यह कभी-कभार ही हुआ है कि उच्चतम न्यायालय पूर्व में दिए अपने ही किसी फैसले से अलग रुख दिखाए। लिहाजा, भारतीय दंड संहिता की धारा 377 की बाबत सर्वोच्च न्यायालय का ताजा रूख एक विरल घटना है। स्वागत-योग्य भी। यह धारा ‘अप्राकृतिक अपराधों’ का हवाला देते हुए ‘प्रकृति के विपरीत’ यौनाचार को अपराध मानती है और यह अपराध करने वाले व्यक्ति को संबंधित कानून के तहत उम्रकैद या एक तय अवधि की सजा हो सकती है, जो दस साल तक बढ़ाई जा सकती है; उस पर जुर्माना भी लगाया जा सकता है। इस कानून की गिनती सबसे ज्यादा विवादास्पद कानूनों में होती रही है। इस कानून के औचित्य और इसकी संवैधानिकता पर काफी समय से सवाल उठाए जा रहे थे, पर इस दिशा में सफलता मिली 2009 में, जब दिल्ली उच्च न्यायालय ने धारा 377 को, जहां तक वह समलैंगिकता को अपराध ठहराती है, असंवैधानिक ठहरा दिया। यह व्यक्ति की अपनी पसंद और उसकी स्वायत्तता तथा निजता की रक्षा के लिहाज से एक ऐतिहासिक फैसला था। पर कुछ लोगों ने इसके खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में अपील कर दी। सर्वोच्च न्यायालय ने दिसंबर 2013 में धारा 377 को संवैधानिक ठहरा कर दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले को पलट दिया। पर अब सर्वोच्च अदालत को खुद अपने उस फैसले की खामियां दिखने लगी हैं।
उस फैसले पर पुनर्विचार की मांग करने वाली याचिका पर सुनवाई करते हुए मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाले तीन सदस्यीय पीठ ने न सिर्फ बिना अगर-मगर किए याचिका स्वीकार कर ली, बल्कि इस मामले को संविधान पीठ को सौंपने का एलान भी कर दिया।
इस पर संविधान पीठ का फैसला जब भी आए, अदालत के बदले हुए रुख का कुछ अंदाजा लगाया जा सकता है। याचिका पर सुनवाई के दौरान अदालत ने कहा कि समाज का एक अंश या कुछ व्यक्ति अपने हिसाब से, अपनी पसंद से जीवन जीना चाहते हैं, तो उन्हें भय में क्यों रहना चाहिए? समाज के नैतिक मानदंड हमेशा वही नहीं रहते, जमाने के साथ बदलते भी हैं। पुनर्विचार का संवैधानिक आधार भी है। धारा 377 संविधान निर्माण के दौरान हुई बहसों की देन नहीं है, बल्कि इस कानून की शुरुआत औपनिवेशिक जमाने में हुई थी। इसके पीछे अंगरेजी हुकूमत की जो भी मंशा या सोच रही हो, इसे बनाए रखने का अब कोई औचित्य नहीं है। सच तो यह है कि इस कानून को बहुत पहले विदा हो जाना चाहिए था। हमारा संविधान कानून के समक्ष समानता और जीने के अधिकार की बात करता है। फिर, वह दो बालिगों के बीच सहमति से बनाए गए संबंध को अपराध नहीं मानता। ऐसे में, दो बालिगों के अलग तरह के यौन झुकाव को अपराध कैसे ठहराया जा सकता है?
