अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम 1989 को 11 सितम्बर 1989 में भारतीय संसद द्वारा पारित किया था, जिसे 30 जनवरी 1990 से सारे भारत में लागू किया गया।
यह अधिनियम उस प्रत्येक व्यक्ति पर लागू होता हैं जो अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति का सदस्य नही हैं तथा वह व्यक्ति इस वर्ग के सदस्यों का उत्पीड़न करता हैं। इस अधिनियम मे 5 अध्याय एवं 23 धाराएँ हैं।
भारत सरकार ने दलितों पर होने वालें विभिन्न प्रकार के अत्याचारों को रोकनें के लिए भारतीय संविधान की अनुच्छेद 17 के आलोक में यह विधान पारित किया।
इस अधिनियम में छुआछूत संबंधी अपराधों के विरूद्ध दण्ड में वृद्धि की गई हैं तथा दलितों पर अत्याचार के विरूद्ध कठोर दंड का प्रावधान किया गया हैं। इस अधिनिमय के अन्तर्गत आने वालें अपराध संज्ञेय गैरजमानती और असुलहनीय होते हैं। यह अधिनियम 30 जनवरी 1990 से भारत में लागू हो गया।
अधिनियम की धारा 3 (1) के अनुसार जो कोई भी यदि वह अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति का सदस्य नहीं हैं और इस वर्ग के सदस्यों पर निम्नलिखित अत्याचार का अपराध करता है तो कानून वह दण्डनीय अपराध माना जायेगा।
यह क़ानून क्या करता है?
इस कानून की तीन विशेषताएँ हैं:
यह अनुसूचित जातियों और जनजातियों में शामिल व्यक्तियों के खिलाफ़ अपराधों को दंडित करता है।
यह पीड़ितों को विशेष सुरक्षा और अधिकार देता है।
यह अदालतों को स्थापित करता है, जिससे मामले तेज़ी से निपट सकेंI
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय:
21 मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम (एससी/एसटी एक्ट 1989) के तहत दर्ज मामलों में तत्काल गिरफ्तारी पर रोक लगा दी है। कोर्ट ने फैसला देते हुए कहा कि सरकारी कर्मचारियों की गिरफ्तारी सिर्फ सक्षम अथॉरिटी की इजाजत के बाद ही हो सकती है।
जो लोग सरकारी कर्मचारी नहीं है, उनकी गिरफ्तारी एसएसपी की इजाजत से हो सकेगी। हालांकि, कोर्ट ने यह साफ किया गया है कि गिरफ्तारी की इजाजत लेने के लिए उसकी वजहों को रिकॉर्ड पर रखना होगा।
निर्णय के विरोध में प्रदर्शन:
सुप्रीम कोर्ट की ओर से SC/ST एक्ट में बदलाव के खिलाफ कई संगठनों ने 02 अप्रैल 2018 को 'भारत बंद' का समर्थन किया है। इसके तहत कई पार्टियों और संगठनों के कार्यकर्ता सोमवार को सड़कों पर उतरे हैं।
इन संगठनों की मांग है कि अनुसूचित जाति, जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम 1989 में संशोधन को वापस लेकर एक्ट को पहले की तरह लागू किया जाए।
क्या हैं नए दिशानिर्देश?
ऐसे मामलों में निर्दोष लोगों को बचाने के लिए कोई भी शिकायत मिलने पर तुरंत मुकदमा दर्ज नहीं किया जाएगा। सबसे पहले शिकायत की जांच डीएसपी लेवल के पुलिस अफसर द्वारा शुरुआती जांच की जाएगी। यह जांच समयबद्ध होनी चाहिए।
जांच किसी भी सूरत में 7 दिन से ज्यादा समय तक न हो। डीएसपी शुरुआती जांच कर नतीजा निकालेंगे कि शिकायत के मुताबिक क्या कोई मामला बनता है या फिर तरीके से झूठे आरोप लगाकर फंसाया जा रहा है।
सुप्रीम कोर्ट ने इस एक्ट के बड़े पैमाने पर गलत इस्तेमाल की बात को मानते हुए कहा कि इस मामले में सरकारी कर्मचारी अग्रिम जमानत के लिए आवेदन कर सकते हैं।
एससी/एसटी एक्ट के तहत जातिसूचक शब्द इस्तेमाल करने के आरोपी को जब मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जाए, तो उस वक्त उन्हें आरोपी की हिरासत बढ़ाने का फैसला लेने से पहले गिरफ्तारी की वजहों की समीक्षा करनी चाहिए।
सबसे बड़ी बात ऐसे मामलों में तुरंत गिरफ्तारी नहीं की जाएगी। सरकारी कर्मचारियों की गिरफ्तारी सिर्फ सक्षम अथॉरिटी की इजाजत के बाद ही हो सकती है।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मुताबिक, इन दिशा-निर्देशों का उल्लंघन करने वाले अफसरों को विभागीय कार्रवाई के साथ अदालत की अवमानना की कार्रवाही का भी सामना करना होगा।
पूर्ववर्ती नियम:
एससी/एसटी एक्ट में जातिसूचक शब्दों का इस्तेमाल संबंधी शिकायत पर तुरंत मामला दर्ज होता था।
ऐसे मामलों में जांच केवल इंस्पेक्टर रैंक के पुलिस अफसर ही करते थे।
इन मामलों में केस दर्ज होने के बाद तुरंत गिरफ्तारी का भी प्रावधान था।
इस तरह के मामलों में अग्रिम जमानत नहीं मिलती थी। सिर्फ हाईकोर्ट से ही नियमित जमानत मिल सकती थी।
सरकारी कर्मचारी के खिलाफ अदालत में चार्जशीट दायर करने से पहले जांच एजेंसी को अथॉरिटी से इजाजत नहीं लेनी होती थी।
एससी/एसटी मामलों की सुनवाई सिर्फ स्पेशल कोर्ट में होती थी।
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