संविधान लगभग बन कर तैयार हो चुका था कि अचानक गांधी जी के निकटतम सहयोगियों में एक श्रीमन्नारायण ने संविधान निर्माताओं से पूछा, ‘इस पूरे संविधान में गांधी की ग्रामसमाज की अवधारणा की चर्चा कहां पर है ?’ इसके बाद आनन-फानन में उसे राज्य के नीति निर्देशक तत्वों में अनुच्छेद 40 के रूप में जोड़ा गया। यह अलग बात है कि इस अवधारणा पर अमल अगले 42 साल तक नहीं किया गया। पहली बार 1992 में पंचायत राज एक्ट 73 वें संविधान संशोधन के तहत लाया गया और ग्राम पंचायतों को अधिकार मिले। संविधान की प्रस्तावना में आर्थिक न्याय और अवसर की समानता की बात है, परंतु 70 साल में गरीब-अमीर के बीच खाई बढ़ती गई है। तमाम संस्थाओं के ताजा अध्ययन यह बता रहे हैैं कि भारत में गरीब-अमीर के बीच फासला बढ़ता जा रहा है। हाल के एक अध्ययन के अनुसार देश में 101 अरबपतियों की संपत्ति बढ़कर कुल जीडीपी का 15 प्रतिशत हो गई है जो पांच साल पहले 10 प्रतिशत और 13 साल पहले पांच प्रतिशत हुआ करती थी। 1988 से सन 2011 के बीच जहां सबसे नीचे तबके के 10 प्रतिशत गरीबों की संपत्ति 200 रुपये से भी कम बढ़ी है वहीं शीर्ष एक प्रतिशत की 182 गुना। आज की आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था में क्या हम संविधान में दी गई प्रतिबद्धता के आसपास भी पहुुंच रहे हैं ? समाज सरंचना की विदेशी अवधारणा पर आधारित व्यवस्था के लगभग सभी दोष अब सामने आ चुके हैं और आज जरूरत एक नई मौलिक सोच की है।
समाज के अंतिम व्यक्ति के हित में काम करने की भावना होने की जरूरत है-
राष्ट्रपति ने बीते माह 11 फरवरी को ग्वालियर में डॉ. लोहिया स्मृति व्याख्यान में लगभग इसी बात को एक बार फिर ध्वनित किया। उनका कहना था, ‘ऐसा लगता है कि संसद से सड़क तक समाज के अंतिम व्यक्ति के हक में जन-चेतना की मशाल जलाने वाले डॉक्टर लोहिया संभवत: सामाजिक विषमताओं और शोषण की राजनीति को चुनौती देने के लिए ही पैदा हुए थे। …अपनी विचारधाराओं के आधारभूत तत्व को ग्रहण करते हुए समाज के अंतिम व्यक्ति के हित में काम करने की भावना के विभिन्न रूप महात्मा गांधी, डॉ. आंबेडकर, लोहिया और दीनदयाल उपाध्याय के चिंतन और संघर्ष में देखने को मिलते हैं। इन सभी विभूतियों ने देश की समस्याओं के एकांगी और विशेष समाधानों की जगह समग्र और जमीनी सुधारों पर जोर दिया। उनके रास्ते भले ही अलग-अलग थे, लेकिन उन सभी का एक ही उद्देश्य था- भारत के लोगों को विशेषकर पिछड़े लोगों को बराबरी और सम्मान का हक दिलाना।’
शासन प्रकिया चलाने में आइडियोलॉजी की नहीं आइडियल की जरूरत होती है-
भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी ने भी अपने एक अध्यक्षीय भाषण में कहा था, ‘शासन प्रकिया चलाने में काफी हद तक विचारधारा की कोई भूमिका नहीं होती। आदर्श (आइडियल) और विचारधारा (आइडियोलॉजी) में अंतर होता है। हो सकता है कि कम्युनिस्टों और भारतीय जनता पार्टी के लोगों की विचारधारा अलग-अलग हो, लेकिन दोनों का गंतव्य याने आइडियल एक ही है।’ जरा व्यावहारिक धरातल पर इन महापुरुषों के आदर्शों पर गौर करें जिनकी चर्चा राष्ट्रपति ने इस आशय से की कि इनकी समेकित सोच एक नया रास्ता देगी। एक ऐसे समय में जब गरीब-अमीर की खाई लगातार बढ़ रही हो, समाज में अभावग्रस्त एक बड़ा तबका अवसर की समानता न मिलने से अपनी योग्यता नहीं दिखा पा रहा हो तब शायद आज नीति निर्धारण में इन सभी महापुरुषों की विचारधारा में एक सामंजस्य बैठाना ही सबसे सही रास्ता होगा। इन महापुरुषों के मूल विचारों में साम्य भी देखें। लोहिया के नारे थे- ‘राजा पूत निर्धन संतान, सबकी शिक्षा एक समान’ या फिर ‘जो जमीन को जोते बोवे, वही जमीन का मालिक होवे।’
