Thursday, 12 April 2018

बदलती वैश्विक व्यवस्था और नया शीत युद्ध

पिछले कुछ महीनों के दौरान वैश्विक व्यवस्था में तेजी से बदलाव दिखा है। 2014 में क्रीमिया पर रूस के कब्जे के बाद पश्चिम ने उस पर प्रतिबंध लादने शुरू कर दिए थे। ट्रंप ने अपने चुनाव अभियान के दौरान कई मौकों पर जब यह कहा कि वह पुतिन के साथ अच्छे दोस्त की तरह पेश आएंगे, तब उम्मीद थी कि चीजें बदलेंगी। अब जबकि अमेरिकी चुनाव में रूसी दखल की पुष्टि हो चुकी है, वह उस देश पर प्रतिबंध के ऊपर प्रतिबंध लाद रहे हैं। ताजा घटनाक्रम में इस सूची में रूस के अनेक कुलीनों को भी शामिल किया गया है।


ब्रिटेन में सर्गेई स्क्रीपल एवं उनकी बेटी यूलिया पर रासायनिक हमले के बाद ज्यादातर पश्चिमी देशों ने रूसी राजनयिकों को देश छोड़ने का आदेश दिया। ब्रिटेन ने जहां 23 रूसी राजनयिकों का निष्कासन किया, वहीं अमेरिका ने 60 को निकाला। अमेरिका ने रूस को सिएटल दूतावास को भी बंद करने का आदेश दिया। इसमें 14 अन्य देश भी शामिल हो गए। रूस ने हर देश के खिलाफ इसी तरह की प्रतिक्रिया व्यक्त की, जिसमें सेंट पीटर्सबर्ग में अमेरिकी दूतावास बंद करने का आदेश भी है। इसने शीत युद्ध के बाद अमेरिका व उसके सहयोगी तथा रूस के बीच रिश्तों को निचले धरातल पर पहुंचा दिया। इसे अब नया शीत युद्ध कहा जा रहा है।


ट्रंप अपने चुनावी वायदों को पूरा करना चाहते हैं और चीन के खिलाफ अमेरिकी व्यापार असंतुलन को कम करना चाहते हैं, इसलिए उन्होंने कई चीनी उत्पादों पर शुल्क लगा दिया है। पहले दौर में अमेरिका ने 50 अरब अमेरिकी डॉलर का शुल्क लगाया था। चीन ने भी वैसी ही प्रतिक्रिया जताई और अमेरिकी फल तथा सूअर के मांस पर उतनी ही राशि का शुल्क थोप दिया। इसके जवाब में अमेरिका ने चीनी आयात पर 100 अरब डॉलर का अतिरिक्त शुल्क थोप दिया। अगर चीन भी इसका जवाब देगा, तो दोनों देशों के बीच व्यापारिक संबंध खराब होंगे। अमेरिका पहले ही दक्षिण चीन सागर में चीनी दावों को चुनौती दे रहा है। इस तरह पहले से ही एक-दूसरे के खिलाफ सैन्य शत्रुता रखने के अलावा चीन और अमेरिका व्यापार युद्ध की ओर बढ़ रहे हैं।


अमेरिकी रक्षा विभाग पेंटागन ने इस साल के शुरू में अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति में कहा था, कि जब आतंकवाद के खिलाफ युद्ध धीरे-धीरे खत्म हो रहा है, रूस और चीन की धमकियां बढ़ रही हैं। ईरान, सीरिया, तुर्की और चीन के साथ रूस की बढ़ती निकटता ने यूरोप और यूरेशिया में अमेरिकी वर्चस्व को चुनौती दी है। सीरिया में विरोधी पक्षों के प्रति रूस के समर्थन से अमेरिका के साथ उसका टकराव बढ़ गया है। ईरान और तुर्की के साथ उसने यह सुनिश्चित किया कि अमेरिका सीरिया में सत्ता परिवर्तन को लागू नहीं कर पाएगा। अमेरिका अब सीरिया से हाथ खींचना चाहता है, क्योंकि उसे वहां अपना भविष्य नहीं दिख रहा। रूस ने क्रीमिया में पीछे हटने से इन्कार कर दिया है, जो पश्चिम के लिए चुनौती है।


चीन ने बढ़ती आर्थिक ताकत के जरिये अमेरिकी वर्चस्व को चुनौती दी है। इसने अमेरिका को चीन और रूस को अपना विरोधी मानने के लिए विवश किया है। अमेरिका की ताजा कार्रवाई ने रूस और चीन को पहले से कहीं ज्यादा करीब ला दिया है। इससे नया शीत युद्ध शुरू हो गया है, जिसके एक ओर अमेरिका है, तो दूसरी ओर रूस और चीन हैं। हाल ही में अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा पर मॉस्को में हुए शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के सम्मेलन में चीन के नए रक्षा मंत्री ने कहा कि चीन अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अंतरराष्ट्रीय समस्याओं के प्रति रूस के साथ अपनी साझा चिंता और साझा स्थिति जाहिर करने के लिए तैयार है। यह बयान बताता है कि पश्चिमी देशों की कार्रवाई ने दो शक्तिशाली राष्ट्रों को एक-दूसरे के करीब ला दिया है, जो कभी एक-दूसरे पर संदेह करते थे।


इस समय धरती पर दो सर्वाधिक शक्तिशाली नेता हैं-पुतिन और शी जिनपिंग, दोनों की अपने राष्ट्रों पर गहरी पकड़ है और उन्हें चुनौती देने वाला कोई नहीं है। दोनों सैन्य दृष्टि से ताकतवर राष्ट्र हैं। पश्चिम को चुनौती देने के लिए उनके हाथ मिलाने से वैश्विक संतुलन बदल सकता है। इस दलदल में भारत और पाकिस्तान फंसे हैं। पाकिस्तान तो पहले से ही चीन की कठपुतली है, जो हर चीज के लिए चीन पर निर्भर है, खासकर तब, जब अमेरिका उसे अपमानित करता है और आरोप लगाता है। ऐसे में स्वभाविक है कि वह ऐसे किसी गठबंधन में घुसने की कोशिश करेगा, जो अमेरिका को चुनौती देगा, ताकि अमेरिकी कार्रवाई से वह अपनी सुरक्षा सुनिश्चित कर सके।


पाकिस्तान और अमेरिका के बीच बढ़ती दूरी से रूस वाकिफ है और तालिबान पर पाकिस्तान के प्रभाव के कारण उसने तालिबान के साथ भी रिश्ता बढ़ाया है। दोनों देशों ने संयुक्त सैन्य अभ्यास किया और कूटनीतिक संबंधों को आगे बढ़ाया है। भारत के आग्रह के खिलाफ जाकर रूस ने पाकिस्तान को कुछ एमआई-35 हेलिकॉप्टर भी बेचे। भारत अमेरिका से करीबी बढ़ा रहा है, हालांकि इसने रूस के साथ राजनयिक संबंध और हथियारों की खरीद जारी रखी है। पर स्पष्ट रूप से रूस भारत से दूर जा रहा है और चीन व पाकिस्तान से करीबी बढ़ा रहा है। हालांकि भारत ने स्क्रीपल हमले के मामले पर संयुक्त राष्ट्र में मतदान में हिस्सा नहीं लिया, पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। भारत के विरोधी चीन और पाकिस्तान रूस के करीबी सहयोगी हैं।


इस तरह उभरता हुआ रूस-चीन-पाकिस्तान का अक्ष न केवल अमेरिका और पश्चिमी देशों को प्रभावित करेगा, बल्कि भारत पर भी असर डालेगा, क्योंकि इससे भारत का राजनयिक समर्थन आधार घट जाएगा। यह तिकड़ी भविष्य में वैश्विक मुद्दों को भी प्रभावित करेगी, जिसमें पश्चिम एशिया, उत्तर कोरिया और अफगानिस्तान में चल रहे संकट का समाधान शामिल है। इस तिकड़ी से अमेरिका को सैन्य, कूटनीतिक और आर्थिक चुनौती मिलेगी। भारत रूस से किसी भी समर्थन की उम्मीद नहीं कर सकता है। भारत को दीर्घकाल के लिए अपनी राजनयिक रणनीति पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है।


(सौजन्य – अमर उजाला)


रिजर्व बैंक की सक्रियता

नि:संदेह भारत का बैंकिंग सेक्टर इन दिनों सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है। पहले तो वित्तीय धांधलियों से सार्वजनिक बैंकों का लगातार बढ़ता एनपीए बड़ी चिंता का विषय रहा है। उसके बाद हीरा व्यापारी नीरव मोदी द्वारा किया बैंकिंग क्षेत्र का बड़ा घोटाला सामने आया। फिलहाल यह हितों के टकराव के मामले में आईसीआईसीआई बैंक की सीईओ चंदा कोचर के पति दीपक कोचर और वीडियोकॉन समूह के प्रमोटर वेणुगोपाल घूत के कारण सुर्खियों में है। ऐसे में नियामक संस्था कोई जोखिम नहीं उठाना चाहती। नि:संदेह निजी बैंकों के जटिल आंतरिक मामले और उनके बोर्डों के विशेषाधिकार भी आरबीआई की जांच के दायरे में आते हैं। लेकिन आरबीआई ने स्पष्ट रूप से एक्सिस बैंक बोर्ड के उस फैसले के प्रति असहमति जताई है, जिसमें सीईओ शिखा शर्मा के कार्यकाल को चौथी बार बढ़ाया गया था। ऐसे अहम मामले में नियामक संस्था का हस्तक्षेप अपेक्षित है। आरबीआई ने अपने अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत एक्सिस बैंक के बोर्ड से अपने निर्णय पर पुनर्विचार करने को कहा है। आरबीआई के मुताबिक सीईओ का कार्यकाल लगातार बढ़ाते जाना बैंक के अंशधारकों के हितों के अनुकूल नहीं है।

