Thursday 12 April 2018

उलझा किसान और न्यूनतम समर्थन मूल्य

सरकार वह महत्वाकांक्षी योजना लाने जा रही है, जिसमें किसानों को फसल का यथेष्ठ मूल्य देने का वायदा है। यह कवायद वित्तमंत्री के बजटीय भाषण और प्रधानमंत्री द्वारा संसद में भारतीय किसानों को ऐतिहासिक भेंट के दावा करने के दो महीने निकल जाने के बाद होने को है। इस काम में लगाए गए अफसर कहीं ज्यादा ईमानदार हैं जब वे कबूल करते हैं कि सरकार द्वारा भरोसा दिए जाने के बावजूद किसानों को बनता न्यूनतम समर्थन मूल्य अभी तक सही रूप में नहीं मिल पाया है।
पिछले एक माह में कई मंडियों का दौरा किया, वह भी ज्यादातर एपीएमसी (कृषि उत्पाद विपणन सहकारी मंडी) का। सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य न देकर उन्हें छलने में जिन पैंतरों का सहारा लिया जाता है, उनमें दस बड़े तरीके सिलसिलेवार दे रहा हूं।
छल का सबसे पहला और प्रमुख पैंतरा है ‘आधिकारिक भुल्लकड़पन’ जिसे हम ‘घोषणा करो-भूल जाओ’ भी कह सकते हैं। सरकार ने 23 फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रचारित किए थे और गेहूं और चावल के अलावा बाकियों में वह इनको लागू करना ही भूल गई। बात अगर जौ का उदाहरण लेकर करें तो सरकार ने इसका न्यूनतम समर्थन मूल्य 1410 रुपये प्रति क्विंटल रखा था। फसल मंडियों में आन पहुंची लेकिन कीमत 1,000-1200 रुपए के बीच ज्यादातर रही। जौ उत्पादन में प्रमुख राज्यों राजस्थान, मध्य प्रदेश, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में किसी एक ने भी ऐसी कोई योजना घोषित नहीं की, जिसमें सरकारी मूल्य का अक्षरशः पालन करवाने या भावांतर में हानि की भरपाई हो सके।


किसानों को न्यूनतम मूल्य से महरूम रखने के लिए नई तरकीबें निकाल ली जाती हैं और इसे ‘टाइमिंग ट्रिक’ का नाम दिया जा सकता है। जब तक राज्य एजेंसियों द्वारा फसल की खरीद शुरू की जाती है तब तक जरूरतमंद और गर्ज से त्रस्त किसान निजी व्यापारियों के पास औने-पौने में बेच चुका होता है। तिस पर सरकारी खरीद की अवधि एकदम कम समय के लिए होती है और अक्सर बिना पूर्व सूचना के कभी भी शुरू और बंद हो जाया करती है। हरियाणा में सरसों की सरकारी खरीद का समय तब और भी कम रह गया जब गांवों के समूहों के हिसाब से दिन बांटकर उन चिन्हित दिवसों पर ही किसानों से फसल उठाने की प्रणाली बिठा दी गई। नतीजा यह कि मजबूर हुए किसानों को निजी व्यापारियों को अपनी फसल बेचनी पड़ती है जो आगे इसी फसल को उसी किसान के नाम से सरकारी खरीद केंद्र पर मुनाफे में बेच देते हैं!
तीसरी तरकीब है ‘लोकेशन ट्रिक’- इसमें सरकार जानबूझकर ऐसी जगह खरीद केंद्र खोलती है ताकि वहां पहुंचकर फसल बेचना किसान के लिए बहुत दुश्वार बन जाए। हरियाणा के रेवाड़ी में सरकारी खरीद मुख्य अनाज मंडी के बजाय सरसों के लिए वहां से 4 कि.मी. दूर अलग जगह निर्धारित कर दी गई। खरीद केंद्रों के बारे में कोई स्थाई नियमावली नहीं बनाई गयी। हरियाणा सरकार ने सरसों के लिए 29 खरीद केंद्र बनाए लेकिन इसके उत्पादन में प्रमुख मेवात जिले में तब तक नहीं बनाया जब तक कि किसान धरने पर नहीं बैठ गए। तेलंगाना में तो सरकारी कपास खरीद केंद्र निजी कताई मिलों के अंदर बनाए गए!