विचारधारा चाहे जैसी हो, आदर्श एक होना चाहिए-
संघ परिवार के दिग्दर्शक पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने भी अपने चार बीज भाषणों में से अंतिम में कहा था, ‘भगवान की सर्वश्रेष्ठ कृति मानव अपने को खोता जा रहा है … हमारी अर्थव्यवस्था का उद्देश्य होना चाहिए प्रत्येक व्यक्ति को न्यूनतम जीवन स्तर की आश्वस्ति…. प्रत्येक वयस्क और स्वस्थ व्यक्ति को साभिप्राय जीविका का अवसर देना। गांधी का ट्रस्टीशिप का सिद्धांत और डॉ.आंबेडकर के समतामूलक समाज की अवधारणा-ये सभी एक ही दिशा में इंगित करते हैं।’
पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानववाद का सिद्धांत देते हुए यह भी रेखांकित किया था, ‘विविधता में एकता अथवा एकता का विविध रूपों में व्यक्तिकरण ही भारतीय संस्कृति का केंद्रस्थ विचार है। यदि इस तथ्य को हमने हृदयंगम कर लिया तो विभिन्न सत्ताओं के बीच संघर्ष नहीं रहेगा। यदि संघर्ष है तो वह प्रकृति का अथवा संस्कृति का द्योतक नहीं, विकृति का द्योतक है। देखने को तो जीवन में भाई-भाई के बीच प्रेम और बैर दोनों मिलते हैं, किंतु हम प्रेम को अच्छा मानते हैं। बंधु-भाव का विस्तार हमारा लक्ष्य रहता है। अर्थात विचारधारा यानी रास्ते चाहे जैसे हों, गंतव्य या आदर्श) एक ही है।’
लोहिया ने आरएसएस के शिविर में आने का न्योता स्वीकार किया था-
आज यह जानने की आवश्यकता है कि आरएसएस के नानाजी देशमुख ने समाजवाद के प्रणेता और धुर समाजवादी चिंतक डॉ. लोहिया को 1963 में संघ के शिविर में आने का न्योता भेजा था। उन्होंने यह न्योता स्वीकार भी किया। शिविर से बाहर निकलने पर लोहिया से पत्रकारों ने उनके आने का कारण पूछा तो लोहिया का जवाब था, मैं इन संन्यासियों को गृहस्थ बनाने गया था। इसके कुछ ही महीने बाद 12 अप्रैल, 1964 को लोहिया और दीनदयाल उपाध्याय ने एक साझा बयान जारी किया। इस बयान ने तत्कालीन राजनीतिक विश्लेषकों के साथ पूरे देश को चौंकाया। इसके उपरांत दो-तीन वर्ष विचारधारा के स्तर पर उत्तर और दक्षिण ध्रुव माने जाने वाले नेताओं में गजब सामंजस्य रहा और यहां तक कि जौनपुर के उपचुनाव में लोहिया ने पंडित जी के लिए प्रचार किया और यहीं से बजा कांग्रेस के एकल दल वर्चस्व के अवसान का बिगुल। 1967 के चुनाव में देश के दस राज्यों में संविद सरकारें बनीं। तब कहा जाता था कि जीटी रोड से यात्रा करते हुए अमृतसर से कलकत्ता तक बगैर किसी कांग्रेस शासन वाले राज्य से गुजरे पहुंचा जा सकता है।
गरीबों के कल्याण लिए अपेक्षित प्रयास नहीं हुए-
शायद राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने इन तथ्यों के मद्देनजर ही कि पिछले 70 सालों में गरीब-अमीर के बीच की खाई बढ़ती जा रही है और गरीबों के कल्याण लिए अपेक्षित प्रयास नहीं हुए हैं, एक नए प्रयास पर बल देने की कोशिश की है। उन्होंने यह रेखांकित किया कि इन महापुरुषों के कथन को आप्तवचन मानते हुए नीति-निर्धारण के मूल में गरीबों का कल्याण रखा जाए और ऐसा करने में यह न देखा जाए कि रास्ता समाजवाद की ओर से जाता है या पूंजीवाद की ओर से या वह अवधारणा किस व्यक्ति की है या वह किस विचारधारा का प्रतिपादक रहा है। 70 साल बाद भी अमीर-गरीब के बीच की बढ़ती खाई यही बताती है कि हम न तो संविधान की प्रस्तावना में किए गए वादे पर खरे उतरे और न ही गांधी जी के सपनों का असली प्रजातंत्र ला पाए। शायद यही राष्ट्रपति का दर्द था और इसीलिए उन्होंने डॉ. लोहिया का स्मरण करते हुए एक नई राह की ओर संकेत किया।
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