Friday, 26 January 2018

भारतीय संविधान की उद्देशिका (Preamble)

संविधान के उद्देश्यों को प्रकट करने हेतु उससे पहले एक उद्देशिका (Preamble) प्रस्तुत की गयी है। भारतीय संविधान की उद्देशिका अमेरिकी संविधान से प्रभावित तथा विश्व में सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। उद्देशिका संविधान का सार मानी जाती है; उसके लक्ष्य प्रकट करती है; संविधान का दर्शन भी इसके माध्यम से प्रकट होता है।

संविधान किन आदर्शों, आकाक्षाओं को प्रकट करता है, इसका निर्धारण भी उद्देशिका से हो जाता है। सर्वोच्च न्यायालय के मतानुसार उद्देशिका का प्रयोग संविधान निर्माताओ के मस्तिष्क में झांकने और उनके उद्देश्य को जानने में प्रयोग की जा सकती है। उद्देशिका यह घोषणा करती है कि संविधान अपनी शक्ति सीधे जनता से प्राप्त करता है। इसी कारण यह ‘हम भारत के लोग’ से प्रारम्भ होती है। केहर सिंह बनाम भारत संघ के वाद में कहा गया कि संविधान सभा भारतीय जनता का सीधा प्रतिनिधित्व नहीं करती थी अत: संविधान विधि की विशेष अनुकृपा प्राप्त नहीं कर सकता है परंतु न्यायालय ने इसे खारिज करते हुए संविधान को सर्वोपरि माना है जिस पर कोई प्रश्न नहीं उठाया जा सकता है।

भारतीय संविधान की उद्देशिका:

हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्वसंपन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य [संविधान (बयालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1976] बनाने के लिए, तथा उसके समस्त नागरिकों को:
सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता, प्राप्त कराने के लिए,
तथा उन सबमें,
व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता [संविधान (बयालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1976] सुनिश्चित कराने वाली, बंधुता बढ़ाने के लिए,
दृढ़ संकल्प होकर अपनी संविधानसभा में आज तारीख 26 नवम्बर 1949 ईस्वी (मिति माघशीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत दो हजार छह विक्रमी) को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।

उद्देशिका की प्रकृति:

(१) यह संविधान का महत्वपूर्ण अंग नहीं है क्योंकि यह राज्य के तीनों अंगो को कोई शक्ति नहीं देती है। वे अपनी शक्तियाँ संविधान के अन्य अनुच्छेदों से प्राप्त करती है। इसी प्रकार यह उनकी शक्ति पर कोई रोक भी नहीं लगाती है।

(२) संविधान के किसी भाग पर यह कोई विशेष बल नहीं देती है संविधान के अनुच्छेद तथा इसमें संघर्ष होने पर अनुच्छेद को वरीयता मिलेगी।

(३) न्यायालय में इस के आधार पर कोई वाद नहीं लाया जा सकता है न ही वे इसे लागू कर सकते है।

(४) इस कारण इसे कई बार मात्र शोभात्मक आभूषण भी कहा गया है। सर्वोच्च न्यायालय भी इस की सीमित भूमिका मानता है इसका प्रयोग संविधान में विध्यमान अस्पष्टता दूर करने हेतु किया जा सकता है।

उद्देशिका के उद्देश्य:

(१) यह बताती है कि संविधान जनता के लिए हैं तथा जनता ही अंतिम सम्प्रभु है।

(२) उद्देशिका लोगो के लक्ष्यों-आकाक्षओं को प्रकट करती है।

(३) इसका प्रयोग किसी अनुच्छेद में विद्यमान अस्पष्टता को दूर करने में हो सकता है।

(४) यह जाना जा सकता है कि संविधान किस तारीख को बना तथा लागू हुआ था।

उद्देशिका संविधान के एक भाग के रूप में:

परम्परागत मत -- उद्देशिका को संविधान का भाग नहीं मानता है क्योंकि यदि इसे विलोपित भी कर दे तो भी संविधान अपनी विशेष स्तिथि बनाये रख सकता है।
इसे पुस्तक के पूर्व परिचय की तरह समझा जा सकता है। यह मत सर्वोच्च न्यायालय ने बेरुबारी यूनियन वाद 1960 में प्रकट किया था

नवीन मत-- इसे संविधान का एक भाग बताता है केशवानन्द भारती बनाम केरल राज्य 1973 में दिये निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने इसे संविधान का भाग बताया है। संविधान का एक भाग होने के कारण ही संसद ने इसे 42वें संविधान संशोधन से इसे सशोधित किया था तथा समाजवादी, पंथनिरपेक्ष और अखंण्डता शब्द जोड़ दिये थे। वर्तमान में नवीन मत ही मान्य है।

उद्देशिका के आदर्श:

कम या अधिक मात्रा में प्राप्त कर लिये गये हैं
अपेक्षाएं (स्वतंत्रता, न्याय, समानता है), लक्ष्य है जबकि आदर्श (जनतांत्रिक, समाजवादी) उपाय हैं।

उद्देशिका के शब्दों का विश्लेषण:

सम्प्रभु -- राज्य की सर्वोपरि राजनीतिक शक्ति है कि घोषणा करती है, राज्य की राजनीतिक सीमाओं के भीतर इसकी सत्ता सर्वोपरि है, तथा यह किसी बाहरी शक्ति की प्रभुता स्वीकार नहीं करती है।

समाजवादी-- भारतीय समाजवाद अनिवार्य रूप से जनतांत्रिक होना चाहिए। समाजवादी लक्ष्यों की प्राप्ति जनतांत्रिक माध्यमों से होनी चाहिए। यह शब्द भारत को एक जनकल्याणकारी राज्य के रूप में स्थापित कर देता है।

पंथनिरपेक्षता-- इसका अर्थ लौकिकता को आध्यातिमकता पर वरीयता देना है, धर्म पर आधारित भेदों का सम्मान करना, अन्य धर्मों के प्रति राज्य द्वारा तटस्थता बरतना ही धर्म निरपेक्षता है, ऐसे राज्य किसी एक धर्म को प्रोत्साहन ना देकर विविध धर्मो के मध्य सहिष्णुता तथा सहयोग बढाने का कार्य करें यह एक कर्तव्य है जिसके पालन से विभिन्न धर्मो के बीच सहस्तित्व स्वीकार किया जाता है। इसका लाभ यह है कि राज्य किसी धर्म के अधीन नहीं होता है जैसे इस्लामिक गणतंत्र ईरान में इस्लाम गणतंत्र से भी अधिक महत्वपूर्ण है।
इस प्रकार के राज्य विधि के समक्ष समता बरतते है तथा नागरिकों के मध्य धार्मिक आधार पर विभेद नहीं बरतते, उनको समान अवसर भी उपलब्ध करवाया जाता है
इस प्रकार के राज्य धर्मविरोधी, अथवा अधार्मिकहोकर धर्मनिरपेक्ष होते हैं। वे अपने नागरिकों को इच्छा अनुसार धर्म पालन का अधिकार देते हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 से 28 इस से समबन्धित है
पंथनिरपेक्षता कोई उधार लिया गया शब्द नहीं है। भारतीय साहित्य में सर्वधर्म समभाव के आदर्श के रूप में यह मौजूद था। यहाँ धर्म पर आधारित विभेद का विरोध किय गया है न कि राज्य का धर्म से संबंध का

जनतंत्र -- अनुच्छेद 19 तथा अनु 326 जनतंत्र से संबंधित है भारत मॅ बहुदलीय लोकतंत्र है

गणतंत्र -- राजप्रमुख निर्वाचित होगा न कि वंशानुगत

अपेक्षाएँ :

(1) न्याय-- सामाजिक आर्थिक तथा राजनैतिक न्याय के वे प्रकार है जो संविधान मॅ भारतीय नागरिकॉ को देने की वकालत की गयी है,1 व्यक्ति 1 वोट राजनैतिक न्याय की प्राप्ति हेतु आवश्यक है[19,326], सामाजिक न्याय की प्राप्ति हेतु अस्पृश्यता का उन्मूलन, उपाधि का उन्मूलन किया गया है,[अनु 15,16,17,18], आर्थिक न्याय हेतु राज्य हेतु नीति निर्देशक तत्वॉ प्रावधान रखा गया है।

(2) स्वतंत्रता-- इसका अर्थ नागरिक पर बाध्यकारी तथा बाहरी प्रतिबंधों का अभाव है, एक नागरिका द्वारा दूसरे के अधिकारों का उल्लघंन करना निषेधित है, नागरिक स्वतंत्रता अनुच्छेद 19 में तथा धार्मिक स्वतंत्रता अनु 25-28 मॅ वर्णित है।

(3) समानता-- स्तर तथा अवसरों की समानता स्थापित करना अनु 15 से 18 में वर्णित है।

(4) बंधुत्व -- भारतीय नागरिकों के मध्य बंधुत्व की भावना स्थापित करना, क्योंकि इस के बिना देश में एकता स्थापित नहीं की जा सकती है।

No comments:

Post a Comment

18 सितम्बर 2019 करेंट अफेयर्स - एक पंक्ति का ज्ञान One Liner Current Affairs

दिन विशेष विश्व बांस दिवस -  18 सितंबर रक्षा 16 सितंबर 2019 को Su-30 MKI द्वारा हवा से हवा में मार सकने वाले इस प्रक्षेपास्त्र का सफल परी...