समय के साथ जमाना बदलता जा रहा है। उसी के साथ लोगों के रोजगार-धंधों का स्थान व स्तर भी बदलता जा रहा है। कृषि क्षेत्र की सच्चाइयां भी बदलती जा रही हैं। कृषि कभी अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी थी, लेकिन आज ऐसा नहीं है। इसीलिए किसानों को समस्याओं से जूझना पड़ रहा है। कृषि की सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में मात्र 16 फीसदी हिस्सेदारी है। जबकि आबादी का 60 फीसदी हिस्सा कृषि पर ही निर्भर है। नतीजा बोझ ज्यादा, क्षमता कम। किसान 170 किलोमीटर से ज्यादा पैदल चलकर अपने नुमाइंदों को यह बताने आते हैं कि हम मर रहे हैं। आपने कई वायदे किए थे, कहां हैं अच्छे दिन का सपना, जो टूट गया।
लेकिन रोने-गिड़गिड़ाने से बात नहीं बनेगी। बात अगर बनेगी, तो समय के साथ चलने से। किसानों को खुद को ‘बेचारा’ समझने की मानसिकता से बाहर आना पड़ेगा। उसे यह ‘स्टैंड’ लेना होगा कि ‘सब्सिडी’ नहीं, हमें हमारा ‘हक’ चाहिए, और वह ‘हक’ प्राप्त करने के लिए किसानों को स्वयं को संगठित करना होगा। सहारनपुर के एक किसान ने बताया कि उसे दिसंबर में बेचे गन्ने का अभी तक ‘पेमेंट’ नहीं मिला है। इस तथ्य से लेखक का अर्थ ‘हक’ से है। किसानों को नीति-निर्धारकों का सोशल ‘ऑडिट’ करना चाहिए। उनसे सवाल पूछने चाहिए, ताकि सत्ता का आनंद लेने वाले सत्ता के उद्गम का आदर करना सीखें।
पहला सवाल किसानों को सरकार से पूछना चाहिए कि कृषि वैज्ञानिक क्या कर रहे हैं? उनकी कोई जवाबदेही है या नहीं? केंद्र सरकार का वर्ष 2015-16 का आर्थिक सर्वे बताता है कि 63 फीसदी से अधिक वैज्ञानिकों की रिसर्च उत्पादकता बहुत कम है। इसका अर्थ है कि मोटी तनख्वाह लेने वाले वैज्ञानिक किसानों और समाज के लिए सफेद हाथी हैं। यही कारण है कि खेती के क्षेत्र में प्रसारण का काम नहीं हो रहा है, जिसकी बहुत जरूरत है। इसी के कारण उन्नत तकनीक किसानों तक नहीं पहुंच पाई है। उदाहरण के लिए, 30 फीसदी से ज्यादा क्षेत्र में अभी तक परंपरागत बीज ही बोया जा रहा है। आधे से अधिक खेतिहर क्षेत्र को सिंचाई की सुविधा तक नहीं है। फल एवं सब्जियां मात्र 10 फीसदी क्षेत्र में ही उगाई जाती हैं। क्या ‘जवाबदेही’ शब्द केवल किताबों तक ही सीमित रह गया है? ऐसा होना नहीं चाहिए। किसानों को ठान लेना चाहिए कि जब भी राजनीतिक दल उनसे वोट मांगने आएं, तो वे उनका ‘सोशल-ऑडिट’ करें। उनसे पूछें कि अपने कार्यकाल में आपने किसानों के लिए क्या किया।
दूसरा सवाल किसानों को स्वयं से भी करना चाहिए। खेती में उत्पादन बढ़ाने की समस्या उतनी गंभीर नहीं है, जितनी किसानों की आय बढ़ाने की जरूरत है। यानी उसकी शुद्ध आमदनी (नेट इनकम) अधिक हो। यही नहीं हो रहा है, क्योंकि किसान ‘फार्म बिजनेस आय’ को ही शुद्ध आमदनी समझता है। ‘फार्म बिजनेस आय’ में किसानों की अपनी मेहनत या मजदूरी भी शामिल होती है। जो किसानी करते हैं, वे जानते होंगे कि किसान का पूरा परिवार ही इसमें लगा रहता है। कार्य भी रात व दिन, दोनों का