Wednesday, 11 April 2018

संसदीय लोकतंत्र में संसद न चलने से होने वाले नुकसान

संसद लोकतंत्र की सर्वोच्च पंचायत है। वहां देशहित से जुड़े सभी अहम मुद्दों पर चर्चा की जाती है, कानून बनाए जाते हैं, जनता की समस्याओं पर बात होती है और उनका समाधान खोजा जाता है, लेकिन सत्ता पक्ष और विपक्ष के राजनीतिक द्वेष के चलते बजट सत्र के दूसरे चरण में संसद की कार्यवाही का हंगामे की भेंट चढ़ना बेहद शर्मनाक और चिंताजनक है। इससे न केवल देश के करोड़ों रुपयों की बर्बादी हुई है, बल्कि कई अहम विधेयक भी अधर में लटक गए हैं। हालांकि बजट सत्र होने के कारण यह सत्र मुख्य रूप से वित्तीय कामकाज को समर्पित था। इसका पहला चरण 29 जनवरी से 9 फरवरी तक रहा था। उस दौरान एक फरवरी को वित्त वर्ष 2018-19 का केंद्रीय बजट पेश किया गया। लोकसभा में 12 घंटे 13 मिनट और राज्यसभा में नौ घंटे 35 मिनट केंद्रीय बजट पर चर्चा हुई।


पहले चरण में लोकसभा में करीब 134 प्रतिशत और राज्यसभा में करीब 96 प्रतिशत कामकाज हुआ था। यानी उत्पादकता की दृष्टि से बजट सत्र के पहले चरण को ठीक माना जा सकता है, लेकिन सत्र का दूसरा चरण, जो 5 मार्च से 6 अप्रैल तक रहा, वह भारत के संसदीय लोकतंत्र के इतिहास में कामकाज के ठप होने का रिकॉर्ड बनाकर खत्म हुआ। इस चरण के दौरान लोकसभा में केवल और केवल 4 प्रतिशत, जबकि राज्यसभा में मात्र 8 प्रतिशत कामकाज हुआ।


2000 के बाद सबसे खराब रहा 2018 का सत्र:


बजट सत्र के दोनों चरणों के आंकड़ों को देखें तो इस दौरान लोकसभा में महज 23 प्रतिशत और राज्यसभा में 28 प्रतिशत कामकाज हुआ। लोकसभा की 29 और राज्यसभा की 30 बैठकें हुईं। लोकसभा की कार्यवाही केवल 34 घंटे 05 मिनट ही चल सकी, जबकि 127 घंटे 45 मिनट कार्य बाधित रहा। राज्यसभा में भी कुछ ऐसा ही नजारा देखने को मिला। उच्च सदन में 44 घंटे ही कामकाज चल पाया, वहीं 121 घंटे बर्बाद हो गए और 27 दिन तक सदन में प्रश्नकाल नहीं हो सका। कारण यही है कि इस बार 18 वर्ष पहले वर्ष 2000 में हुए सबसे कम संसदीय कामकाज का रिकॉर्ड भी टूट गया है। पहले वर्ष 2000 को संसद के कम कामकाज के लिए याद किया जाता था, अब इसके लिए 2018 को याद किया जाएगा।


अविश्वास प्रस्ताव पर भी चर्चा न हो सकी:

कुल मिलाकर बजट सत्र में संसद के करीब 250 घंटे और देश के करीब 190 करोड़ रुपये बर्बाद हुए। इस दौरान संसद के दोनों सदनों में कांग्रेस और विपक्षी दलों ने पीएनबी घोटाला, आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा, कावेरी नदी जल विवाद, एससी-एसटी एक्ट, यूपी के कैराना जैसे मामलों पर हंगामा किया। दूसरे चरण में तो आलम यह रहा कि न तो प्रश्नकाल चल पाया और न ही शून्यकाल। और तो और संसद में जारी गतिरोध के बीच तेलुगु देसम पार्टी (टीडीपी), टीआरएस और वाईएसआर कांग्रेस द्वारा अविश्वास प्रस्ताव के लिए दिए गए नोटिसों पर चर्चा भी नहीं हो सकी। हैरत की बात है कि एक तरफ तो विपक्ष अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा चाहता था तो दूसरी तरफ सदन की कार्यवाही चलने नहीं दे रहा था। उसका यह विरोधाभासी रवैया किसी की समझ में नहीं आया।


