़ी-काकरभिट्टा, नौतनवां-भैरहवा और नेपालगंज रोड-नेपालगंज रेल परियोजनाओं पर भी विचार चल रहा है। कोई संबंध एकपक्षीय नहीं हो सकता। ओली को विश्वास तो दिलाना होगा कि पिछले बयानों से उन्होंने अपने अंदर भारत विरोधी भाव गहरा होने का जो संदेश दिया था, वह बदल गया है। उन्होंने भारत के साथ व्यापार असंतुलन की बात की और भारत ने कहा कि इसे साथ मिलकर ठीक करेंगे। तो सब कुछ उनके अनुकूल हुआ। ओली ने भारत आने के पूर्व एक अखबार से बातचीत में कह दिया कि भारत को दोनों देशों के बीच भरोसा बढ़ाने के साथ ही एक संप्रभु देश के फैसलों का सम्मान करना चाहिए। लेकिन भारत ने संप्रभु देश के रूप में नेपाल का कब सम्मान नहीं किया है? मान भी लें कि भूतकाल में भारत की ओर से व्यवहारत: कुछ गलतियां हुई होंगी लेकिन दो दशक से ज्यादा समय से तो ऐसा कुछ होते नहीं दिखा। चीन के साथ संबंधों को लेकर उनका कहना था कि हमारे पड़ोस में दो बड़े देश हैं। हमें दोनों देशों से दोस्ती रखनी है। लेकिन हांगकांग के एक अखबार से ओली ने कहा था कि भारत के साथ हमारी बेहतरीन कनेक्टिविटी है, खुली सीमा है। लेकिन यह भी नहीं भूल सकते कि हमारे दो पड़ोसी हैं। हम किसी एक देश पर ही निर्भर नहीं रहना चाहते। केवल एक विकल्प पर नहीं। इसका अर्थ समझना कठिन नहीं है। नेपाल संप्रभु देश है। किससे संबंध रखे और न रखे यह उसका अधिकार है। किंतु उसे किसी देश से संबंध बनाते वक्त ध्यान जरूर रखना चाहिए कि इससे कहीं भारतीय हित तो प्रभावित नहीं होंगे। ओली ने जिस तरह मोदी के सामने पाकिस्तान की वकालत की वह आघात पहुंचाने वाली है। उन्होंने मोदी से इस्लामाबाद सार्क सम्मेलन में भाग लेने का आग्रह किया। क्या ओली को नहीं पता कि भारत, पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद से कितना पीड़ित है? 2016 में इस्लामाबाद सम्मेलन में भारत जाने को तैयार था, लेकिन उरी हमला हो गया और उस पर पाकिस्तान ने जो रुख अपनाया उसके बाद विवश होकर भारत को वहां न जाने का निर्णय करना पड़ा और सार्क सम्मेलन न हो सका। यह जानते हुए भी ओली ने यदि यह प्रस्ताव दिया तो इसे सभ्य कूटनीतिक व्यवहार नहीं कहेंगे। इसका जवाब दूसरे तरीके से भी दिया जा सकता था, किंतु कूटनीतिक शिष्टाचार को ध्यान रखते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने उनसे शालीनतापूर्वक कह दिया कि आतंकवाद के जारी रहते भारत के लिए पाकिस्तान में सार्क सम्मेलन में जाना संभव नहीं होगा। पिछले महीने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को नेपाल बुलाकर उन्होंने जिस तरह उनकी आवभगत की उसे नेपाल अपनी स्वतंत्र विदेश नीति कह सकता है, लेकिन साफ था कि इसके पीछे चीन की भूमिका थी। क्या सच नहीं है कि चीन दक्षिण एशिया में भारत को अलग-थलग करने नीति पर चल रहा है? उसने क्षेत्र के देशों के लिए थैली खोल दी है। हमारा आग्रह होगा कि ओली और नेपाल के दूसरे नेता इस रणनीति का हथियार न बनें। हम सार्क की सफलता चाहते हैं, लेकिन अभी तक इसके मार्ग की बाधा पाकिस्तान ही रहा है। ओली अपने देश को सामाजिक-आर्थिक समस्याओं से बाहर निकालने पर ध्यान केंद्रित करें। इस तरह नेतागिरी करने से क्षति नेपाल को ही होगी।
Wednesday, 11 April 2018
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