किसी की निगाह में या बहुतों की राय में कोई संबंध अप्राकृतिक हो सकता है, पर उसे अपराध क्यों माना जाए? अपराध हमेशा अन्य को नुकसान पहुंचाने से परिभाषित होता है। सिर्फ इस आधार पर कि किसी का यौन झुकाव औरों से अलग है, उसे अपराधी कैसे माना जा सकता है? उसे अपराधी मानना लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ भी होगा, और सभ्य समाज के विधि शास्त्र के खिलाफ भी। साथ ही, यह हमारे संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 के खिलाफ भी है। यही नहीं, निजता के मामले में आए सर्वोच्च अदालत के फैसले से भी धारा तीन सौ सतहत्तर कतई मेल नहीं खाती। पिछले साल अगस्त में नौ न्यायाधीशों के संविधान पीठ ने अपने ऐतिहासिक फैसले में निजता को एक मौलिक अधिकार ठहराया था। जबकि 377 को संवैधानिक मानने वाला 2013 का फैसला सर्वोच्च न्यायालय के सिर्फ दो जजों के पीठ का था। निजता संबंधी सर्वोच्च अदालत के फैसले के बाद तो धारा 377 पर पुनर्विचार और भी जरूरी हो गया है।
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उच्चतम न्यायालय ने धारा 377 के अंतर्गत समलैंगिकता को अपराध न मानने की मांग संबंधी याचिका बड़ी पीठ को सौंपी।
गौरतलब है कि दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले को बदलते हुए 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने बालिग समलैंगिकों के संबंध को अवैध करार दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने 5 एलजीबीटी समुदाय के लोगों की तरफ से दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए केंद्र सरकार से भी इस मुद्दे पर जवाब मांगा है।
सुप्रीम कोर्ट के 2013 के फैसले पर क्यूरेटिव पिटिशन डाली गई थी जिसमें संवैधानिक अधिकार का हवाला दिया गया था। इस मामले में 2009 में दिल्ली हाई कोर्ट ने समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से हटाने का फैसला दिया था।
केंद्र सरकार ने इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। जिसके बाद दिसंबर 2013 में हाई कोर्ट के आदेश को पलटते हुए समलैंगिकता को आईपीसी की धारा 377 के तहत अपराध बरकरार रखा।
क्या कहती है धारा 377?
भारतीय दंड संहिता की धारा 377 अप्राकृतिक अपराधों का हवाला देते हुए कहती है कि जो कोई भी किसी पुरुष, महिला या पशु के साथ प्रकृति के विपरीत यौनाचार करता है तो इस अपराध के लिए उसे उम्रक़ैद की सज़ा होगी या एक निश्चित अवधि जो दस साल तक बढ़ाई जा सकती है और उस पर जुर्माना भी लगाया जाएगा।
आम तौर पर यौन अपराध तभी अपराध माने जाते हैं जब वे किसी की सहमति के बिना किए जाएं। लेकिन धारा 377 की परिभाषा में कहीं भी सहमति-असहमति का जिक्र ही नहीं है। इस कारण यह धारा समलैंगिक पुरुषों के सहमति से बनाए गए यौन संबंधों को भी अपराध की श्रेणी में पहुंचा देती है।
पीठ धारा 377 को उस सीमा तक असंवैधानिक घोषित करने के लिए नवतेज़ सिंह जौहर की याचिका पर सुनवाई कर रही थी जिसमें परस्पर सहमति से दो वयस्कों के यौनाचार में संलिप्त होने पर मुकदमा चलाने का प्रावधान है।
धारा 377 को 1860 में अंग्रेजों द्वारा भारतीय दंड संहिता में शामिल किया गया था। उस वक्त इसे ईसाई धर्म में भी अनैतिक माना जाता था। लेकिन 1967 में ब्रिटेन ने भी समलैंगिक संबंधों को कानूनी मान्यता दे दी है।
पृष्ठभूमि:
दिल्ली की एक संस्था ‘नाज़ फाउंडेशन’ जोकि काफी समय से एड्स की रोकथाम और इसके प्रति जागरूकता फ़ैलाने का काम कर रही है, ने 2001 में दिल्ली उच्च न्यायालय से धारा 377 को गैर-संवैधानिक घोषित करने की मांग की थी।
इसके बारे में संस्था की संस्थापक अंजलि गोपालन का कहना था, ‘समलैंगिक संबंध बनाने वाले पुरुष एड्स होने पर भी सामने नहीं आते। उन्हें डर होता है कि धारा 377 के तहत उन्हें सजा न हो जाए। ऐसे में एड्स की रोकथाम तो क्या संक्रमित लोगों की पहचान भी नहीं हो पाती। पुलिस अधिकारियों द्वारा समलैंगिक लोगों के उत्पीड़न के भी कई मामले हुए हैं। ऐसे में वे लोग सुरक्षित यौन संबंध बनाने के लिए चिकित्सकीय सामग्री खरीदते वक्त भी घबराते थे।’
बता दें कि देश भर में इस वक्त कई संगठन हैं जो समलैंगिकों को समान अधिकार और गरिमा के साथ जीवन जीने के अधिकार के लिए काम कर रहे हैं। विश्व के कई देशों में समलैंगिकों को अब शादी का अधिकार भी मिल चुका है। हाल ही में ऑस्ट्रेलिया के एक राज्य ने समलैंगिकों को विवाह का अधिकार दिया है।
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