ऐसे मामलों में सतर्कता बरतने के गहरे निहितार्थ हैं। नि:संदेह शिखा शर्मा ने अपने एक दशक के कार्यकाल में बैंक के कारोबार को  आक्रामक तरीके से रिटेल और संरचनात्मक ऋणों के क्षेत्र में बढ़ाया। यद्यपि नोटबंदी के दौरान उनके कार्यकाल में कई विवाद भी सामने आये। वहीं उनके कार्यकाल में बैंक के एनपीए में अप्रत्याशित उछाल आया। हाल ही में आरबीआई ने बैंक के बेड लोन के बाबत कार्रवाई की थी। ये अलाभकारी ऋण वर्ष 2015-16 में बैंक के अनुमान के मुकाबले 156 फीसदी अधिक थे। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि अनुत्पादक ऋण बैंकिंग व्यवस्था के लिये खतरा बने हुए हैं। ऐसे में आश्चर्य की बात है कि बैंक बोर्ड ने अनुत्पादक ऋणों को बढ़ावा देने के लिये सीईओ को दंडित करने के बजाय उसे चौथे कार्यकाल का तोहफा दिया, जिसमें कार्यकाल वर्ष 2021 में खत्म होना था। अब भारतीय रिजर्व बैंक के हस्तक्षेप के बाद शिखा शर्मा ने निर्णय लिया है कि वह इस साल दिसंबर तक अपना पद छोड़ देंगी। इस घटनाक्रम के बाद निजी बैंकों को संरक्षण हेतु निजी बैंकों के एकीकरण की दिशा में प्रयास जरूरी हैं।


(सौजन्य – दैनिक ट्रिब्यून)


उलझा किसान और न्यूनतम समर्थन मूल्य

सरकार वह महत्वाकांक्षी योजना लाने जा रही है, जिसमें किसानों को फसल का यथेष्ठ मूल्य देने का वायदा है। यह कवायद वित्तमंत्री के बजटीय भाषण और प्रधानमंत्री द्वारा संसद में भारतीय किसानों को ऐतिहासिक भेंट के दावा करने के दो महीने निकल जाने के बाद होने को है। इस काम में लगाए गए अफसर कहीं ज्यादा ईमानदार हैं जब वे कबूल करते हैं कि सरकार द्वारा भरोसा दिए जाने के बावजूद किसानों को बनता न्यूनतम समर्थन मूल्य अभी तक सही रूप में नहीं मिल पाया है।
पिछले एक माह में कई मंडियों का दौरा किया, वह भी ज्यादातर एपीएमसी (कृषि उत्पाद विपणन सहकारी मंडी) का। सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य न देकर उन्हें छलने में जिन पैंतरों का सहारा लिया जाता है, उनमें दस बड़े तरीके सिलसिलेवार दे रहा हूं।
छल का सबसे पहला और प्रमुख पैंतरा है ‘आधिकारिक भुल्लकड़पन’ जिसे हम ‘घोषणा करो-भूल जाओ’ भी कह सकते हैं। सरकार ने 23 फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रचारित किए थे और गेहूं और चावल के अलावा बाकियों में वह इनको लागू करना ही भूल गई। बात अगर जौ का उदाहरण लेकर करें तो सरकार ने इसका न्यूनतम समर्थन मूल्य 1410 रुपये प्रति क्विंटल रखा था। फसल मंडियों में आन पहुंची लेकिन कीमत 1,000-1200 रुपए के बीच ज्यादातर रही। जौ उत्पादन में प्रमुख राज्यों राजस्थान, मध्य प्रदेश, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में किसी एक ने भी ऐसी कोई योजना घोषित नहीं की, जिसमें सरकारी मूल्य का अक्षरशः पालन करवाने या भावांतर में हानि की भरपाई हो सके।


किसानों को न्यूनतम मूल्य से महरूम रखने के लिए नई तरकीबें निकाल ली जाती हैं और इसे ‘टाइमिंग ट्रिक’ का नाम दिया जा सकता है। जब तक राज्य एजेंसियों द्वारा फसल की खरीद शुरू की जाती है तब तक जरूरतमंद और गर्ज से त्रस्त किसान निजी व्यापारियों के पास औने-पौने में बेच चुका होता है। तिस पर सरकारी खरीद की अवधि एकदम कम समय के लिए होती है और अक्सर बिना पूर्व सूचना के कभी भी शुरू और बंद हो जाया करती है। हरियाणा में सरसों की सरकारी खरीद का समय तब और भी कम रह गया जब गांवों के समूहों के हिसाब से दिन बांटकर उन चिन्हित दिवसों पर ही किसानों से फसल उठाने की प्रणाली बिठा दी गई। नतीजा यह कि मजबूर हुए किसानों को निजी व्यापारियों को अपनी फसल बेचनी पड़ती है जो आगे इसी फसल को उसी किसान के नाम से सरकारी खरीद केंद्र पर मुनाफे में बेच देते हैं!
तीसरी तरकीब है ‘लोकेशन ट्रिक’- इसमें सरकार जानबूझकर ऐसी जगह खरीद केंद्र खोलती है ताकि वहां पहुंचकर फसल बेचना किसान के लिए बहुत दुश्वार बन जाए। हरियाणा के रेवाड़ी में सरकारी खरीद मुख्य अनाज मंडी के बजाय सरसों के लिए वहां से 4 कि.मी. दूर अलग जगह निर्धारित कर दी गई। खरीद केंद्रों के बारे में कोई स्थाई नियमावली नहीं बनाई गयी। हरियाणा सरकार ने सरसों के लिए 29 खरीद केंद्र बनाए लेकिन इसके उत्पादन में प्रमुख मेवात जिले में तब तक नहीं बनाया जब तक कि किसान धरने पर नहीं बैठ गए। तेलंगाना में तो सरकारी कपास खरीद केंद्र निजी कताई मिलों के अंदर बनाए गए!


चौथी चाल है ‘मात्रा-निर्धारण’ यानी फसल की कितनी मात्रा एक किसान सरकारी एजेंसी को बेच सकता है। जहां एक ओर सरकार कृषकों को ज्यादा से ज्यादा उत्पादन करने को प्रेरित करती नहीं अघाती ताकि बंपर फसल के लिए खुद को श्रेय दे सके वहीं दूसरी ओर यही सरकार किसान को तयशुदा मात्रा से ज्यादा उत्पादन करने पर ‘दंड’ देती है। सरकारी एजेंसी द्वारा प्रति एकड़ उत्पादन-खरीद-मात्रा तय करने के अलावा किसी एक किसान से कितना उत्पाद लेना है और यहां तक कि राज्य के कुल कोटे का निर्धारण तक तय किया जाता है। जो कुल राष्ट्रीय उत्पादन के पैमाने पर निर्धारित करने के बाद स्थानीय स्तर के उत्पादन के लिए अंशमात्र बनकर रह जाता है। इस फार्मूले से मध्य प्रदेश का नरसिंहपुर और होशंगाबाद जिला सबसे ज्यादा घाटे में रहता है, जिनकी प्रति एकड़ उत्पादकता स्वयं उस राज्य और देशभर में सबसे अधिक है।


पांचवीं चाल है ‘एफएएक्यू’ यानी उचित और औसत गुणवत्ता का पैमाना। व्यावहारिकता में जिंस में नमी की मात्रा, छंटाई में निकलने वाले दानों की संभावना या उनकी गुणवत्ता इत्यादि तय करने का काम मौके के हिसाब से होता है लेकिन निर्धारण का कोई ठोस तरीका नहीं है। जब कभी वाकई जायज कारण होते हैं तब भी इन पैमानों में जरा भी छूट नहीं दी जाती।


ठगी का छठा तरीका है ‘कागजी मायाजाल’, इसमें उन्हें सरकारी खरीद का पात्र बनने हेतु इतने कागजी सबूत देने को कहा जाता है जो एक आम किसान के लिए लगभग असंभव होता है। मध्य प्रदेश में किसानों को पहले ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन करने की बाध्यता है जो भले ही मुफ्त है लेकिन इसके लिए निर्धारित किए दिनों की संख्या बहुत कम है और तयशुदा समय में यह करना तब और एक टेढ़ी खीर है जब मंडी का सर्वर भारी ट्रैफिक की वजह से अक्सर डाउन हो। तिस पर किसान को आधार कार्ड, बैंक अकाउंट नंबर, पासबुक, जमीन का रिकॉर्ड और गिरदावरी की रिपोर्ट दिखानी पड़ती है अलग से, और वह भी बाकायदा प्रमाणित की हुई। ऊपर से किराए की जमीन पर खेती करने वालों के लिए तो लगभग असंभव है।
वहीं बोली में अपने बंदों की मार्फत जानबूझकर तोड़ी गई कीमतें और मांग में कृत्रिम कमी दिखा देना उन्हें लूटने का सातवां तरीका है। एक बार मंडी में घुस जाने पर किसान आढ़तियों के रहमो-करम पर होता है जो उनके लिए सालभर अक्सर साहूकार के दोहरे रूप में भी होते हैं। अतएव फसल खरीदने का पहला अधिकार उनके पास सुरक्षित रहता है। बहुत-सी छोटी मंडियों में नीलामी आज भी गुप्त संकेतों वाली प्रणाली से लगाई जाती है जो किसान की समझ से परे है।


इसके अलावा हर मंडी में ‘लघु अप्रत्यक्ष हेराफेरी विभाग’ होता है जो किसानों को अदृश्य रूप से अनेकानेक चालों की मार्फत ठगता है। मसलन मंडियों द्वारा बनाए गए स्वयंभू कर हैं जो तयशुदा जीएसटी दरों का सरासर उल्लंघन है। हर मंडी ने अपना ही टैक्स थोप रखा है, जिससे किसान बच नहीं सकता। बहुत-सी छोटी मंडियों में बाबा आदम के वक्त की तोल मशीनें लगी हैं, जिनका परिमाण सटीक नहीं होता।


किसान-लूटो-अभियान की नौवीं चाल है ‘विलंबित भुगतान’, जिससे हतोत्साहित हुआ किसान सरकारी एजेंसियों की बजाय निजी व्यापारियों की तरफ जाता है। चूंकि आजकल ज्यादातर भुगतान एनईएफटी द्वारा किए जाते हैं। व्यावहारिकता में पैसे आने की अवधि महीनों में भले ही न होकर हफ्तों तक तो खिंच जाती है। मध्य प्रदेश में पिछले छह महीनों में हुई उड़द दाल के किसान आज तक भावांतर भुगतान का इंतजार कर रहे हैं।


अंत में आती है ‘बैंक ट्रिक’-जब भी, जितनी भी रकम किसान के खाते में आती है तो बैंक इसका बड़ा हिस्सा उसके द्वारा पहले से लिए गए कर्ज की एवज में रख लेते हैं। इसलिए नई घोषित होने वाली योजना को उपरोक्त दस तरीकों में प्रत्येक के आलोक में परखना होगा कि क्या यह उनको निरस्त कर पाएगी। अगला यक्ष प्रश्न स्वाभाविक होगा : अपेक्षित योजना को घोषित करने में मौजूदा सरकार ने चार सालों के अलावा पिछला बजट पेश करने के बाद और दो महीनों का समय क्यों लिया, क्योंकि जब तक इसे अमलीजामा पहनाया जाएगा तब तक तो रबी फसल की खरीद काफी निकल चुकी होगी। तो क्या हम इसे ग्यारहवीं चाल समझें ?

