Friday, 4 August 2017

असहमति और देशद्रोह

असहमति देशद्रोह नहीं है, लोकतंत्र का सार है।

हमारी विरासत एक रंग-बिरंगी चादर जैसी है, जिसे हम भारत कह सकते हैं, और हम अलग-अलग रंगों से बुनी इस चादर की विविधता की कद्र करते हैं।

“अनेकता में एकता” भारतीय समाज की महत्त्वपूर्ण विशेषता है। यह वाक्यांश इस बात का भी सूचक है कि भारत किस प्रकार से विविधतापूर्ण संस्कृति, सामाजिक और जातीय तत्त्वों को अपनाते हुए निरंतर आगे बढ़ रहा है। यहाँ अपनी पहचान को अक्षुण्ण रखकर विविधता को अंगीकार करने की आज़ादी है।

कुछ विभाजनकारी ताकतों की नाकाम कोशिशों, सामुदायिक झड़प और नफरत फैलाने जैसी गिनी-चुनी घटनाओं को छोड़ दें तो ऐसे उदाहरण कम ही देखने को मिलते हैं जिसके परिणामस्वरूप भारत की विविधता पर आँच आई हो। उल्लेखनीय है कि जब ऐसी शक्तियों ने करवट लेने की कोशिश की है जिससे कि भारत की एकता और अखंडता पर संकट आए तो इसका मुखर प्रतिरोध समाज, सरकार, न्यायपालिका, सिविल सोसाइटी आदि के द्वारा किया गया।

इस तरह विविधता भारत की एक अमूल्य संपदा है जो भारत को निम्नलिखित रूप से सशक्त बनाती है।

यह किसी एक भाषा, संस्कृति, रीति-रिवाज आदि को प्रभावशाली होने से रोकती है और गंगा-जमुनी तहज़ीब को जीवंत बनाए रखती है।

यह समाज में सकारात्मक स्पर्द्धा को जन्म देती है, जो समाज को सतत् रूप से विकास करने की प्रेरणा प्रदान करती है।

इससे विभिन्न संस्कृतियों का समावेश होता है जिससे बंधुता की भावना को बल मिलता है।
निजता या व्यक्तिगत स्वंत्रता का अधिकार से सृजनात्मकता और नवाचार को बढ़ावा मिलता है।

यद्यपि भारत मामूली स्तर पर बड़े और छोटे धार्मिक समुदायों के बीच अंतर का सामना कर रहा है। फिर भी भारत की अधिकांश आबादी यहाँ की विविधता का मज़ा लेते हुए खुशीपूर्वक जीवन व्यतीत कर रही हैं।

विज्ञान, प्रौद्योगिकी और नवोन्मेष नीति, 2013 ( Science, Technology and Innovation Policy 2013)

विज़न 

तीव्र धारणीय एवं समावेशी विकास के लिए विज्ञान चालित समाधानों की खोज को बढ़ाना।

उद्देश्य

भारत को शीर्ष पांच वैश्विक वैज्ञानिक शक्ति वाले देशों की सूची में शामिल करना।

प्रासंगिकता/उपादेयता

आज विज्ञान विकास एवं प्रगति का अहम् साधन है। दुनिया के विकसित देशों ने विज्ञान एवं तकनीकी क्षेत्र में आत्मनिर्भरता हासिल करके ही वैश्विक धाक जमाई है। किन्तु आजा़दी के 70 वर्षों बाद भी भारत पिछड़ा हुआ है, नतीजतन परावलम्बी है। यही वजह है कि हम गरीबी, भुखमरी, असमानता, अशिक्षा, बिमारी और शोषण से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं। हमारे देश में विज्ञान और प्रौद्योगिकी प्रतिष्ठानों में सरकार का प्रभुत्व है और दुनिया भर में ज्यादातर सरकारी इकाईयों की तरह ही उसमें जोखिम लेने की कार्य संस्कृति तथा नवोन्मेष का अभाव बना हुआ है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मैसूर में 103वीं विज्ञान कांग्रेस का उद्घाटन करते हुए कहा - "सुशासन केवल नीतियां बनाना और निर्णय लेना मात्र नही हैं, बल्कि सुशासन विज्ञान और प्रौद्योगिकी को जोड़कर विकल्प पेश करने और रणनीति तैयार करने की व्यवस्था है।"  प्रधानमंत्री ने पांच - ई (Five Es) पर फोकस किया है-  अर्थव्यवस्था (Economy), पर्यावरण (Environment), ऊर्जा (Energy), संवेदना (Empathy), तथा समानता (Equality)। साथ ही नवोन्मेष को रेखांकित करते हुए वैज्ञानिकों से अपील की है कि वे पारंपरिक ज्ञान और आधुनिक ज्ञान के बीच की खाई को खत्म करें जिससे कि चुनौतियों के स्थानीय और अधिक स्थायी समाधान खोजे जा सकें। चूंकि वर्तमान भारत के ग्रामीण क्षेत्रों से आ रहे नए - नए आविष्कारों ने न केवल भारत में बल्कि विश्व मंच पर भी अपना लोहा मनवाया है। यदि इन प्रतिभाओं की रचनात्मकता को भी मान्यता मिलती है तो स्थानीय स्तर पर जरूरतों के हिसाब से उपकरणों के निर्माण का सिलसिला तेज हो सकता है। अतः विज्ञान नीति को गांव और ग्रामीण आविष्कारों से जोड़ने की अत्यन्त जरूरत है तभी भारत में विकास की गूंज चहुंओर सुनाई देगी।