नहीं हो सके कई जरूरी बिल पास:


बजट सत्र के दौरान लोकसभा में पांच विधेयक पेश किए गए, जबकि राज्यसभा में एक विधेयक पेश हुआ। कुल मिलाकर देखें तो सबसे महत्वपूर्ण वित्त विधेयक 2018 (बजट) समेत सिर्फ पांच विधेयक ही पारित हो सके। बजट के अलावा अन्य विधेयकों में ग्रेच्युटी भुगतान (संशोधन) विधेयक 2018 (दोनों सदनों द्वारा पारित), विशिष्ट राहत (संशोधन) विधेयक 2018 (लोकसभा द्वारा पारित) शामिल हैं। चूंकि विनियोग विधेयक और वित्त विधेयक को लोकसभा से पारित कराने के बाद राज्यसभा ने इन्हें 14 दिन के भीतर नहीं लौटाया, इसलिए संविधान के अनुच्छेद 109 के खंड (5) के अंतर्गत इन्हें लौटाने की अंतिम तिथि 28 मार्च को समाप्त हो जाने पर संसद द्वारा इन्हें पारित मान लिया गया। दूसरी तरफ देश हित से जुड़े कई जरूरी विधेयक दोनों सदनों में लंबित रहे, जिन पर चर्चा नहीं हो सकी। प्रस्तावित विधेयकों में कुछ ऐसे विधेयक भी थे, जो अतिआवश्यक थे। अब उनके पारित न होने के कारण सरकार को अध्यादेश का सहारा लेना पड़ सकता है। अध्यादेश संसदीय लोकतंत्र में अस्वीकार्य होते हैं, लेकिन सरकार को आखिर काम तो करना ही पड़ेगा।


आराम से राय देना विपक्ष की परिपक्वता दर्शाता:


संसद न चलने से होने वाले नुकसान को केवल वही समझ सकता है, जो आम जनता और देश हित में लिए जाने वाले निर्णयों को गंभीरता से लेता हो। संसद में जनता अपने द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों को समाज की भलाई के लिए भेजती है। सदन में महत्वपूर्ण मामलों पर चर्चा की जाती है, बहस होती है ताकि कोई भी मुख्य बिंदु पिछड़ न जाए। सत्तापक्ष जिन विधेयकों को संसद के पटल पर रखता है, उसमें क्या खामियां हैं और उसे लाने के पीछे क्या मकसद है, अगर विपक्ष इन पर आराम से अपनी राय रखे और कुछ सुझाव दे तो वह उसकी परिपक्वता को दर्शाता है, लेकिन जिस तरह से हमारे देश की कमान संभालने वाले ही इसको गर्त की ओर लेकर जा रहे हैं, वैसा किसी भी लोकतांत्रिक देश में नहीं होता है। जनता जिन सक्षम सांसदों को सदन तक पहुंचाती है, वही यहां अपने अक्षम होने का साक्ष्य स्वयं दे देते हैं।


दोषी सिर्फ विपक्ष ही नहीं है:


चिंता की बात यह है कि संसद की प्रतिष्ठा को दांव पर लगाने वाले सांसदों में बिल्कुल भी संकोच नहीं दिखता। संसद चलाने के नियमों को ताक पर रखने वाले देश के लिए कैसे काम करेंगे? क्या जनता ने उन्हें हंगामे के लिए चुना है? ऐसा नहीं है कि विपक्ष ही इसके लिए दोषी है, क्योंकि ताली तो दोनों हाथों से ही बजती है। इसलिए संसद को नहीं चलने देने में उन लोगों का भी दोष है, जो विधेयक पारित कराने में कमजोर साबित हुए हैं। जवाब मिलना चाहिए कि सरकार ने संसद के गतिरोध को दूर करने का रास्ता क्यों नहीं खोजा? राजनीतिक दलों को संसद की गरिमा को बनाए रखना होगा, नहीं तो वह दिन दूर नहीं, जब जनता का संसदीय लोकतंत्र पर से भरोसा उठ जाएगा। जरूरत जनता के भरोसे को बनाए रखने की है, क्योंकि लोकतंत्र में असली मालिक देश की जनता ही होती है।

(कार्तिकेय हरबोला)


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