(सौजन्य – दैनिक ट्रिब्यून)


Wednesday, 11 April 2018

संसदीय व्यवधान के खलनायक


प्रकृति नियम बंधन में है। ऋग्वेद में प्रकृति के संविधान को ‘ऋत’ कहा गया है। वैदिक समाज में मान्य इंद्र, वरुण, अग्नि, जल और सूर्य आदि देवता परम शक्तिशाली हैं, लेकिन वे भी ऋत विधान का अनुशासन मानते हैं। दर्शनशास्त्री डॉ. राधाकृष्णन की टिप्पणी है कि ईश्वर भी इन नियमों में हस्तक्षेप नहीं करता। भारत की प्रज्ञा ने देवताओं को भी विधान से नीचे रखा है, लेकिन इसी भारत में विधि बनाने वाली पवित्र संसद में घोर नियमविहीनता देखी जा रही है।


संसदीय व्यवस्था प्रश्नवाचक हो चुकी है:


विधि निर्माता स्वयं अपनी बनाई विधि और सदनों की कार्य संचालन नियमावली तोड़ रहे हैं। संसदीय व्यवस्था प्रश्नवाचक हो चुकी है। जनगणमन निराश है। दलतंत्र में कोई पश्चाताप या आत्मग्लानि नहीं है। गतिरोध के कारण लोकसभा में 127 घंटे व राज्यसभा में 120 घंटे काम नहीं हुआ। विनियोग विधेयक भी बिना चर्चा पारित हुआ है। संसदीय व्यवधान के नायकप्रसन्न हैं, लेकिन राष्ट्र सन्न है। दुनिया के सबसे बड़े जनतंत्र की विफलता आश्चर्यजनक है। भारत का लोकजीवन प्राचीनकाल से ही लोकतंत्री था।
लोकसभा के पूर्व महासचिव सुभाष कश्यप ने लिखा है, ‘यहां वैदिक युग से ही गणतांत्रिक स्वरूप, प्रतिनिधिक विमर्श और स्थानीय स्वशासन की संस्थाएं थीं। ऋग्वेद, अथर्ववेद में सभा समिति के उल्लेख हैं। ऐतरेय ब्राह्मण, पाणिनी की अष्टाध्यायी, कौटिल्य के अर्थशास्त्र व महाभारत में उत्तर वैदिक काल के गणतंत्रों का उल्लेख है।’ डॉ.आंबेडकर ने भी संविधान सभा के अंतिम भाषण (25.11.1949) में ऐसा ही उल्लेख किया और कहा कि ‘भारत से यह लोकतांत्रिकव्यवस्था मिट गई। लोकतंत्र को बनाए रखने के लिए हम सामाजिक और आर्थिक लक्ष्यों की पूर्ति के लिए संवैधानिक रीतियों को दृढ़तापूर्वक अपनाएं, सविनय आंदोलन की रीति त्यागें। ये रीतियां अराजकता के अलावा और कुछ नहीं।’


ब्रिटिश संसदीय परंपरा में व्यवधान और हुल्लड़ नहीं होते
भारत के संविधान निर्माताओं ने ब्रिटिश संसदीय प्रणाली अपनाई। यही उचित भी था। ब्रिटिश संसदीय परंपरा में व्यवधान और हुल्लड़ नहीं होते। बीबीसी के अनुसार ‘बीते सैकड़ों वर्ष से ब्रिटिश हाउस ऑफ कॉमंस को एक मिनट के लिए भी स्थगित नहीं किया गया है।’ वहां ओहओह या शेम शेम कहना भी अभद्र माना जाता है। कनाडा, ऑस्ट्रेलिया आदि की सभाओं में भी भारत जैसे अभद्र दृश्य नहीं होते। मूलभूत प्रश्न है कि ब्रिटिश संसद जैसी परंपरा अपनाकर भी हम भारत के लोग अपनी विधायी संस्थाओं को वैसा ही सुंदर स्वरूप क्यों नहीं दे पाते?


स्वयं अपने द्वारा बनाई गई नियमावली का पालन क्यों नहीं:


संविधान में संसद के प्रत्येक सदन को अपने कार्यसंचालन के लिए नियम बनाने की शक्ति है। यही शक्ति विधानमंडलों को भी मिली है। प्रत्येक सदन ने अपनी कार्य संचालन नियमावली बनाई है, लेकिन आश्चर्य है कि स्वयं अपने द्वारा बनाई गई नियमावली भी यहां पालनीय क्यों नहीं है? मूलभूत प्रश्न है कि शोर और बाधा डालकर हम कार्यपालिका को ज्यादा जवाबदेह बनाते हैं? या तथ्य और तर्क देकर बहस के माध्यम से हम प्रभावी भूमिका का निर्वहन करते हैं? स्वाभाविक ही सभाभवन में बहस और विमर्श का कोई विकल्प नहीं होता। व्यवधान का तो कतई कोई उपयोग नहीं, लेकिन विपक्ष को बहस प्रेय नहीं लगती। व्यवधान ही श्रेय लगते हैं।


विपक्षी माननीय ध्यान दें:

व्यवधान से हमेशा सत्तापक्ष को व्यावहारिक लाभ मिलता है। मंत्रीगण प्रश्नोत्तरों से बचते हैं। वे स्पष्टीकरण की जिम्मेदारी से बच जाते हैं। विपक्ष वैकल्पिक विचार नहीं रख पाता। इससे विपक्ष के साथ देश का भी नुकसान होता है। संसद व विधानमंडल सर्वोच्च जनप्रतिनिधि निकाय हैं। सभी सदस्यों के अपने विचार होते हैं और सबकी अपनी प्राथमिकताएं। यहां सब बोलने ही आते हैं श्रोता कोई नहीं होता। श्रोता भी बात काटने के लिए ही सुनता है। इसलिए बहस में उमस और गर्मी स्वाभाविक है, लेकिन बहस उमस के बाद आने वाली आंधी में संविधान तार- तार हो जाता है। 1968 तक संसद में होने वाले व्यवधान प्राय: नगण्य थे। इसके पहले संभवत: पहली दफा 1952 में प्रिवेंटिव डिटेंशन एमेंडमेंट विधेयक पर घोर व्यवधान हुआ था।


सदनों की कार्यवाही पर करोड़ों का लोकधन खर्च होता है:


1963 में आधिकारिक भाषा विधेयक पर भी भारी व्यवधान हुआ, पर वे अपवाद थे, लेकिन अब व्यवधान संसदीय कार्यवाही का मुख्य हिस्सा हैं। प्रत्येक सत्र के बाद व्यवधान कर्मी सदस्यों की सूची प्रकाशित हो। जनता अपने प्रतिनिधियों का काम जांचे। सदनों की कार्यवाही पर करोड़ों का लोकधन खर्च होता है। जनहित पर बात नहीं होती, दलहित सर्वोपरिता है। संसद का गौरवशाली इतिहास है। इसके पहले संविधान सभा की कार्यवाही 165 दिन चली थी। 17 सत्र हुए थे। लंबी तीखी बहसों के बावजूद व्यवधान नहीं हुए। पहली लोकसभा में पं. नेहरू थे तो डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी थे। पुरुषोत्तम दास टंडन, सेठ गोविंदास जैसे धीर पुरुष थे तो हरि विष्णु कामथ जैसे आलोचक भी थे। 1968 तक सदस्य धैर्य से सुनते थे। अध्यक्ष की अनुमति से बोलते थे।


संसदीय व्यवस्था को अग्नि स्नान की जरूरत:


दुनिया की सभी विधायी संस्थाओं की गुणवत्ता बढ़ी है, लेकिन भारतीय संसद ने निराश किया है। यहां का शून्यकाल हंगामा है। पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव ब्रिटिश हाउस ऑफ कॉमंस के दौरे पर थे। उनसे पूछा गया कि आपके देश में यह शून्य काल क्या है? राव ने कहा कि यह वैश्विक संसदीय व्यवस्था में भारत का योगदान है। ब्रिटिश संसदीय प्रणाली में कदाचरण के आधार पर सदस्यों की बर्खास्तगी की भी प्रथा है। संसदविज्ञ अर्सकिन ने ‘पार्लियामेंट्री प्रोसीजर एंड प्रैक्टिस’ में ‘भ्रष्टाचार के साथ ही अशोभनीय व्यवहार के कारण भी सदस्यों की बर्खास्तगी की प्रथा बताई है।’ हम भी उसे क्यों नहीं अपना सकते? संसदीय व्यवस्था का कोई विकल्प नहीं। संसद अपनी प्रक्रिया की स्वामी है। संसदीय व्यवस्था को अग्नि स्नान की जरूरत है। संसद और विधानमंडलों के सत्र और सत्रों की अवधि बढ़ाई जानी चाहिए।


संविधान सभा में प्रो. केटी शाह ने ‘संसद को कम से कम छह माह चलाने का प्रस्ताव किया था। उन्होंने अध्यक्ष मावलंकर का विचार भी दिया था कि ‘देश के प्रति न्याय के लिए जरूरी है कि सदन वर्ष में 7-8 माह से कम न बैठे।’ संसदीय समितियों में शालीनता के साथ ढेर सारा काम होता है। उनकी कार्यवाही गुप्त रखने के बजाय सर्वाजनिक करना प्रेरक होगा। कार्यस्थगन को अपवाद बनाया जा सकता है। प्रतिवर्ष दो या तीन विशेष सत्र बुलाए जा सकते हैं। इनमें विधि निर्माण और राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय मुद्दों को ही प्रमुखता दी जा सकती है।


बाधा डालने के कृत्य संसदीय विशेषाधिकार का हनन:


