नि:संदेह भारत का बैंकिंग सेक्टर इन दिनों सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है। पहले तो वित्तीय धांधलियों से सार्वजनिक बैंकों का लगातार बढ़ता एनपीए बड़ी चिंता का विषय रहा है। उसके बाद हीरा व्यापारी नीरव मोदी द्वारा किया बैंकिंग क्षेत्र का बड़ा घोटाला सामने आया। फिलहाल यह हितों के टकराव के मामले में आईसीआईसीआई बैंक की सीईओ चंदा कोचर के पति दीपक कोचर और वीडियोकॉन समूह के प्रमोटर वेणुगोपाल घूत के कारण सुर्खियों में है। ऐसे में नियामक संस्था कोई जोखिम नहीं उठाना चाहती। नि:संदेह निजी बैंकों के जटिल आंतरिक मामले और उनके बोर्डों के विशेषाधिकार भी आरबीआई की जांच के दायरे में आते हैं। लेकिन आरबीआई ने स्पष्ट रूप से एक्सिस बैंक बोर्ड के उस फैसले के प्रति असहमति जताई है, जिसमें सीईओ शिखा शर्मा के कार्यकाल को चौथी बार बढ़ाया गया था। ऐसे अहम मामले में नियामक संस्था का हस्तक्षेप अपेक्षित है। आरबीआई ने अपने अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत एक्सिस बैंक के बोर्ड से अपने निर्णय पर पुनर्विचार करने को कहा है। आरबीआई के मुताबिक सीईओ का कार्यकाल लगातार बढ़ाते जाना बैंक के अंशधारकों के हितों के अनुकूल नहीं है।
ऐसे मामलों में सतर्कता बरतने के गहरे निहितार्थ हैं। नि:संदेह शिखा शर्मा ने अपने एक दशक के कार्यकाल में बैंक के कारोबार को आक्रामक तरीके से रिटेल और संरचनात्मक ऋणों के क्षेत्र में बढ़ाया। यद्यपि नोटबंदी के दौरान उनके कार्यकाल में कई विवाद भी सामने आये। वहीं उनके कार्यकाल में बैंक के एनपीए में अप्रत्याशित उछाल आया। हाल ही में आरबीआई ने बैंक के बेड लोन के बाबत कार्रवाई की थी। ये अलाभकारी ऋण वर्ष 2015-16 में बैंक के अनुमान के मुकाबले 156 फीसदी अधिक थे। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि अनुत्पादक ऋण बैंकिंग व्यवस्था के लिये खतरा बने हुए हैं। ऐसे में आश्चर्य की बात है कि बैंक बोर्ड ने अनुत्पादक ऋणों को बढ़ावा देने के लिये सीईओ को दंडित करने के बजाय उसे चौथे कार्यकाल का तोहफा दिया, जिसमें कार्यकाल वर्ष 2021 में खत्म होना था। अब भारतीय रिजर्व बैंक के हस्तक्षेप के बाद शिखा शर्मा ने निर्णय लिया है कि वह इस साल दिसंबर तक अपना पद छोड़ देंगी। इस घटनाक्रम के बाद निजी बैंकों को संरक्षण हेतु निजी बैंकों के एकीकरण की दिशा में प्रयास जरूरी हैं।
(सौजन्य – दैनिक ट्रिब्यून)
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