Sunday, 1 April 2018

सोशल मीडिया और लोकतांत्रिक मूल्य

मार्क जकरबर्ग की अगुआई वाले फेसबुक ने कैंब्रिज स्थित एक रूसी शोधकर्ता अलेक्सांद्र कोगान के साथ वर्ष 2013 में अपने डेटा साझा किए थे। बाद में कोगान ने फेसबुक के करीब पांच करोड़ ग्राहकों से संबंधित डेटा को एक राजनीतिक सलाहकार कंपनी कैंब्रिज एनालिटिका को बेच दिया। यह कंपनी कई देशों में चुनावी परामर्श देने का काम करती है। फेसबुक-कैंब्रिज एनालिटिका विवाद की जड़ में डेटा साझा करने का मसला ही है। विवाद उभरने के बाद फेसबुक को शेयर बाजार में करीब 50 अरब डॉलर का नुकसान उठाना पड़ा है। अचल संपत्ति के मामले में अपेक्षाकृत कमजोर कंपनी (14 अरब डॉलर) होने के नाते फेसबुक के लिए यह आघात बहुत तगड़ा है। इस कंपनी का समूचा कारोबार ही इसकी अहमियत की धारणा पर तैयार हुआ है। फेसबुक को 2017 में प्राप्त कुल 40.6 अरब डॉलर राजस्व में से 39.9 अरब डॉलर तो डिजिटल विज्ञापन से मिले थे। दुनिया भर में फैले 2.1 अरब सक्रिय यूजर के लिए जारी होने वाले डिजिटल विज्ञापनों से ही इसे अधिकतम राजस्व मिलता है। इस सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर मौजूद लोग अपने बारे में, अपनी पसंद-नापसंद और प्राथमिकताओं के बारे में जितना अधिक शेयर करते हैं, उन्हीं को आधार बनाते हुए डिजिटल विज्ञापन देने वाली कंपनियां उन्हें अपने जाल में कैद करना चाहती हैं और फेसबुक को उसी से अपना राजस्व मिलता है।

इस पूरे बवाल में भारतीय नजरिये से दो अहम सवाल खड़े होते हैं। पहला, क्या अब हमें यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि सोशल मीडिया और ऑनलाइन सर्च कंपनियां भी अब मुख्यधारा की मीडिया कंपनियों की ही तरह लोकतंत्र को फायदा या नुकसान पहुंचा सकती हैं और उसी के हिसाब से उनके साथ बरताव भी किया जाना चाहिए? इसके खिलाफ कई तर्क दिए जा रहे हैं जिनमें सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि ये कंपनियां मूलत: ‘तकनीकी प्लेटफॉर्म’ हैं और उनकी तुलना द टाइम्स ऑफ इंडिया या दैनिक जागरण जैसी मीडिया कंपनियों से नहीं की जा सकती है। लेकिन यह धारणा पूरी तरह सही नहीं है।


मास मीडिया की ही तरह फेसबुक, गूगल या ट्विटर भी अधिक-से-अधिक दर्शक-पाठक जुटाने और उनके जरिये कमाई की कोशिश में लगे रहते हैं। कमाई के लिए ये तकनीकी प्लेटफॉर्म विज्ञापन, सर्च या भुगतान राजस्व को जरिया बनाते हैं। अगर फेसबुक के मंच पर अपना दिल खोलकर बातें करने के लिए 2.1 अरब लोग मौजूद नहीं होते तो विज्ञापनदाताओं की उसमें इतनी रुचि नहीं होती। मास मीडिया के अन्य माध्यमों की ही तरह सोशल मीडिया के पास भी किसी संदेश की तीव्रता बढ़ाने की शक्ति है। लेकिन मास मीडिया के विपरीत सोशल मीडिया पर अवमानना और मानहानि के कानून लागू नहीं होते हैं। इसका नतीजा फर्जी खबरों के तौर पर सामने आता है। हाल ही में भारत में दंगों, पीट-पीटकर मार देने और संघर्ष की कई घटनाएं व्हाट्सऐप पर फर्जी खबरों या वीडियो प्रसारित होने के नाते ही हुई हैं।