विधि निर्माण के लिए अतिरिक्त समय आवंटन जरूरी है। दंड अंतिम विकल्प है। बाधा डालने के कृत्य संसदीय विशेषाधिकार का हनन हैं। संविधान के अनुच्छेद 102 में संसद व अनुच्छेद 191 में विधानमंडल के सदस्यों को सदन के अयोग्य घोषित करने के प्रावधान हैं। इनमें संसद द्वारा निर्मित विधि द्वारा अयोग्य घोषित सदस्य को अयोग्य माना गया है। लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 में संशोधन करके बार-बार बाधा डालने वाले आचरणकर्ता को सूचीबद्ध किया जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय ने संसदीय व्यवस्था को संविधान का मूल ढांचा कहा है। इसी ‘मूल’ पर प्रहार करने वाले सदस्य सदन के अयोग्य क्यों नहीं हो सकते? राष्ट्र अपने प्रतिनिधियों को काम करते ही देखना चाहता है।


(हृदयनारायण दीक्षित, उत्तर प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष)


सौजन्य – दैनिक जागरण।


संसदीय लोकतंत्र में संसद न चलने से होने वाले नुकसान

संसद लोकतंत्र की सर्वोच्च पंचायत है। वहां देशहित से जुड़े सभी अहम मुद्दों पर चर्चा की जाती है, कानून बनाए जाते हैं, जनता की समस्याओं पर बात होती है और उनका समाधान खोजा जाता है, लेकिन सत्ता पक्ष और विपक्ष के राजनीतिक द्वेष के चलते बजट सत्र के दूसरे चरण में संसद की कार्यवाही का हंगामे की भेंट चढ़ना बेहद शर्मनाक और चिंताजनक है। इससे न केवल देश के करोड़ों रुपयों की बर्बादी हुई है, बल्कि कई अहम विधेयक भी अधर में लटक गए हैं। हालांकि बजट सत्र होने के कारण यह सत्र मुख्य रूप से वित्तीय कामकाज को समर्पित था। इसका पहला चरण 29 जनवरी से 9 फरवरी तक रहा था। उस दौरान एक फरवरी को वित्त वर्ष 2018-19 का केंद्रीय बजट पेश किया गया। लोकसभा में 12 घंटे 13 मिनट और राज्यसभा में नौ घंटे 35 मिनट केंद्रीय बजट पर चर्चा हुई।


पहले चरण में लोकसभा में करीब 134 प्रतिशत और राज्यसभा में करीब 96 प्रतिशत कामकाज हुआ था। यानी उत्पादकता की दृष्टि से बजट सत्र के पहले चरण को ठीक माना जा सकता है, लेकिन सत्र का दूसरा चरण, जो 5 मार्च से 6 अप्रैल तक रहा, वह भारत के संसदीय लोकतंत्र के इतिहास में कामकाज के ठप होने का रिकॉर्ड बनाकर खत्म हुआ। इस चरण के दौरान लोकसभा में केवल और केवल 4 प्रतिशत, जबकि राज्यसभा में मात्र 8 प्रतिशत कामकाज हुआ।


2000 के बाद सबसे खराब रहा 2018 का सत्र:


बजट सत्र के दोनों चरणों के आंकड़ों को देखें तो इस दौरान लोकसभा में महज 23 प्रतिशत और राज्यसभा में 28 प्रतिशत कामकाज हुआ। लोकसभा की 29 और राज्यसभा की 30 बैठकें हुईं। लोकसभा की कार्यवाही केवल 34 घंटे 05 मिनट ही चल सकी, जबकि 127 घंटे 45 मिनट कार्य बाधित रहा। राज्यसभा में भी कुछ ऐसा ही नजारा देखने को मिला। उच्च सदन में 44 घंटे ही कामकाज चल पाया, वहीं 121 घंटे बर्बाद हो गए और 27 दिन तक सदन में प्रश्नकाल नहीं हो सका। कारण यही है कि इस बार 18 वर्ष पहले वर्ष 2000 में हुए सबसे कम संसदीय कामकाज का रिकॉर्ड भी टूट गया है। पहले वर्ष 2000 को संसद के कम कामकाज के लिए याद किया जाता था, अब इसके लिए 2018 को याद किया जाएगा।


अविश्वास प्रस्ताव पर भी चर्चा न हो सकी:

कुल मिलाकर बजट सत्र में संसद के करीब 250 घंटे और देश के करीब 190 करोड़ रुपये बर्बाद हुए। इस दौरान संसद के दोनों सदनों में कांग्रेस और विपक्षी दलों ने पीएनबी घोटाला, आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा, कावेरी नदी जल विवाद, एससी-एसटी एक्ट, यूपी के कैराना जैसे मामलों पर हंगामा किया। दूसरे चरण में तो आलम यह रहा कि न तो प्रश्नकाल चल पाया और न ही शून्यकाल। और तो और संसद में जारी गतिरोध के बीच तेलुगु देसम पार्टी (टीडीपी), टीआरएस और वाईएसआर कांग्रेस द्वारा अविश्वास प्रस्ताव के लिए दिए गए नोटिसों पर चर्चा भी नहीं हो सकी। हैरत की बात है कि एक तरफ तो विपक्ष अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा चाहता था तो दूसरी तरफ सदन की कार्यवाही चलने नहीं दे रहा था। उसका यह विरोधाभासी रवैया किसी की समझ में नहीं आया।


नहीं हो सके कई जरूरी बिल पास:


बजट सत्र के दौरान लोकसभा में पांच विधेयक पेश किए गए, जबकि राज्यसभा में एक विधेयक पेश हुआ। कुल मिलाकर देखें तो सबसे महत्वपूर्ण वित्त विधेयक 2018 (बजट) समेत सिर्फ पांच विधेयक ही पारित हो सके। बजट के अलावा अन्य विधेयकों में ग्रेच्युटी भुगतान (संशोधन) विधेयक 2018 (दोनों सदनों द्वारा पारित), विशिष्ट राहत (संशोधन) विधेयक 2018 (लोकसभा द्वारा पारित) शामिल हैं। चूंकि विनियोग विधेयक और वित्त विधेयक को लोकसभा से पारित कराने के बाद राज्यसभा ने इन्हें 14 दिन के भीतर नहीं लौटाया, इसलिए संविधान के अनुच्छेद 109 के खंड (5) के अंतर्गत इन्हें लौटाने की अंतिम तिथि 28 मार्च को समाप्त हो जाने पर संसद द्वारा इन्हें पारित मान लिया गया। दूसरी तरफ देश हित से जुड़े कई जरूरी विधेयक दोनों सदनों में लंबित रहे, जिन पर चर्चा नहीं हो सकी। प्रस्तावित विधेयकों में कुछ ऐसे विधेयक भी थे, जो अतिआवश्यक थे। अब उनके पारित न होने के कारण सरकार को अध्यादेश का सहारा लेना पड़ सकता है। अध्यादेश संसदीय लोकतंत्र में अस्वीकार्य होते हैं, लेकिन सरकार को आखिर काम तो करना ही पड़ेगा।


आराम से राय देना विपक्ष की परिपक्वता दर्शाता:


संसद न चलने से होने वाले नुकसान को केवल वही समझ सकता है, जो आम जनता और देश हित में लिए जाने वाले निर्णयों को गंभीरता से लेता हो। संसद में जनता अपने द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों को समाज की भलाई के लिए भेजती है। सदन में महत्वपूर्ण मामलों पर चर्चा की जाती है, बहस होती है ताकि कोई भी मुख्य बिंदु पिछड़ न जाए। सत्तापक्ष जिन विधेयकों को संसद के पटल पर रखता है, उसमें क्या खामियां हैं और उसे लाने के पीछे क्या मकसद है, अगर विपक्ष इन पर आराम से अपनी राय रखे और कुछ सुझाव दे तो वह उसकी परिपक्वता को दर्शाता है, लेकिन जिस तरह से हमारे देश की कमान संभालने वाले ही इसको गर्त की ओर लेकर जा रहे हैं, वैसा किसी भी लोकतांत्रिक देश में नहीं होता है। जनता जिन सक्षम सांसदों को सदन तक पहुंचाती है, वही यहां अपने अक्षम होने का साक्ष्य स्वयं दे देते हैं।


दोषी सिर्फ विपक्ष ही नहीं है:


चिंता की बात यह है कि संसद की प्रतिष्ठा को दांव पर लगाने वाले सांसदों में बिल्कुल भी संकोच नहीं दिखता। संसद चलाने के नियमों को ताक पर रखने वाले देश के लिए कैसे काम करेंगे? क्या जनता ने उन्हें हंगामे के लिए चुना है? ऐसा नहीं है कि विपक्ष ही इसके लिए दोषी है, क्योंकि ताली तो दोनों हाथों से ही बजती है। इसलिए संसद को नहीं चलने देने में उन लोगों का भी दोष है, जो विधेयक पारित कराने में कमजोर साबित हुए हैं। जवाब मिलना चाहिए कि सरकार ने संसद के गतिरोध को दूर करने का रास्ता क्यों नहीं खोजा? राजनीतिक दलों को संसद की गरिमा को बनाए रखना होगा, नहीं तो वह दिन दूर नहीं, जब जनता का संसदीय लोकतंत्र पर से भरोसा उठ जाएगा। जरूरत जनता के भरोसे को बनाए रखने की है, क्योंकि लोकतंत्र में असली मालिक देश की जनता ही होती है।

(कार्तिकेय हरबोला)