है, अगर किसान ‘फार्म बिजनेस आय’ के बजाय ‘शुद्ध आय’ का आकलन करना शुरू कर दे, तो खेती छोड़ने की गति तेज हो जाएगी। मसला यह है कि किसान अपनी शुद्ध आय कैसे बढ़ाए? इसके लिए जरूरी है कि उनकी ‘ऑपरेशनल’ लागत कम हो। इसके लिए किसानों को समूह के रूप में खेती करने की जरूरत है। देखने में आता है कि छोटे व सामान्य किसानों की क्षमता नहीं है कि वे व्यतिगत स्तर पर खेती की मशीनरी रख सकें, लेकिन वे अहं के कारण रखते हैं। मसलन, अगर तीन भाई खेती करते हैं, तो उन तीनों की खेती के अनुसार एक ही ट्रैक्टर काफी है, लेकिन तीनों के पास अलग-अलग ट्रैक्टर हैं। यही तथ्य खेती के अन्य उपकरणों के बारे में भी है। इससे उन्हें आर्थिक नुकसान हो रहा है, नतीजा लागत ज्यादा, आमदनी कम। इसलिए किसानों को इस बारे में स्वयं सोचना चाहिए। अगर वे इस समस्या को स्वयं हल नहीं करते, तो कुछ दिनों के बाद सभी मजदूर बन जाएंगे।
तीसरा सवाल किसानों एवं सरकार, दोनों से जुड़ा है। और वह है खेती-व्यवसाय का, जिसे अंग्रेजी में एग्री बिजनेस कहते हैं। यूएनडीपी के अनुसार, 2050 तक भारत में ग्रामीण क्षेत्र रहेगा ही नहीं। इसका अर्थ है कि गांव समाप्त हो जाएंगे। आधारभूत सुविधाएं कैसी होंगी, वह तो समय ही बताएगा, लेकिन वर्तमान समय को ध्यान में रखकर किसानों को अपनी कंपनी बनाने की जरूरत है। गांवों में ही गैर-कृषि क्षेत्र के छोटे-छोटे कुटीर उद्योग आदि स्थापित करने की जरूरत है। इसके अंतर्गत विकास का मॉडल होगा कि गांव से ‘कृषि-उत्पाद’ ‘वैल्यू एडीशन’ के बाद उत्पाद के रूप में बाजार में जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, गेहूं का आटा या ब्रेड बनकर गांव से ही बाजार में जाना चाहिए। यह प्रयोग उस समस्या का समाधान है कि देश में अगर उद्योग-धंधे पनप रहे हैं, तो कृषि संबंधी उद्योग धंधों में कार्य करने वालों का प्रतिशत कम है। इससे युवाओं का शहरों की तरफ पलायन भी रुकेगा। युवक या किसान अपनी खेती भी देखें और गैर-कृषि क्षेत्र में कार्य भी करें। इससे न तो उन्हें शहरों की खाक छाननी पड़ेगी और न ही कृषि उत्पादकता घटेगी। इस प्रकार स्थानीय समस्या का समाधान स्थानीय स्तर पर ही हो जाएगा।
इस विचार को अमल में लाने के लिए किसानों के संगठन, उनके क्लब एवं उनके साथ कार्य करने वाली संस्थाएं राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन, जिसके अंतर्गत युवाओं के लिए ‘स्टार्ट-अप’ उद्यमिता कार्यक्रम एवं महिला सशक्तिकरण परियोजनाओं से लाभ ले सकती हैं। राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन के तहत स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से ग्रामीण समाज में सामाजिक पूंजी का विकास किया जाता है। फिर इन समूहों को बैंकों के साथ जोड़ा जाता है और अंततः कुटीर उद्योग स्थापित करके उसे बाजार से जोड़ा जाता है। ग्रामीण विकास का यह ‘मॉडल’ खेती को सम्मान देकर किसानों को खुशहाल बना सकता है।
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