Thursday, 3 August 2017

पृथ्वी का भविष्य : प्लास्टिक प्लानेट (Plastic Planet)

हम बहुत तेजी से 'प्लास्टिक प्लानेट' बनने की ओर अग्रसर हैं।
एक आंकड़े के मुताबिक अब तक बनाए गए प्लास्टिक की कुल मात्रा 8.3 अरब टन बताई है।
यह ऐसा मटीरियल है जो बीते 65 सालों में बड़ी तेजी से बनाया गया। यह आंकड़ा करीब 100 करोड़ हाथियों के वजन के बराबर है।
गौर करने वाली बात ये है कि प्लास्टिक को कचरे के तौर पर फेंकने से पहले उसका इस्तेमाल बेहद कम समय के लिए ही किया जाता है।
कुल प्लास्टिक उत्पादन का 70 फीसदी से ज्यादा कचरे के रूप में है, जो अधिकतर ज़मीनों में भरा जा रहा है या नालों में बहाया जा रहा है। इससे वातावरण को भी बहुत नुकसान हो रहा है।
अगर हम पृथ्वी को प्लास्टिक प्लानेट बनने से रोकना चाहते हैं तो हमें प्लास्टिक से बनी चीजों के इस्तेमाल को लेकर सोचना होगा।

समुद्र मेंं बढ़ता प्लास्टिक मलबा

पहले यह समझा जाता था कि समुद्री कचरा सिर्फ उत्तरी प्रशांत महासागर में है, लेकिन अब वह दक्षिणी प्रशांत, आर्किटक और भूमध्य इलाकों में भी दिखने लगा है। दक्षिणी प्रशांत क्षेत्र में 9,65,000 वर्ग मील तक सिर्फ प्लास्टिक का मलबा फैला हुआ है।

प्लास्टिक मलबे से समुद्री जीवन पर बुरा असर पड़ता है। गहरे समुद्र में पाई जाने वाली लैंटर्न मछली, बड़ी व्हेल और पेंग्विन का भोजन होती है। लैंटर्न द्वारा प्लास्टिक कचरा खाने से बड़ी मछलियों के जीवन पर भी उसका असर देखने को मिलता है। कई इलाकों से ऐसी मछलियां देखी गयी हैं जिनके शरीर के भीतर प्राकृतिक खाने से ज्यादा प्लास्टिक कचड़ा भरा हुआ था।

समुद्र में सबसे ज़्यादा प्लास्टिक मैदानी इलाकों से पहुंचता है, प्लास्टिक के छोटे-छोटे टुकड़े हवा में उड़कर समुद्र में आ गिरते हैं और धीरे-धीरे अपना आकार बड़ा बना लेते हैं। उत्तरी प्रशांत महासागर क्षेत्र मेंं फैलते प्लास्टिक मलबे का यह एक मुख्य कारण रहा है। दक्षिणी प्रशांत में पाया जाने वाला प्लास्टिक मलबा उत्तरी गोलार्ध से अलग है। यहां पर ज़्यादातर प्लास्टिक फिशिंग इंडस्ट्री से आया है।

समुद्र के बीच जाकर प्लास्टिक मलबे के बारे में पता करने से पहले समुद्री किनारों पर बढ़ते कचरे को कम करने पर विचार करना चाहिए क्योंकि सबसे अधिक कचरा यहीं बढ़ रहा है।
प्लास्टिक प्रदूषण की कोई राष्ट्रीय सीमा नहीं है, इसलिए सभी देशों को मिलकर इस पर विचार करना चाहिए।

Wednesday, 2 August 2017

जलवायु परिवर्तन (Global Warming) की वजह से बढ़ती गर्मी और उमस का भारतीय उपमहाद्वीप (Indian Subcontinent) पर संभावित असर

ग्लोबल वार्मिंग की वजह से बढ़ती गर्मी और उमस की वजह से दक्षिण एशिया, जहाँ दुनिया की कुल आबादी के बीस फ़ीसदी लोग रहते हैं, के लाखों लोग पर गंभीर ख़तरा मंडरा रहा है।