भारत-नेपाल संबंध

नेपाल के दोबारा प्रधानमंत्री बनने के बाद जब के. पी. शर्मा ओली का भारत आने का कार्यक्रम बना तो वैसा उत्साह नहीं था जैसा आम तौर पर नेपाल के नेताओं के आगमन को लेकर होता था। शुष्क कूटनीतिक संबंधों के परे भारत-नेपाल के संबंधों में विशेष किस्म का भाईचारा रहा है। जितनी संवेदनशीलता नेपाल को लेकर भारत में रही है, उतनी शायद ही किसी देश के प्रति रही हो। किंतु ओली जब पिछली बार प्रधानमंत्री बने थे भारत के साथ संबंध काफी खराब दौर में पहुंच गएथे। मधेसियों और जनजातियों ने अपने साथ अन्याय के विरु द्ध जो आंदोलन छेड़ा था, उसने नेपाल के लिए राशन से लेकर तेल, औषधियां सबका संकट पैदा कर दिया था। ओली ने आरोप लगाया था कि भारत जानबूझकर इस आंदोलन को बढ़ावा दे रहा है। उस समय के उनके तथा नेपाली मंत्रिमंडल के अन्य सदस्यों के बयानों को देखें तो लगेगा ही नहीं कि दोनों देशों के बीच वाकई कभी घनिष्ठ संबंध रहे हैं। भारत के खिलाफ वातावरण बनाया गया, नेपाली केबल से भारत के टीवी चैनल हटा दिए गए, भारतीय सिनेमा प्रतिबंधित हो गया, भारतीय नम्बर की गाड़ियां हमले की शिकार हुई, काठमांडू दूतावास की गाड़ी फूंकी गई। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के पुतले भी फूंके जाने लगे। प्रतिक्रिया में चीन के साथ संबंधों को सशक्त करके भरपाई करने की कोशिश हुई। यह बात अलग है कि कम से कम अभी की भौगोलिक स्थिति में चीन, नेपाल के लिए भारत का स्थानापन्न नहीं कर सकता था। हालांकि उसके बाद फरवरी, 2016 में ओली भारत आए। उस समय नौ समझौते हुए। किंतु उनकी सोच बदल गई हो ऐसा मान लेने का प्रमाण हमारे पास उपलब्ध नहीं है। परंपरा के अनुरूप इस बार उन्होंने अपनी विदेश यात्रा की शुरुआत भारत से की है, जो सकारात्मक संकेत है। प्रधानमंत्री मोदी के साथ मिलकर बीरगंज में जिस नये इंटिग्रेटेड चेक पोस्ट का उद्घाटन किया है, उससे दोनों देशों के बीच व्यापार और लोगों का आवागमन बढ़ेगा। दोनों नेताओं ने मोतिहारी और अमलेखगंज के बीच तेल पाइप लाइन बिछाने की आधारशीला रखी। रक्सौल और काठमांडू के बीच रेललाइन बिछाने पर सहमति हुई। ऐसा हो जाने से केवल दिल्ली ही नहीं, भारत के सभी कोनों से नेपाल जुड़ जाएगा। इस साल के अंत तक जयनगर से जनकपुर/कुर्था तथा जोगबनी से विराटनगर कस्टम यार्ड के बीच रेललाइन तैयार हो जाएगी। जयनगर-विजलपुरा-वर्दीवास और जोगबनी-विराटनगर परियोजनाओं के शेष हिस्से पर काम आगे बढ़ाया जाएगा। जल परिवहन को विकसित करने का मतलब है नदियों के साथ नेपाल का समुद्र तक प्रवेश। इस तरह देखें तो भारत, नेपाल के विकास तथा वहां के नागरिकों एवं सरकार, दोनों के साथ पूर्व के संबंधों के अनुरूप ही सहयोग के रास्ते बढ़ रहा है। कुछ लोग रेललाइन को चीन द्वारा तिब्बत से होकर नेपाल तक रेल मार्ग विकसित करने की योजना का जवाब मान रहे हैं। लेकिन भारत का कदम प्रतिक्रियात्मक नहीं है। न्यू जलपाईगुड़ी-काकरभिट्टा, नौतनवां-भैरहवा और नेपालगंज रोड-नेपालगंज रेल परियोजनाओं पर भी विचार चल रहा है। कोई संबंध एकपक्षीय नहीं हो सकता। ओली को विश्वास तो दिलाना होगा कि पिछले बयानों से उन्होंने अपने अंदर भारत विरोधी भाव गहरा होने का जो संदेश दिया था, वह बदल गया है। उन्होंने भारत के साथ व्यापार असंतुलन की बात की और भारत ने कहा कि इसे साथ मिलकर ठीक करेंगे। तो सब कुछ उनके अनुकूल हुआ। ओली ने भारत आने के पूर्व एक अखबार से बातचीत में कह दिया कि भारत को दोनों देशों के बीच भरोसा बढ़ाने के साथ ही एक संप्रभु देश के फैसलों का सम्मान करना चाहिए। लेकिन भारत ने संप्रभु देश के रूप में नेपाल का कब सम्मान नहीं किया है? मान भी लें कि भूतकाल में भारत की ओर से व्यवहारत: कुछ गलतियां हुई होंगी लेकिन दो दशक से ज्यादा समय से तो ऐसा कुछ होते नहीं दिखा। चीन के साथ संबंधों को लेकर उनका कहना था कि हमारे पड़ोस में दो बड़े देश हैं। हमें दोनों देशों से दोस्ती रखनी है। लेकिन हांगकांग के एक अखबार से ओली ने कहा था कि भारत के साथ हमारी बेहतरीन कनेक्टिविटी है, खुली सीमा है। लेकिन यह भी नहीं भूल सकते कि हमारे दो पड़ोसी हैं। हम किसी एक देश पर ही निर्भर नहीं रहना चाहते। केवल एक विकल्प पर नहीं। इसका अर्थ समझना कठिन नहीं है। नेपाल संप्रभु देश है। किससे संबंध रखे और न रखे यह उसका अधिकार है। किंतु उसे किसी देश से संबंध बनाते वक्त ध्यान जरूर रखना चाहिए कि इससे कहीं भारतीय हित तो प्रभावित नहीं होंगे। ओली ने जिस तरह मोदी के सामने पाकिस्तान की वकालत की वह आघात पहुंचाने वाली है। उन्होंने मोदी से इस्लामाबाद सार्क सम्मेलन में भाग लेने का आग्रह किया। क्या ओली को नहीं पता कि भारत, पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद से कितना पीड़ित है? 2016 में इस्लामाबाद सम्मेलन में भारत जाने को तैयार था, लेकिन उरी हमला हो गया और उस पर पाकिस्तान ने जो रुख अपनाया उसके बाद विवश होकर भारत को वहां न जाने का निर्णय करना पड़ा और सार्क सम्मेलन न हो सका। यह जानते हुए भी ओली ने यदि यह प्रस्ताव दिया तो इसे सभ्य कूटनीतिक व्यवहार नहीं कहेंगे। इसका जवाब दूसरे तरीके से भी दिया जा सकता था, किंतु कूटनीतिक शिष्टाचार को ध्यान रखते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने उनसे शालीनतापूर्वक कह दिया कि आतंकवाद के जारी रहते भारत के लिए पाकिस्तान में सार्क सम्मेलन में जाना संभव नहीं होगा। पिछले महीने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को नेपाल बुलाकर उन्होंने जिस तरह उनकी आवभगत की उसे नेपाल अपनी स्वतंत्र विदेश नीति कह सकता है, लेकिन साफ था कि इसके पीछे चीन की भूमिका थी। क्या सच नहीं है कि चीन दक्षिण एशिया में भारत को अलग-थलग करने नीति पर चल रहा है? उसने क्षेत्र के देशों के लिए थैली खोल दी है। हमारा आग्रह होगा कि ओली और नेपाल के दूसरे नेता इस रणनीति का हथियार न बनें। हम सार्क की सफलता चाहते हैं, लेकिन अभी तक इसके मार्ग की बाधा पाकिस्तान ही रहा है। ओली अपने देश को सामाजिक-आर्थिक समस्याओं से बाहर निकालने पर ध्यान केंद्रित करें। इस तरह नेतागिरी करने से क्षति नेपाल को ही होगी।

नए दौर में हो नई रोजगार नीति

श्रम संसार पहले ही रोबोट से त्रस्त था। रोबोट द्वारा अधिकाधिक कार्य जैसे असेंबली लाइन पर कारों का निर्माण किया ही जा रहा था। अब कंप्यूटर द्वारा बौद्धिक कार्यों को भी किया जाने लगा है। इसे आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस यानी एआई कहते हैं। जैसे यदि आपको कोर्ट में कोई मामला दायर करना हो तो आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस प्रोग्राम से आप जान सकते हैं कि उसी संबंध में कौन से पूर्व निर्णय दिए गए हैं। पूर्व में यह काम वकीलों द्वारा किया जाता था। अब एक सॉफ्टवेयर द्वारा किया जा सकता है। रोबोट और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का सीधा प्रभाव है कि श्रमिक की जरूरत कम होगी और रोजगार घटेंगे, लेकिन दूसरी ओर इन तकनीकों से रोजगार के नए अवसर भी बनेंगे। जैसे कंप्यूटर के माध्यम से ई-कॉमर्स को बढ़ावा मिला है। छोटे किराना दुकानदार भी इंटरनेट के जरिए ग्राहकों से ऑर्डर लेकर उनके घर पर माल पहुंचा रहे हैं। उनका कारोबार बढ़ा है। इसी तरह आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से विधिक शोध करने से ज्यादा संख्या में मामले दायर किए जा सकेंगे, जिन्हें निपटाने के लिए ज्यादा वकीलों की जरूरत पड़ेगी। तमाम रोगों की पहचान आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस द्वारा की जा सकती है जिससे उपचार सही होगा, मनुष्य की आयु बढ़ेगी और उसके द्वारा बाजार से अधिक माल की खपत की जाएगी। दूसरे कुछ कार्य हैं, जिन्हें कंप्यूटर, रोबोट या आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस द्वारा किया जाना लगभग असंभव है। जैसे बीमार का उपचार करने हेतु नर्स, छोटे बच्चों को पढ़ाने के लिए नर्सरी टीचर और बगीचे को संभालने के लिए माली। इस प्रकार के कार्यों में रोजगार के विस्तार की पूरी संभावना है, क्योंकि रोबोट और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से कुल आय बढ़ेगी व बाजार में इन सेवाओं की मांग बढ़ेगी।


ध्यान दें कि आय बढ़ने के बाद भी रोटी तो पूर्ववत उतनी ही खाई जाती है, लेकिन ब्यूटीशियन, नर्सरी टीचर, गेम्स टीचर आदि सेवाओं की खपत ज्यादा बढ़ी है। इस प्रकार रोबोट और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के दो विपरीत प्रभाव हमारे सामने आते हैं। एक ओर सीधे रोजगार का हनन तो दूसरी ओर नए क्षेत्रों में रोजगार में वृद्धि। जानकारों के बीच सहमति नहीं है कि इन दोनों में से कौन सा प्रभाव ज्यादा कारगर होगा। एक अध्ययन के अनुसार 48 प्रतिशत जानकार मानते हैं कि रोजगार पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा जबकि 52 प्रतिशत मानते हैं कि रोजगार पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। इस अनिश्चितता के बीच ही हमें रास्ता बनाना है। हम रोबोट तथा आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से रोजगार के हनन को रोक नहीं सकेंगे। हम यह कर सकते हैं कि जिन क्षेत्रों में नए रोजगार बनने की संभावना है, उन्हें बढ़ावा दें जिससे जितने रोजगार घटें, उससे ज्यादा रोजगार हम पैदा कर सकें।