सोशल मीडिया को स्व-नियमन लागू करने की चर्चाएं हो रही हैं। लेकिन स्व-नियमन हमेशा कारगर नहीं होता है, खासकर व्यापक स्तर पर विज्ञापन-आधारित कारोबारी परिवेश में ऐसा नहीं हो पाता है। हालांकि अखबारों में स्व-नियमन काम करता है लेकिन वह भी सौ फीसदी कारगर नहीं है। इसी हफ्ते जारी ‘द हूट’ की रिपोर्ट के मुताबिक समाचार चैनलों में तो स्व-नियमन की हालत बहुत ही खराब है। भारत में 24 घंटे प्रसारित होने वाले 389 समाचार चैनल हैं। लगातार प्रसारण करने लायक सामग्री की तलाश में चैनलों के कर्ताधर्ताओं पर समाचार, विचार, इतिहास या सच्चाई को भी तोड़-मरोड़कर पेश करने का दबाव होता है। डिजिटल प्लेटफॉर्म पर सक्रिय कंपनियों को भी ऐसी हालत से बचने के लिए एक साथ आना चाहिए। उन्हें ऐसी आचार संहिता बनानी चाहिए जिसमें ऑनलाइन सामग्री प्रकाशित करने वाले के लिए दंडात्मक कार्रवाई के प्रावधान किए गए हों।


फेसबुक-कैंब्रिज एनालिटिका विवाद से पैदा होने वाला दूसरा सवाल निजता की सुरक्षा से जुड़ा है। उच्चतम न्यायालय में पहले से ही आधार मामले पर सुनवाई चल रही है। आधार मामले में फैसला आते ही नागरिकों के बारे में आंकड़े जुटाने के सरकारी एवं निजी प्रयासों से संबंधित सवालों पर स्थिति साफ हो पाएगी। लेकिन इस पर एक नजरिया ऐसा है जो थोड़ा कम लोकप्रिय है। जब आप किसी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म से जुड़ते हैं और अपनी भावनाएं, विचार और विचारधारा को व्यक्त करते हैं, अपनी एवं अपने परिवार के सदस्यों की तस्वीरें साझा करते हैं तो क्या आपको यह फिक्र होती है कि इस सहूलियत की कीमत कौन चुका रहा है? फेसबुक पर 2.1 अरब लोग बिना कोई शुल्क दिए अपनी भावनाओं का इजहार करते रहते हैं। ऐसे में अगर लोगों को एक दूसरे से जुडऩे की सुविधा देने वाली कंपनी अपने कंटेंट से पैसा बनाने की सोचती है तो इसमें इतना आश्चर्य क्यों होना चाहिए? न्यूयॉर्क की मार्केटिंग एजेंसी स्ट्रॉबेरी फ्रॉग के सह-संस्थापक स्कॉट गुडसन ने कहा था, ‘अगर आप किसी चीज के लिए भुगतान नहीं कर रहे हैं तो फिर आप ही असली उत्पाद हैं।’


अपने अंशधारकों को फायदा पहुंचाने के लिए बनी एक विशाल कंपनी से आपकी निजता की सुरक्षा की उम्मीद करना बेमानी है। फेसबुक को मुनाफा कमाने और आगे बढऩे के लिए फेसबुक को अपने प्लेटफॉर्म पर उपलब्ध सामग्री से पैसा कमाना होता है। हालांकि यह भी सच है कि अपने 2.1 अरब यूजर के बगैर फेसबुक का यह स्वरूप नहीं हो सकता था। इस ढीले-ढाले परिवेश में ही दोनों पक्ष एक-दूसरे की जरूरत पूरी कर रहे हैं जिसका कोई सानी नहीं है। असल में, सोशल मीडिया और डिजिटल प्लेटफॉर्म के अधिक इस्तेमाल और निजता की हमारी जरूरत के बीच एक अंतर्निहित टकराव है। इस टकराव का हल नहीं निकाले जानेे तक कैंब्रिज एनालिटिका जैसे प्रकरण को रोका नहीं जा सकेगा।

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