हमारे देश में जब भी हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मीडिया की आजादी की बात करते हैं तो हम सीधे 1975 में पहुंच जाते हैं और आपातकाल के हालात का जिक्र करने लगते हैं। यह सही है कि तब अखबारों को नियंत्रित करने का प्रयास किया गया। वह दौर पत्रकारिता के लिए बेहद खराब था। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ल ने बाद में इसे गलत माना और इसके लिए माफी भी मांगी। शायद उन्हें आज तक माफ नहीं किया जा सका है। हो सकता है कि यह सही भी हो लेकिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिहाज से कहें तो देश के वर्तमान हालात भी आपातकाल के दौर से कम तो नहीं हैं। अंतर है तो केवल इतना कि सरकार के तौर-तरीकों में बदलाव आ गया है।
पिछले दिनों राजस्थान में जो हुआ, वह तो सबके सामने ही है। कानून के जरिये मीडिया का मुंह बंद करने की कोशिश ही तो थी। ऐसा नहीं है कि एक विशेष राजनीतिक दल ही ऐसा करता हो, जो भी दल सत्ता में होता है वह अपने विरुद्ध खबरों के प्रकाशन-प्रसारण को रोकने की हर संभव कोशिश करता है। कभी विज्ञापनों का प्रलोभन होता है तो कभी विज्ञापनों को रोकने की धमकी दी जाती है।
कभी विज्ञापन सीमित कर दिए जाते हैं तो कभी बिल्कुल ही बंद कर दिए जाते हैं। किसी न किसी प्रकार से मीडिया पर दबाव बनाने की कोशिश होती ही रहती है। इतना ही नहीं, कहीं-कहीं तो कानून का दुरुपयोग करते हुए मानहानि के मुकदमे ही कर दिए जाते हैं। अमित शाह के पुत्र जयंत शाह के मामले में भी ऐसे ही आरोप लग रहे हैं। हालात तो ऐसे हैं कि पत्रकारों को जेल तक में डाल दिया जाता है। गौरी लंकेश जैसी निर्भीक पत्रकार को सच लिखने की कीमत जान देकर चुकानी पड़ती है। ऐसा करने वालों को धमकाने का दौर शुरू हो जाता है।
हमारे देश में लोकतंत्र है। जाहिर है, लोकतंत्र में सबको बोलने व लिखने की आजादी है। मीडिया का तो काम ही यही है कि सरकारी या गैर सरकारी स्तर पर भी यदि कुछ गलत हो रहा है तो उसे आईना दिखाए। लेकिन आज के दौर में तो पत्रकारों को सरकारी खबरों से दूर रखने की कोशिश होती है। सकारात्मक या मनमुताबिक खबर नहीं हो तो सरकारी अफसर, राजनेता और कॉर्पोरेट घरानों की ओर से भी दबाव बनाया जाना आम होने लगा है। कॉर्पोरेट घराने भी विज्ञापन बंद करने की धमकी देकर दबाव बनाते हैं।
ये हालात तो शहरों में है, जरा सोचिए ग्रामीण इलाकों में हालात कितने भयावह होंगे। ग्रामीण इलाकों में हो रही पत्रकारिता के जरिए ही तो पता लग पाता है कि किस कदर जंगल के जंगल साफ हो रहे हैं। अवैध तरीके से लकड़ी काटी जा रही है। अवैध खनन हो रहा है। लेकिन, वहां भी दबाव बनाकर खबरों को रोकने की कोशिश हो रही है। सरकार और कॉर्पोरेट घरानों का दबाव काम नहीं आ पाता तो आपराधिक तत्वों के जरिए मीडिया का गला घोंटने की कोशिश की जाती है। उनकी कोशिश रहती है कि मीडिया के लोग केवल जनसंपर्क अधिकारियों की तरह चुपचाप मुंह बंद करके काम करते रहें।
केवल भारत में ही ऐसा नहीं हो रहा। दो दिन पहले अफगानिस्तान में हुए बम हमलों में 10 पत्रकारों की जानें चली गईं। मैक्सिको, तुर्की, सीरिया आदि में भी कुछ ऐसा ही हाल है। पाकिस्तान, चीन, रूस आदि में भी मीडिया को नियंत्रित करने की कोशिश होती रही है। लेकिन, हम तो दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश हैं। मीडिया को अधिक निर्भीकता के साथ काम करने देने में हमें सबसे आगे होना चाहिए। आज मीडियाकर्मियों के लिए मुश्किल भरा दौर है। वे निर्भय होकर काम कर सकें, इसके लिए सुरक्षा मुहैया कराने की जरूरत है।
जरूरत इस बात की भी है कि पत्रकार बिरादरी के साथ यदि कुछ गलत होता है तो सभी मिलकर उसका विरोध करें। निर्भीकता के साथ खबरों में संतुलन बनाए रखें। यदि किसी अफसर व राजनेता पर आरोप है तो उसके विरुद्ध एकतरफा खबर पेश न की जाए। जो आरोपित है, उसका दृष्टिकोण भी लोगों के सामने पेश करना चाहिए। यह भी समझना चाहिए कि खबरों के लिए कोई हमें जरिया तो नहीं बना रहा है। हमें कोई खबरों के लिए इस्तेमाल भी कर सकता है। पहले तो दूरभाष का इस्तेमाल होता था। अब बेहतर तकनीक का सहारा लिया जाने लगा है। इंटरनेट के जरिए अब तेजी से खबरों का आदान-प्रदान हो रहा है।
देखने में यह आ रहा है कि इंटरनेट के जरिए झूठी और मनगढ़ंत खबरों को तेजी से प्रसारित किया जाता है। समाज में दंगे भड़काने की कोशिशें हो रही हैं। केवल भारत में ही नहीं, पूरी दुनिया में इस तरह की कोशिश हो रही है। पत्रकार बिरादरी को ऐसे हालात से सतर्क रहने की जरूरत है। यह भी समझना होगा कि गलत खबरों को प्रसारित करने के पीछे कौन लोग हैं? गलत खबरों के लिए मीडिया से जुड़े लोगों को खुद के इस्तेमाल होने से रोकना होगा। हमें खबरों को सही तथ्यों के साथ दिखाने का कर्तव्य पूरा करते रहना होगा।
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