एक अध्ययन के अनुसार चीन में 65 प्रतिशत लोग नई तकनीक आने से आशान्वित हैं। उन्हें भरोसा है कि आखिरकार उनके रोजगार बढ़ेंगे, लेकिन विश्व स्तर पर केवल 29 प्रतिशत लोग ही ऐसी आशा रखते हैं। यानी दुनिया की तुलना में चीन के लोग नई तकनीक के प्रति अधिक आशान्वित हैं। हमारे सामने चुनौती है कि हम अपने लोगों का भी इन तकनीकों के सार्थक पक्ष की ओर ध्यान दिलाएं, जिससे रोजगार हनन के बारे में चिंता करने के स्थान पर हमारे युवा नए क्षेत्रों में रोजगार सृजन पर ध्यान केंद्रित कर सकें। नर्सरी टीचर और माली जैसे सेवा क्षेत्र के रोजगार बढ़ेंगे। ऑनलाइन ट्यूशन और ऑनलाइन मेडिकल जांच में तमाम संभावनाएं उत्पन्न् होंगी। अत: सरकार को चाहिए कि अपने देश के युवाओं को फ्री वाईफाई उपलब्ध कराए और इन्हें इन नए क्षेत्रों के प्रति मोड़े।


रोबोट तथा आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का दूसरा प्रभाव है कि उतने ही माल का उत्पादन करने के लिए अब कम श्रम की जरूरत पड़ेगी। जैसे पूर्व में किसी कार फैक्ट्री में हजार श्रमिक थे तो अब उनकी संख्या मात्र दो सौ रह जाएगी। यही बात हर एक उद्योग पर लागू होगी। मनुष्य की जरूरत के सामान का उत्पादन करने के लिए कुल श्रम की जरूरत घटेगी। अब यह जरूरी नहीं रह जाएगा कि हर व्यक्ति श्रम करे। अभी तक हम यह मानते हैं कि हर व्यक्ति को रोजगार कर अपनी जीविका चलानी चाहिए और हमारा प्रयास उनके लिए पर्याप्त संख्या में रोजगार बनाने का है, लेकिन जब अर्थव्यवस्था में श्रम की जरूरत ही घट रही है तो रोजगार की संख्या को बढ़ाना लगभग असंभव होगा।


18वीं सदी में मनुष्य सप्ताह के सातों दिन काम करता था। 19वीं सदी में उसे साप्ताहिक एक दिन का अवकाश मिला और वह छह दिन काम करने लगा। 20वीं सदी में वह पांच दिन काम करने लग गया और कई देशों में अब लोग सप्ताह में केवल चार दिन काम करते हैं। सप्ताह में कार्य दिवसों की कटौती इस बात को दर्शाती है कि उतने ही उत्पादन के लिए श्रम की जरूरत कम रह गई है। जो माल पहले पूरे देश के श्रमिक सात दिन तक काम करके बनाते थे, अब वे उससे ज्यादा माल केवल चार दिन के श्रम से बना ले रहे हैं। मेरा आकलन है कि आने वाले समय में हर व्यक्ति को रोजगार उपलब्ध कराना एक तरह से असंभव होगा। इस परिस्थिति के दो परिणाम हो सकते हैं। यदि हम बेरोजगारों को सार्थक दिशा में मोड़ ले गए तो यह एक स्वर्णिम युग का उदय होगा, लेकिन यदि हम उन्हें सार्थक दिशा नहीं दे सके तो यह हमारे लिए भयंकर स्थिति पैदा करेगा। बेरोजगार लोग अपराध की राह पकड़ सकते हैं। आज से लगभग डेढ़ सौ वर्ष पूर्व कार्ल मार्क्स ने कल्पना की थी कि आने वाले समय में व्यक्ति के लिए संभव होगा कि वह सुबह शिकार करे, दोपहर में मछली पकड़े, शाम को गौ पालन करे और रात्रि भोजन के बाद आलोचना में भाग ले। इसी प्रकार का स्वर्णिम युग आने वाले समय में स्थापित हो सकता है यदि हम हर व्यक्ति को उसकी जीविका के लिए मूल रकम उपलब्ध करा दें। हम हर व्यक्ति को रोजगार तो नहीं दे सकते, लेकिन उसे इतनी रकम तो दे सकते हैं जिससे वह अपनी जीविका चला सके। सरकार को चाहिए कि रोबोट तथा आर्टिफिशियल इंटेलिजेंसी पर टैक्स लगाए और इस टैक्स का उपयोग हर व्यक्ति को मासिक मुफ्त रकम उपलब्ध कराने के लिए करे, जिससे वे अपनी जीविका चला सकें और अपने मनपसंद कार्य में लग सकें। यदि लोगों को यह मुफ्त राशि नहीं दी गई तो बेरोजगारी के भयंकर परिणाम होंगे।


आने वाला समय सर्वथा अलग तरीके का होगा। रोबोट और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से श्रम का परिमाण घटेगा और देश के लिए जरूरी उत्पादन कम श्रमिकों द्वारा भी किया जा सकेगा। इस नई परिस्थिति को सही दिशा देने हेतु हमें तत्काल दो-तीन काम करने चाहिए। पहला यह कि विनिर्माण से रोजगार के अवसर सृजित करने के स्थान पर सेवा क्षेत्र पर ध्यान देना चाहिए, जिसका विस्तार होगा। दूसरे, पूरे देश में फ्री वाईफाई उपलब्ध कराना चाहिए, जिससे इंटरनेट के माध्यम से युवा लोग विश्व बाजार में दखल दे सकें। तीसरे, रोबोट और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस पर टैक्स लगाकर हर व्यक्ति को एक मूल रकम उपलब्ध करा देनी चाहिए, जिससे वह अपनी प्रतिभा को मनवांछित दिशा में लगा सके

(डॉ भरत झुनझुनवाला)


स्त्री ‘चल संपत्ति’ या ‘वस्तु’ नहीं है

पारंपरिक नजरिया पुरुष को स्त्री के मालिक के रूप में ही देखने का रहा है। इसलिए आश्चर्य नहीं कि सारे अहम फैसलों में पुरुष की ही चलती रही है। हमारे समाज में यह कड़वा यथार्थ पति-पत्नी के संबंधों में आज भी बड़े पैमाने पर देखा जाता है। यह अलग बात है कि संविधान ने दोनों को बराबर के अधिकार दे रखे हैं। कानून के समक्ष समानता का सिद्धांत तो देश के सारे नागरिकों पर लागू होता है। लेकिन पुरुष के स्त्री के स्वामी होने की मानसिकता अब भी बहुतायत में देखी जाती है। पुरुष तो मालिक होने के अहं में डूबे ही रहते हैं, बहुत-सी स्त्रियां भी पति से अपने रिश्ते को इसी रूप में देखती हैं। लेकिन शिक्षा-दीक्षा की बदौलत स्त्री में जैसे-जैसे बराबरी के भाव का और अपने हकों को लेकर जागरूकता का प्रसार हो रहा है, वैसे-वैसे पुरुष वर्चस्ववाद को चुनौती मिलने का सिलसिला भी तेज हो रहा है। पति-पत्नी के संबंधों में केवल पति की मर्जी मायने नहीं रखती। इस नजरिए की पुष्टि सर्वोच्च अदालत के एक ताजा फैसले से भी हुई है। एक महिला की तरफ से अपने पति पर क्रूरता का आरोप लगाए हुए दायर आपराधिक मामले की सुनवाई के दौरान सर्वोच्च अदालत ने कहा कि पत्नी ‘चल संपत्ति’ या ‘वस्तु’ नहीं है, इसलिए पति की इच्छा भले साथ रहने की हो, पर वह इसके लिए पत्नी पर दबाव नहीं बना सकता।
गौरतलब है कि इस मामले में महिला का पति चाहता था कि वह उसके साथ रहे, पर वह खुद उसके साथ नहीं रहना चाहती थी। इससे पहले अदालत ने दोनों को समझौते से मामला निपटाने के लिए मध्यस्थता की खातिर भेजा था। लेकिन सुनवाई के दौरान दोनों पक्षों ने बताया कि उनके बीच समझौता नहीं हो पाया है। ऐसे में महिला को पति के साथ रहने के लिए अदालत कैसे कह सकती है? अदालत की टिप्पणी का निष्कर्ष साफ है, दांपत्य और साहचर्य दोनों तरफ की मर्जी पर आधारित है। जिस तरह केवल पति की मर्जी निर्णायक नहीं हो सकती, उसी तरह केवल पत्नी की मर्जी भी नहीं हो सकती। गौरतलब है कि सर्वोच्च अदालत ने अपने एक अन्य फैसले में कहा था कि वह पति को (जो कि पेशे से पायलट था) अपनी पत्नी को साथ रखने के लिए बाध्य नहीं कर सकता। अलबत्ता वैसी सूरत में अदालत ने पत्नी के लिए फौरन अंतरिम गुजारा भत्ता जमा करने का आदेश दिया था। ताजा मामले की परिणति भी तलाक में होनी है, क्योंकि महिला ने पति पर जुल्म ढाने का आरोप लगाते हुए संबंध विच्छेद की गुहार लगाई है।

जहां केवल पुरुष की मर्जी चलती हो, स्त्री की मर्जी कोई मायने न रखती हो, स्त्री वहां पुरुष की चल संपत्ति या वस्तु जैसी हो जाती है, जबकि हमारा संविधान हर नागरिक को, हर स्त्री और हर पुरुष को न सिर्फ जीने का बल्कि गरिमा के साथ जीने का अधिकार देता है। इसी तरह हमारे संविधान का अनुच्छेद 14 कानून के समक्ष समानता की गारंटी देता है। इन्हीं प्रावधानों का हवाला देते हुए मुंबई उच्च न्यायालय ने शनि शिंगणापुर और हाजी अली की दरगाह में महिलाओं के प्रवेश का रास्ता साफ किया था। और इन्हीं प्रावधानों की बिना पर सर्वोच्च अदालत ने पिछले साल तलाक-ए-बिद्दत को खारिज किया था, और पिछले महीने उसने बहुविवाह तथा निकाह हलाला की संवैधानिकता पर भी सुनवाई करने का अनुरोध स्वीकार कर लिया। उम्मीद की जानी चाहिए कि ये अदालती फैसले समता के संवैधानिक प्रावधानों को जीवंत बनाने तथा उनके अनुरूप समाज की मानसिकता गढ़ने में मददगार साबित होंगे।