चौथी चाल है ‘मात्रा-निर्धारण’ यानी फसल की कितनी मात्रा एक किसान सरकारी एजेंसी को बेच सकता है। जहां एक ओर सरकार कृषकों को ज्यादा से ज्यादा उत्पादन करने को प्रेरित करती नहीं अघाती ताकि बंपर फसल के लिए खुद को श्रेय दे सके वहीं दूसरी ओर यही सरकार किसान को तयशुदा मात्रा से ज्यादा उत्पादन करने पर ‘दंड’ देती है। सरकारी एजेंसी द्वारा प्रति एकड़ उत्पादन-खरीद-मात्रा तय करने के अलावा किसी एक किसान से कितना उत्पाद लेना है और यहां तक कि राज्य के कुल कोटे का निर्धारण तक तय किया जाता है। जो कुल राष्ट्रीय उत्पादन के पैमाने पर निर्धारित करने के बाद स्थानीय स्तर के उत्पादन के लिए अंशमात्र बनकर रह जाता है। इस फार्मूले से मध्य प्रदेश का नरसिंहपुर और होशंगाबाद जिला सबसे ज्यादा घाटे में रहता है, जिनकी प्रति एकड़ उत्पादकता स्वयं उस राज्य और देशभर में सबसे अधिक है।


पांचवीं चाल है ‘एफएएक्यू’ यानी उचित और औसत गुणवत्ता का पैमाना। व्यावहारिकता में जिंस में नमी की मात्रा, छंटाई में निकलने वाले दानों की संभावना या उनकी गुणवत्ता इत्यादि तय करने का काम मौके के हिसाब से होता है लेकिन निर्धारण का कोई ठोस तरीका नहीं है। जब कभी वाकई जायज कारण होते हैं तब भी इन पैमानों में जरा भी छूट नहीं दी जाती।


ठगी का छठा तरीका है ‘कागजी मायाजाल’, इसमें उन्हें सरकारी खरीद का पात्र बनने हेतु इतने कागजी सबूत देने को कहा जाता है जो एक आम किसान के लिए लगभग असंभव होता है। मध्य प्रदेश में किसानों को पहले ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन करने की बाध्यता है जो भले ही मुफ्त है लेकिन इसके लिए निर्धारित किए दिनों की संख्या बहुत कम है और तयशुदा समय में यह करना तब और एक टेढ़ी खीर है जब मंडी का सर्वर भारी ट्रैफिक की वजह से अक्सर डाउन हो। तिस पर किसान को आधार कार्ड, बैंक अकाउंट नंबर, पासबुक, जमीन का रिकॉर्ड और गिरदावरी की रिपोर्ट दिखानी पड़ती है अलग से, और वह भी बाकायदा प्रमाणित की हुई। ऊपर से किराए की जमीन पर खेती करने वालों के लिए तो लगभग असंभव है।
वहीं बोली में अपने बंदों की मार्फत जानबूझकर तोड़ी गई कीमतें और मांग में कृत्रिम कमी दिखा देना उन्हें लूटने का सातवां तरीका है। एक बार मंडी में घुस जाने पर किसान आढ़तियों के रहमो-करम पर होता है जो उनके लिए सालभर अक्सर साहूकार के दोहरे रूप में भी होते हैं। अतएव फसल खरीदने का पहला अधिकार उनके पास सुरक्षित रहता है। बहुत-सी छोटी मंडियों में नीलामी आज भी गुप्त संकेतों वाली प्रणाली से लगाई जाती है जो किसान की समझ से परे है।


इसके अलावा हर मंडी में ‘लघु अप्रत्यक्ष हेराफेरी विभाग’ होता है जो किसानों को अदृश्य रूप से अनेकानेक चालों की मार्फत ठगता है। मसलन मंडियों द्वारा बनाए गए स्वयंभू कर हैं जो तयशुदा जीएसटी दरों का सरासर उल्लंघन है। हर मंडी ने अपना ही टैक्स थोप रखा है, जिससे किसान बच नहीं सकता। बहुत-सी छोटी मंडियों में बाबा आदम के वक्त की तोल मशीनें लगी हैं, जिनका परिमाण सटीक नहीं होता।


किसान-लूटो-अभियान की नौवीं चाल है ‘विलंबित भुगतान’, जिससे हतोत्साहित हुआ किसान सरकारी एजेंसियों की बजाय निजी व्यापारियों की तरफ जाता है। चूंकि आजकल ज्यादातर भुगतान एनईएफटी द्वारा किए जाते हैं। व्यावहारिकता में पैसे आने की अवधि महीनों में भले ही न होकर हफ्तों तक तो खिंच जाती है। मध्य प्रदेश में पिछले छह महीनों में हुई उड़द दाल के किसान आज तक भावांतर भुगतान का इंतजार कर रहे हैं।


अंत में आती है ‘बैंक ट्रिक’-जब भी, जितनी भी रकम किसान के खाते में आती है तो बैंक इसका बड़ा हिस्सा उसके द्वारा पहले से लिए गए कर्ज की एवज में रख लेते हैं। इसलिए नई घोषित होने वाली योजना को उपरोक्त दस तरीकों में प्रत्येक के आलोक में परखना होगा कि क्या यह उनको निरस्त कर पाएगी। अगला यक्ष प्रश्न स्वाभाविक होगा : अपेक्षित योजना को घोषित करने में मौजूदा सरकार ने चार सालों के अलावा पिछला बजट पेश करने के बाद और दो महीनों का समय क्यों लिया, क्योंकि जब तक इसे अमलीजामा पहनाया जाएगा तब तक तो रबी फसल की खरीद काफी निकल चुकी होगी। तो क्या हम इसे ग्यारहवीं चाल समझें ?

(सौजन्य – दैनिक ट्रिब्यून)


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