अगर ग्लोबल वार्मिंग बढ़ाने वाले उत्सर्जन में कमी नहीं आई तो साल 2100 तक भारतीय उपमहाद्वीप की 30 फ़ीसदी आबादी ख़तरनाक उमस भरी गर्म हवाओं के घेरे में आ सकती है।

दुनिया में ज्यादातर आधिकारिक मौसम केंद्र दो तरह के थर्मामीटर के जरिए तापमान नापते हैं।
इनमें पहला है 'ड्राइ बल्ब' थर्मामीटर जिसके जरिए हवा का तापमान रिकॉर्ड होता है।
दूसरा है 'वेट बल्ब' थर्मामीटर जिसमें हवा की नमी को नापा जाता है और इसमें आमतौर पर साफ हवा के तापमान से कम तापमान रिकॉर्ड होता है। मनुष्यों के लिए 'वेट बल्ब' के नतीजे खासे अहम हैं।
हमारे शरीर के अंदर सामान्य तापमान 37 सेंटीग्रेट होता है। त्वचा का तापमान आमतौर पर 35 सेंटीग्रेट रहता है। पसीना निकलने से जिस्म तापमान के इस अंतर को पाट लेता है।
अगर हमारे वातावरण में वेट बल्ब थर्मामीटर का तापमान 35 डिग्री सेंटीग्रेट या उससे ज्यादा है तो गर्मी घटाने की शरीर की क्षमता तेज़ी से कम होती है और सबसे तंदुरुस्त व्यक्ति की भी करीब छह घंटे में मौत हो सकती है।
एक इंसान के बचे रहने के लिए 35 डिग्री सेंटीग्रेट ऊपरी सीमा मानी जाती है। 31 डिग्री सेंटीग्रेट का नम तापमान भी ज्यादातर लोगों के लिए बेहद ख़तरनाक माना जाता है।
धरती पर वेट बल्ब थर्मामीटर में रिकॉर्ड किया गया तापमान शायद ही कभी 31 डिग्री सेंटीग्रेट से ऊपर गया है। हालांकि साल 2015 में ईरान में मौसम विज्ञानियों ने वेट बल्ब के तापमान को 35 सेंटीग्रेट के करीब देखा था। उसी साल गर्मियों में हीट वेव की वजह से भारत और पाकिस्तान में 35 सौ लोगों की मौत हुई थी।

हाल ही में वेट बल्ब के तापमान के इंसानों पर संभावित जानलेवा असर पर एक अध्ययन हुआ है। अध्ययन में शामिल शोधकर्ताओं ने उच्च दर्जे के जलवायु मॉडल को अपने पर्यवेक्षणों के मुकाबले परखा और तब निष्कर्ष दिया। उन्होंने दो अलग-अलग जयवायु परिवर्तन की स्थितियों के लिहाज से इस शताब्दी के आखिर के लिए वेट बल्ब तापमान का अनुमान लगाया।
शोध के मुताबिक अगर उत्सर्जन की दर ज्यादा रही तो वेट बल्ब तापमान "गंगा नदी घाटी, उत्तर पूर्व भारत, बांग्लादेश, चीन के पूर्वी तट, उत्तरी श्रीलंका और पाकिस्तान की सिंधु घाटी समेत दक्षिण एशिया के ज्यादातर हिस्से में" 35 डिग्री सेंटीग्रेट के करीब पहुंच जाएगा।
वैज्ञानिकों के मुताबिक करीब तीस फीसदी आबादी वेट बल्ब के सालाना अधिकतम तापमान 31 डिग्री सेंटीग्रट या उससे ज्यादा का सामना करेगी। फिलहाल इस स्तर के खतरे का सामना करने वाले लोगों की संख्या न के बराबर है।
सिंधु और गंगा नदियों की घाटियों में पानी है। खेती भी होती है और वहीं आबादी भी तेज़ी से बढ़ी है। जिन जगहों पर अधिकतम तापमान है वहाँ अपेक्षाकृत गरीब लोग रहते हैं जिन्हें खेती का काम करना होता है और वो उसी जगह हैं जहां खतरा सबसे ज्यादा है।
अगर पेरिस जलवायु समझौते के मुताबिक वैश्विक तापमान को दो डिग्री से थोड़ा ऊपर तक सीमित रखा जाए 31 सेंटीग्रेट से ज्यादा की उमस भरी गर्मी झेलने वाली आबादी घटकर दो फीसदी तक आ सकती है।
अगर कार्बन उत्सर्जन रोकने के लिए कम उपाय किए गए तो 31 सेंटीग्रेट और उससे ज्यादा की हीट वेव का असर कहीं ज्यादा बढ़ सकता है।