(सौजन्य – जनसत्ता)



Wednesday, 4 April 2018

लोक कल्याण से विमुख शिक्षा, समाज और शिक्षा के रिश्ते प्रश्नों के घेरे में

पिछले वर्षों में कौशल संपन्न और बहुपठित लोग जिस तरह आर्थिक दुराचार के मामलों में शामिल होते दिखाई पड़ रहे हैं उनसे समाज और शिक्षा के रिश्ते प्रश्नों के घेरे में आ रहे हैं। शिक्षा से मिलने वाला ज्ञान मनुष्य को क्लेश से मुक्त करने वाला सोचा गया था। यही नहीं स्वयं में ‘शिक्षा’ शब्द मनुष्य के चरित्र या स्वभाव में निहित ऐसे मूल्य-बोध के निर्माण का परिचय कराता है जो व्यक्ति को सकारात्मक किस्म के परिवर्तन की दिशा में संचालित करता है। आम तौर पर यह सबकी आशा होती है कि शिक्षित होकर व्यक्ति सामाजिक जीवन की गुणवत्ता को बढ़ाएगा, लेकिन अब ऐसे ही व्यक्ति सामाजिक मूल्यों से विरत होते दिख रहे हैं।



बचपन में गांवों और छोटे शहरों में पढ़े-लिखे लोग कम ही होते थे और डॉक्टर, अफसर और वकील की कौन कहे मुंशी, मुख्तार, पंडित, मौलवी आदि की भी सामाजिक उपस्थिति बड़ा मायने रखती थी और उनकी बड़ी इच्जत हुआ करती थी। ये रसूख वाले होते थे। इन सबसे यह सामान्य अपेक्षा होती थी कि ये अपने व्यवहार से सबके सामने आचरण के आदर्श सामने रखेगें। अपवादों को छोड़ दें तो वे अक्सर ऐसे होते थे जिन पर भरोसा किया जाता था और वे भी भरसक निर्वाह करते थे। वे मूल्यबद्ध होते थे और झूठ-फरेब से बचते थे। इसका प्रतिफल देश का सफल स्वतंत्रता संग्राम था जिसमें बहुतों ने अपने जान-माल की कोई परवाह न करते हुए एक बड़े और सामाजिक उद्देश्य के लिए स्वयं को समर्पित कर दिया।

कहना मुश्किल है कि यह उत्कट किस्म की सामाजिक भागीदारी उनकी शिक्षा की देन थी या उस समय के सामाजिक सांस्कृतिक परिवेश का असर था। देश के इतिहास में ऐसे महानुभावों की एक बड़ी तादाद है जो पढ़-लिखकर वकालत आदि के व्यवसाय से खूब पैसा कमा रहे थे तिस पर भी देशहित में सब कुछ त्याग कर स्वतंत्रता की लड़ाई में कूद पड़े और ऐसा देश के कोने-कोने में हुआ। यह सब अनायास नहीं हुआ था। बहुत सारे आकर्षण को छोड़ इन लोगों ने खुशी-खुशी जान बूझ कर कठिन, अस्पष्ट और किंचित असुरक्षित जीवन का वरण किया। औपचारिक शिक्षा और जीवन की शिक्षा शायद दोनों ने मिल कर इन व्यक्तियों में वह विवेक जगाया था जिसके आगे निजी लक्ष्य कमजोर पड़ गए और समाज के सरोकार जीत गए। स्वतंत्र होने के बाद के घटनाक्रम जिस तरह बदले उनमें मूल्यों के साथ समझौते और उनमें क्रमश: क्षरण की कहानी के हम सभी लोग गवाह हैं।


शिक्षा से बड़ी आशा थी कि वह मानव मूल्यों के लिए प्रतिरक्षा तंत्र का कार्य करेगी। इसलिए उसमें एक स्तर की शुचिता और गुणवत्ता का बना रहना बेहद जरूरी था, पर हमारी कोताही के कारण ऐसा हो न सका। नवाचार, सृजनशीलता और मौलिकता आदि के लिए अवकाश ही नहीं बचा। शिक्षा की व्यवस्था प्रवेश और परीक्षा के मकड़जाल में फंसती चली गई और उसकी प्रामाणिकता घटती गई।

ऐसी स्थिति में सरकारी तंत्र ने शिकंजा कसना शुरू किया और उसकी स्वायत्तता जो गिरवी रखी गई आज तक नहीं वापस मिल सकी। यह जरूर हुआ कि सरकारी तंत्र जो अंतत: राजनीतिक पसंद और नापसंद की चौहद्दी में फरमान चलाता है, हावी होता चला गया। यह स्वाभाविक होता है, क्योंकि राजनीतिक हस्तक्षेप अराजक भाव से कार्य करता है। आज सारे अच्छे सरकारी संकल्पों के बावजूद शिक्षा जगत की छीछालेदर कम नहीं हो पा रही है। क्या पढ़ाया जाए? कैसे पढ़ाया जाए? किसलिए पढ़ाया जाए? ये प्रश्न गौण होते गए। विज्ञान, प्रौद्योगिकी और प्रबंधन जैसे भारी भरकम विषयों के लिए बड़े उदार भाव से सुविधाओं को जुटाने का क्रम अटूट भाव से चल रहा है।

पगार की बड़ी थैली या ‘पे पैकेज’ की लालसा लिए विद्यार्थी और अभिभावक इन विषयों की ओर आकर्षित हो रहे हैं। हालांकि सफलता का प्रतिशत उत्साहवर्धक नहीं है, पर जिन्हें अवसर मिल रहा है उनमें से कई उसका नाजायज फायदा उठाने से भी नहीं चूकते। फलत: कोई दिन ऐसा नहीं गुजरता जब आर्थिक दुराचरण का कोई मामला सामने न आता हो। यह सही है कि शिक्षा की प्रक्रिया समाज द्वारा पोषित होती है पर उससे यह अपेक्षित नहीं कि वह शिक्षित व्यक्ति के रूप में रोबोट जैसे लोग तैयार करे जो सामाजिक यथार्थ की प्रतिलिपि के हिसाब से काम करें। उससे यह भी अपेक्षित नहीं है कि वह अपने परिवेश के साथ सिर्फ अनुकूलित करने की योग्यता विकसित करे। यह तो उसका रुटीन सा कार्य या धर्म है।

प्रचलित व्यवस्था को बनाए रखने और उसका काम चलाने के लिए व्यवस्था का अनुशासन एक सीमा तक ही ठीक है, क्योंकि यदि वह ठीक नहीं है तो समस्या बढ़ती जाएगी और शिक्षा मुक्ति न देकर बंधन का ब्याज बन जाएगी। इसीलिए उपनिषद् के गुरु ने साहस के साथ दीक्षांत के समय अपने शिष्य से कहा था कि ‘जो हमारे अच्छे आचरण हैं केवल उन्हीं को अपनाओ, अन्य को नहीं।’ यहां गुरु एक शिष्य के लिए एक तरह परिपक्व विवेक के विकास की ओर संकेत कर रहा है। यह विवेक शिक्षा का उपहार होता है जो समाज को प्रभावित करता है। यदि ऐसा न होता तो समाज पूरी तरह स्थिर रहता और उसमें कोई बदलाव न होता।


शिक्षा का यह प्रमुख प्रयोजन है कि वह विवेक को विकसित करे। आज के दौर में इस विवेक के 4 प्रमुख आयाम या पक्ष हैं-ज्ञान और कौशल, सदाशयता, व्यावसायिक दायित्व और सामजिक दायित्व। ज्ञान और कौशल आज की शिक्षा के प्रमुख अंग के रूप में सर्वत्र स्वीकार किए गए हैं और प्रशिक्षण का सारा बल इसी पर होता है। निश्चय ही यह शैक्षिक अनुभव की सहज परिणति है जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती।


आज दुर्भाग्य से ज्ञान और कौशल के विकास को लेकर हम सतर्क नहीं हैं और गुणवत्ता की दृष्टि से विभिन्न संस्थाओं में बड़े अंतर मिलते हैं। ज्ञान के क्षेत्र में उत्कृष्टता का कोई विकल्प नहीं होता। यह भी गौरतलब है कि ज्ञान और कौशल शून्य में प्रयुक्त नहीं होते। इन्हें सामाजिक परिवेश में प्रयोग में लाया जाता है। यह परिवेश अन्य व्यक्तियों के साथ संबंधों से निर्मित होता है। संबंधों का आधार भावनात्मक लगाव होता है जो पारस्परिकता पर टिका होता है। यह पारस्परिकता दूसरे व्यक्ति की गरिमा को स्वीकारने और उसका समादर करने से ही आती है। इन सबके मूल में समता, मैत्री, क्षमा, विनम्रता, विश्वसनीयता जैसी भावनाएं होती हैं। इन भावनाओं की उपस्थिति सिर्फ व्यक्ति पर ही निर्भर नहीं करती। उसका परिवेश भी इन सद्भावनाओं से भरा होना चाहिए।


दूसरे शब्दों में शिक्षा के परिवेश में इन भावनाओं को जीवंत करना होगा। इन्हें देख कर, सुन कर और अनुभव कर ही पारस्परिकता पनप सकेगी। आज जब शैक्षिक परिवेश में नाना प्रकार के भेदभाव को प्रश्रय दिया जाता है तो स्थिति लक्ष्य के विपरीत चली जाती है। ज्ञान सिर्फ ज्ञान के लिए नहीं होता, उससे लोक-कल्याण भी होना चाहिए। दूसरे शब्दों में ज्ञान को समाजोपयोगी होना चाहिए। उसे समाज की सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक अपेक्षाओं के अनुरूप होना चाहिए। इसी में ज्ञान और कौशल की सफलता है, पर यही पर्याप्त नहीं है, क्योंकि ज्ञान समाज के लिए मार्गदर्शक का भी कार्य करता है, अन्यथा सिर्फ यथास्थितिवाद ही बना रहेगा।

(गिरीश्वर मिश्र। लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति हैं। सौजन्य – दैनिक जागरण।)


