Wednesday 11 April 2018

संसदीय व्यवधान के खलनायक


प्रकृति नियम बंधन में है। ऋग्वेद में प्रकृति के संविधान को ‘ऋत’ कहा गया है। वैदिक समाज में मान्य इंद्र, वरुण, अग्नि, जल और सूर्य आदि देवता परम शक्तिशाली हैं, लेकिन वे भी ऋत विधान का अनुशासन मानते हैं। दर्शनशास्त्री डॉ. राधाकृष्णन की टिप्पणी है कि ईश्वर भी इन नियमों में हस्तक्षेप नहीं करता। भारत की प्रज्ञा ने देवताओं को भी विधान से नीचे रखा है, लेकिन इसी भारत में विधि बनाने वाली पवित्र संसद में घोर नियमविहीनता देखी जा रही है।


संसदीय व्यवस्था प्रश्नवाचक हो चुकी है:


विधि निर्माता स्वयं अपनी बनाई विधि और सदनों की कार्य संचालन नियमावली तोड़ रहे हैं। संसदीय व्यवस्था प्रश्नवाचक हो चुकी है। जनगणमन निराश है। दलतंत्र में कोई पश्चाताप या आत्मग्लानि नहीं है। गतिरोध के कारण लोकसभा में 127 घंटे व राज्यसभा में 120 घंटे काम नहीं हुआ। विनियोग विधेयक भी बिना चर्चा पारित हुआ है। संसदीय व्यवधान के नायकप्रसन्न हैं, लेकिन राष्ट्र सन्न है। दुनिया के सबसे बड़े जनतंत्र की विफलता आश्चर्यजनक है। भारत का लोकजीवन प्राचीनकाल से ही लोकतंत्री था।
लोकसभा के पूर्व महासचिव सुभाष कश्यप ने लिखा है, ‘यहां वैदिक युग से ही गणतांत्रिक स्वरूप, प्रतिनिधिक विमर्श और स्थानीय स्वशासन की संस्थाएं थीं। ऋग्वेद, अथर्ववेद में सभा समिति के उल्लेख हैं। ऐतरेय ब्राह्मण, पाणिनी की अष्टाध्यायी, कौटिल्य के अर्थशास्त्र व महाभारत में उत्तर वैदिक काल के गणतंत्रों का उल्लेख है।’ डॉ.आंबेडकर ने भी संविधान सभा के अंतिम भाषण (25.11.1949) में ऐसा ही उल्लेख किया और कहा कि ‘भारत से यह लोकतांत्रिकव्यवस्था मिट गई। लोकतंत्र को बनाए रखने के लिए हम सामाजिक और आर्थिक लक्ष्यों की पूर्ति के लिए संवैधानिक रीतियों को दृढ़तापूर्वक अपनाएं, सविनय आंदोलन की रीति त्यागें। ये रीतियां अराजकता के अलावा और कुछ नहीं।’


ब्रिटिश संसदीय परंपरा में व्यवधान और हुल्लड़ नहीं होते
भारत के संविधान निर्माताओं ने ब्रिटिश संसदीय प्रणाली अपनाई। यही उचित भी था। ब्रिटिश संसदीय परंपरा में व्यवधान और हुल्लड़ नहीं होते। बीबीसी के अनुसार ‘बीते सैकड़ों वर्ष से ब्रिटिश हाउस ऑफ कॉमंस को एक मिनट के लिए भी स्थगित नहीं किया गया है।’ वहां ओहओह या शेम शेम कहना भी अभद्र माना जाता है। कनाडा, ऑस्ट्रेलिया आदि की सभाओं में भी भारत जैसे अभद्र दृश्य नहीं होते। मूलभूत प्रश्न है कि ब्रिटिश संसद जैसी परंपरा अपनाकर भी हम भारत के लोग अपनी विधायी संस्थाओं को वैसा ही सुंदर स्वरूप क्यों नहीं दे पाते?


स्वयं अपने द्वारा बनाई गई नियमावली का पालन क्यों नहीं:


संविधान में संसद के प्रत्येक सदन को अपने कार्यसंचालन के लिए नियम बनाने की शक्ति है। यही शक्ति विधानमंडलों को भी मिली है। प्रत्येक सदन ने अपनी कार्य संचालन नियमावली बनाई है, लेकिन आश्चर्य है कि स्वयं अपने द्वारा बनाई गई नियमावली भी यहां पालनीय क्यों नहीं है? मूलभूत प्रश्न है कि शोर और बाधा डालकर हम कार्यपालिका को ज्यादा जवाबदेह बनाते हैं? या तथ्य और तर्क देकर बहस के माध्यम से हम प्रभावी भूमिका का निर्वहन करते हैं? स्वाभाविक ही सभाभवन में बहस और विमर्श का कोई विकल्प नहीं होता। व्यवधान का तो कतई कोई उपयोग नहीं, लेकिन विपक्ष को बहस प्रेय नहीं लगती। व्यवधान ही श्रेय लगते हैं।


विपक्षी माननीय ध्यान दें:

व्यवधान से हमेशा सत्तापक्ष को व्यावहारिक लाभ मिलता है। मंत्रीगण प्रश्नोत्तरों से बचते हैं। वे स्पष्टीकरण की जिम्मेदारी से बच जाते हैं। विपक्ष वैकल्पिक विचार नहीं रख पाता। इससे विपक्ष के साथ देश का भी नुकसान होता है। संसद व विधानमंडल सर्वोच्च जनप्रतिनिधि निकाय हैं। सभी सदस्यों के अपने विचार होते हैं और सबकी अपनी प्राथमिकताएं। यहां सब बोलने ही आते हैं श्रोता कोई नहीं होता। श्रोता भी बात काटने के लिए ही सुनता है। इसलिए बहस में उमस और गर्मी स्वाभाविक है, लेकिन बहस उमस के बाद आने वाली आंधी में संविधान तार- तार हो जाता है। 1968 तक संसद में होने वाले व्यवधान प्राय: नगण्य थे। इसके पहले संभवत: पहली दफा 1952 में प्रिवेंटिव डिटेंशन एमेंडमेंट विधेयक पर घोर व्यवधान हुआ था।


सदनों की कार्यवाही पर करोड़ों का लोकधन खर्च होता है:


1963 में आधिकारिक भाषा विधेयक पर भी भारी व्यवधान हुआ, पर वे अपवाद थे, लेकिन अब व्यवधान संसदीय कार्यवाही का मुख्य हिस्सा हैं। प्रत्येक सत्र के बाद व्यवधान कर्मी सदस्यों की सूची प्रकाशित हो। जनता अपने प्रतिनिधियों का काम जांचे। सदनों की कार्यवाही पर करोड़ों का लोकधन खर्च होता है। जनहित पर बात नहीं होती, दलहित सर्वोपरिता है। संसद का गौरवशाली इतिहास है। इसके पहले संविधान सभा की कार्यवाही 165 दिन चली थी। 17 सत्र हुए थे। लंबी तीखी बहसों के बावजूद व्यवधान नहीं हुए। पहली लोकसभा में पं. नेहरू थे तो डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी थे। पुरुषोत्तम दास टंडन, सेठ गोविंदास जैसे धीर पुरुष थे तो हरि विष्णु कामथ जैसे आलोचक भी थे। 1968 तक सदस्य धैर्य से सुनते थे। अध्यक्ष की अनुमति से बोलते थे।


संसदीय व्यवस्था को अग्नि स्नान की जरूरत:


दुनिया की सभी विधायी संस्थाओं की गुणवत्ता बढ़ी है, लेकिन भारतीय संसद ने निराश किया है। यहां का शून्यकाल हंगामा है। पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव ब्रिटिश हाउस ऑफ कॉमंस के दौरे पर थे। उनसे पूछा गया कि आपके देश में यह शून्य काल क्या है? राव ने कहा कि यह वैश्विक संसदीय व्यवस्था में भारत का योगदान है। ब्रिटिश संसदीय प्रणाली में कदाचरण के आधार पर सदस्यों की बर्खास्तगी की भी प्रथा है। संसदविज्ञ अर्सकिन ने ‘पार्लियामेंट्री प्रोसीजर एंड प्रैक्टिस’ में ‘भ्रष्टाचार के साथ ही अशोभनीय व्यवहार के कारण भी सदस्यों की बर्खास्तगी की प्रथा बताई है।’ हम भी उसे क्यों नहीं अपना सकते? संसदीय व्यवस्था का कोई विकल्प नहीं। संसद अपनी प्रक्रिया की स्वामी है। संसदीय व्यवस्था को अग्नि स्नान की जरूरत है। संसद और विधानमंडलों के सत्र और सत्रों की अवधि बढ़ाई जानी चाहिए।


संविधान सभा में प्रो. केटी शाह ने ‘संसद को कम से कम छह माह चलाने का प्रस्ताव किया था। उन्होंने अध्यक्ष मावलंकर का विचार भी दिया था कि ‘देश के प्रति न्याय के लिए जरूरी है कि सदन वर्ष में 7-8 माह से कम न बैठे।’ संसदीय समितियों में शालीनता के साथ ढेर सारा काम होता है। उनकी कार्यवाही गुप्त रखने के बजाय सर्वाजनिक करना प्रेरक होगा। कार्यस्थगन को अपवाद बनाया जा सकता है। प्रतिवर्ष दो या तीन विशेष सत्र बुलाए जा सकते हैं। इनमें विधि निर्माण और राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय मुद्दों को ही प्रमुखता दी जा सकती है।


बाधा डालने के कृत्य संसदीय विशेषाधिकार का हनन:


विधि निर्माण के लिए अतिरिक्त समय आवंटन जरूरी है। दंड अंतिम विकल्प है। बाधा डालने के कृत्य संसदीय विशेषाधिकार का हनन हैं। संविधान के अनुच्छेद 102 में संसद व अनुच्छेद 191 में विधानमंडल के सदस्यों को सदन के अयोग्य घोषित करने के प्रावधान हैं। इनमें संसद द्वारा निर्मित विधि द्वारा अयोग्य घोषित सदस्य को अयोग्य माना गया है। लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 में संशोधन करके बार-बार बाधा डालने वाले आचरणकर्ता को सूचीबद्ध किया जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय ने संसदीय व्यवस्था को संविधान का मूल ढांचा कहा है। इसी ‘मूल’ पर प्रहार करने वाले सदस्य सदन के अयोग्य क्यों नहीं हो सकते? राष्ट्र अपने प्रतिनिधियों को काम करते ही देखना चाहता है।


(हृदयनारायण दीक्षित, उत्तर प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष)


सौजन्य – दैनिक जागरण।


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