जलवायु परिवर्तन सिर्फ एक कोरी कल्पना भर नहीं है, लेकिन इसे रोका जा सकता है।
अगर कार्बन उत्सर्जन पर रोक लगाने के लिए उपाय नहीं किए गए तो नुकसानदेह स्थितियां सामने आ सकती हैं।
या तो हम कार्बन उत्सर्जन को कम करने का फैसला करें अन्यथा हमें दुनिया के सबसे ज्यादा आबादी वाले क्षेत्र में बेहद खतरनाक स्थितियों का सामना करना होगा।
(बीबीसी मेंं छपे लेख पर आधारित)

समावेशी विकास (Inclusive Development)

समावेशी विकास (Inclusive Development) समग्रता के साथ विकास की बहुआयामी अवधारणा (multidimensional concept) है। समावेशी विकास का आशय समाज के सभी वर्गों तक संसाधन एवं सुविधाओं की पहुंच से है। "सबका साथ, सबका विकास" का नारा समावेशी विकास के ही एक पहलू को परिलक्षित करता है। इसमें बुनियादी सुविधाओं में सुधार के साथ शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के बेहतर अवसरों की उपलब्धता परिलक्षित होती है। इसके साथ गरीबी को कम किया जाना इसका एक प्रमुख आयाम है।

सतत विकास (Sustainable Development)

सतत विकास (Sustainable Development) की अवधारणा का प्रारंभ वर्ष 1962 में वैज्ञानिक रचेल कार्सन की पुस्तक "साइलेंट स्प्रिंग" तथा वर्ष 1986 में जीव विज्ञानी पॉल इरलिच की पुस्तक "द पापुलेशन बम" से हुआ। लेकिन इस शब्द का वास्तविक रूप से विकास वर्ष 1987 में "ब्रुटलैंड आयोग" की रिपोर्ट "हमारा साझा भविष्य" (Our Common Future) के प्रकाशन के साथ हुआ। "सतत विकास" संसाधनों के उपयोग का एक आदर्श मॉडल है जो यह बताता है कि आर्थिक विकास के साथ -साथ पर्यावरण को भी सुरक्षित रखना है। इसका उद्देश्य है - वर्तमान और भविष्य की पीढ़ियों के लिए प्राकृतिक संसाधनों को सुरक्षित रखते हुए उसका इस प्रकार प्रयोग किया जाए कि प्राकृतिक संसाधनों का क्षरण न्यूनतम हो।

अतः सतत विकास प्रकृतिक उपयोग के संदर्भ में अंतर - पीढ़ीगत संवेदनशीलता की घटना है।

Tuesday, 1 August 2017

"आंकड़े 21 वीं सदी में ऊर्जा सदृश्य हैं।" चर्चा करें। “Data are fuel of the 21st century.” Discuss. (200 Words) UPSC Mains Answer Writing. GS Paper - 3. सामान्य अध्ययन प्रश्न पत्र - 3

http://www.livemint.com/Opinion/gm1MNTytiT3zRqxt1dXbhK/Why-India-needs-to-be-a-data-democracy.html

"प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना" के गुण दोषों का समालोचनात्मक मूल्यांकन करें। Critically evaluate merits and demerits of the Pradhan Mantri Fasal Bima Yojana (PMFBY). (200 Words) UPSC Mains Answer Writing. GS Paper - 3. सामान्य अध्ययन प्रश्न पत्र - 3

http://indianexpress.com/article/india/crop-insurance-a-flagship-scheme-that-may-flatter-to-deceive-4768640/

"लैंगिक समानता को बढ़ावा देने के अलावा संभावित कार्यबलों में से आधे हिस्से के सशक्तिकरण से महत्वपूर्ण आर्थिक लाभ होंगे।" इस कथन के संबंध में कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी को बढ़ावा देने की आवश्यकता तथा उसके लिए आवश्यक उपायों का समालोचनात्मक मूल्यांकन करें। “Empowering half of the potential workforce has significant economic benefits beyond promoting gender equality.” Discuss how this potential can be realised. (200 Words)UPSC Mains Answer Writing. GS Paper - 1. सामान्य अध्ययन प्रश्न पत्र - 1

http://www.livemint.com/Opinion/aLxuGwlhf0P4jL6LT2XGyO/Gender-as-the-new-driver-of-growth.html

18 सितम्बर 2019 करेंट अफेयर्स - एक पंक्ति का ज्ञान One Liner Current Affairs

दिन विशेष विश्व बांस दिवस -  18 सितंबर रक्षा 16 सितंबर 2019 को Su-30 MKI द्वारा हवा से हवा में मार सकने वाले इस प्रक्षेपास्त्र का सफल परी...