स्त्री-पुरुष समानता नजर भी आनी चाहिए, अाज भी जनाजे में नहीं जा सकती महिलाएं

 मेरी मां जब बीमार थीं तो मैं और मेरी नानी पूरे वक्त उनके साथ रहती थीं। हम दोनों दिन-रात उनकी देखभाल में लगे रहते थे। उनके पास कोई और नहीं आता था। घर के पुरुष सदस्य अपने-अपने काम में व्यस्त रहते थे, लेकिन मां के इंतकाल के बाद शव को लेकर क्या-क्या करना है, यह सारा निर्णय पुरुष सदस्यों ने कर लिया। मां का जनाजा खाट में रखकर कब्रगाह में ले जाया गया। मैंने जनाजे के साथ कब्रगाह तक जाने की बात कही तो मुझसे कहा गया कि महिलाओं को जनाजे के साथ कब्रगाह जाने की इजाजत नहीं है। पुरुषों ने कहा कि तुम मां की संतान हो सकती हो, लेकिन तुम्हें मां के जनाजे के साथ जाने का हक नहीं है।

अाज भी महिलाअों को जनाजे की नमाज पढ़ने और मां की कब्र पर मिट्टी देने का हक नहीं:

यहां तक कि जनाजे की नमाज पढ़ने और मां की कब्र पर मिट्टी देने और कब्रगाह में दाखिल करने का भी हक नहीं है। ऐसा क्यों? क्या मैं एक महिला हूं, इसलिए ऐसा कहा गया। इस्लाम महिलाओं को जनाजे के साथ कब्रगाह जाने की अनुमति नहीं देता। बांग्लादेश में जनाजे की नमाज में किसी भी महिला की मौजूदगी नहीं होती, हालांकि पाकिस्तान में है। संभवत: कुछ और मुस्लिम देशों में भी है। जब पाकिस्तान में मानवाधिकारों के लिए लड़ने वाली अधिवक्ता आसमां जहांगीर का जनाजा निकला तो उसमें बड़ी संख्या में महिलाएं भी शामिल हुईं। पहली कतार में खड़ी होकर आसमां जहांगीर की बेटी समेत कई महिलाओं ने जनाजे की नमाज अदा की। क्या इस्लाम महिलाओं को जनाजे की नमाज अदा करने की अनुमति दे देता है? इस सवाल का जवाब यह मिला कि जनाजे में पुरुष के साथ नमाज पढ़ने के लिए महिलाओं को उत्साहित नहीं किया जाता। महिलाओं के लिए घर में बैठकर ही नमाज पढ़ना बेहतर है। हालांकि जनाजे की नमाज पढ़ना महिलाओं के लिए गैरकानूनी या इस्लाम विरोधी नहीं है।

यदि पढ़ना ही है तो पुरुषों के पीछे खड़े होकर पढ़ा जा सकता है। किसी भी सूरत में पुरुष के सामने खड़े होकर नहीं। इस्लाम के कई विशेषज्ञों का कहना है कि अरब देशों में मोहम्मद नबी के वक्त महिलाएं जनाजे में शरीक होती थीं। उस समय भी महिलाओं को नमाज पढ़ने के लिए पिछली कतार में खड़ा होना होता था। आज 1400 वर्ष बाद महिलाओं के अधिकार और बढ़ने चाहिए थे, लेकिन बांग्लादेश में जनाजे के सामने की कतार में तो क्या, पिछली कतार में भी महिलाओं को खड़े होने की इजाजत नहीं है। पाकिस्तान में जो हो सकता है, वह बांग्लादेश में क्यों नहीं हो सकता? पाकिस्तान का जन्म धार्मिक आधार पर हुआ था। वहीं बांग्लादेश का जन्म भाषा, संस्कृति और धर्मनिरपेक्षता के आधार पर हुआ।

पाकिस्तान और बांग्लादेश की बुनियाद में जमीन-आसमान का अंतर:

पाकिस्तान और बांग्लादेश की बुनियाद में जमीन-आसमान का अंतर है, लेकिन पाकिस्तान में महिलाओं को जितनी स्वाधीनता और अधिकार हैं उतने बांग्लादेश में नहीं मिलते। मैं ऐसा नहीं कह रही हूं कि पाकिस्तान में महिलाएं प्रताड़ित नहीं होती हैं, बल्कि यह कहना चाहती हूं कि बांग्लादेश में महिलाएं प्रताड़ित होने के साथ अपने अधिकारों से भी वंचित हैं। इस्लाम ने जो थोड़े-बहुत अधिकार महिलाओं को दिए हैं वे भी नहीं मिल रहे हैं।

यह मुमकिन नहीं कि पुरुष महिलाओं के पीछे खड़े होकर नमाज पढ़ें:

हाल में केरल के मल्लापुरम के चेरूकोड़ गांव में जमीदा बीबी ने जुम्मे की नमाज पढ़ाई। इस्लाम यह मान सकता है कि एक महिला दूसरी महिलाओं की नमाज के लिए इमाम हो सकती है, लेकिन यह मुमकिन नहीं कि पुरुष महिलाओं के पीछे खड़े होकर नमाज पढ़ें, लेकिन यह असंभव घटना केरल के इस गांव में हुई। महिला-पुरुष, सभी ने जमीदा के पीछे खड़े होकर नमाज अदा की। नमाज के बाद जमीदा बीबी ने कहा कि कुरान में महिला-पुरुष में समानता की बातें लिखी हैं। भेद पुरुषों ने पैदा किया है, जिसे मैं दूर करूंगी। जमीदा का कहना है कि कुरान में कहीं भी यह नहीं लिखा कि पुरुष ही इमाम का काम कर सकते हैं। जमीदा कुरान पर यकीन करती हैं, हदीस पर नहीं। उनका तर्क है कि हदीस अल्ला या रसूल ने नहीं लिखी। हदीस रसूल के अनुयायियों ने लिखी। इन अनुयायियों पर जमीदा को यकीन नहीं।

महिला जमीदा की ओर से नमाज पढ़ाने की खबरें सुनकर एक मुस्लिम संगठन के नेता ने कहा कि जमीदा बीबी ने जो किया वह नाटक के अलावा कुछ नहीं है। जमीदा के खिलाफ फतवा जारी किया गया, लेकिन उन्होंने साफ कहा कि वह इमाम का कार्य करेंगी। उन्हें फतवा की परवाह नहीं है और जरूरी हुआ तो पुलिस से सुरक्षा लेंगी। जमीदा ने पूछा कि अगर महिलाओं के अधिकार वाले नियमों में बदलाव नहीं होगा तो देश कैसे आगे बढ़ेगा? जमीदा जैसी साहसी महिलाएं बांग्लादेश अथवा अन्य मुस्लिम देशों में क्यों नहीं हैं? कई अन्य मुस्लिम देशों में महिलाएं मस्जिद में जाकर नमाज अदा करती हैं, लेकिन भारतीय उपमहादेश में महिलाओं के कदम-कदम पर बेड़ियां डाली गई हैं। किसी-किसी मस्जिद में पुरुषों के नमाज पढ़ने के स्थान के पास दीवार घेरकर महिलाओं के लिए स्थान बनाए गए हैं। वहां महिलाएं नमाज पढ़ती हैं, लेकिन अधिकांश मस्जिदों में बड़े-बड़े अक्षरों में नोटिस चस्पा है कि महिलाओं का प्रवेश निषेध है। आदिकाल में बर्बरता के समय भी महिलाएं मस्जिद में जाकर नमाज पढ़ती थीं, लेकिन तब भी घर में नमाज पढ़ने को अच्छा माना जाता था। कहा जाता है कि जमात में यानी जब कई लोग एक साथ नमाज पढ़ते हैं तो उसका सवाब अधिक मिलता है। आखिर महिलाओं को जमात का सवाब क्यों नहीं लेने दिया जाता?

महिलाएं घर का चौखट नहीं लांघ सकतीं:

अगर महिलाएं मस्जिद में जाती हैं तो इस्लाम के कानून के मुताबिक कौन सा नियम टूटता है? किसी को यह अधिकार नहीं कि महिलाओं को मस्जिद में जाने से रोके। सभी मस्जिदों में महिलाओं को नमाज पढ़ने दी जाए। दरअसल जो सबसे अधिक जरूरी है वह है इस्लाम में बदलाव। वक्त के साथ हर चीज में बदलाव होता है। किसी हदीस में लिखा है कि महिलाएं शिक्षा के लिए सुदूर चीन देश भी जा सकती हैं। किसी में लिखा है खबरदार, महिलाएं घर का चौखट नहीं लांघ सकतीं। इन दो तरह की बातों से लोगों में संशय पैदा होता है इसलिए जरूरी है कि इस्लाम उदार बने ताकि वह आधुनिकता को अपना सके। मोबाइल फोन, टीवी, कंप्यूटर, इंटरनेट, फेसबुक के इस्तेमाल की बातें भी तो कुरान या हदीस में नहीं लिखी हैं, लेकिन मुसलमान इन चीजों का खूब इस्तेमाल करते हैं।

क्या कुरान या हदीस में यह लिखा है कि अन्य धर्म मानने वालों के साथ दोस्ती न करें:

क्या कुरान या हदीस में यह लिखा है कि अन्य धर्म मानने वालों के साथ दोस्ती न करें? क्या मुसलमानों के लिए अन्य धर्म वालों के वैज्ञानिक आविष्कारों को छोड़कर जीवन-यापन करना संभव है? क्या इन्हें ठुकराने के बाद मुसलमानों को आदिकाल में नहीं लौटना होगा? अन्य धर्मावलंबियों से शत्रुता न कर उनसे दोस्ती करना, आधुनिक होना एक छोटा सा प्रयास है। यदि केरल के गांव की एक महिला इमाम का कार्य कर सकती है तो मुस्लिम समाज की अन्य महिलाएं भी आगे क्यों नहीं आ सकतीं? इस्लाम समानता की बात करता है, यह सुन-सुनकर मेरे कान पक चुके हैं। मैं सच में यह देखना चाहती हूं कि इस्लाम समानता की बातें करता है। सातवीं सदी के इस्लाम को 21वीं सदी के इस्लाम में बदलना होगा। जो इस्लाम महिलाओं के मस्जिद में नमाज पढ़ने और उनके इमाम बनने में बाधा नहीं डालेगा, हम सभी उसी इस्लाम पर गर्व करेंगे।

(तसलीमा नसरीन, सौजन्य – दैनिक जागरण।)

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